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श्रीराम-शबरी मिलन: प्रभु श्रीराम की ‘नवधा भक्ति’ के नौ रस

श्रीराम के संपूर्ण वनवास काल में अरण्यकाण्ड का अतिमहत्वपूर्ण स्थान है। चित्रकूट से आगे बढ़ते हुए राम,लक्ष्मण व सीताजी पंचवटी को अपना नया निवास स्थान बनाते है। वाल्मीकि रामायण व तुलसीदास की श्रीरामचरितमानस के अरण्यकाण्ड में न केवल ज्ञान व भक्ति की महिमा अद्भुत है, पर इसी सोपान में सीता जी के हरण के कारण श्रीराम का सीता वियोग उनके भक्तों के लिए भी हृदयविदारक है। इसी सोपान में श्रीराम जीवन अरण्य में ज्ञान व भक्ति रस के नये-नये रूप अपने भक्तों को दिखाते हैं और स्वयं भी संतों व ऋषियों के पास पहुंचकर पाप का नाश करने के लिए उनका आशीर्वाद प्राप्त करते है।

श्रीरामचरितमानस के अरण्य सोपान के अंतिम भाग में श्रीराम-शबरी का मिलन होता है। यह भेंट भारतीय संस्कृति व सनातन धर्म में कोई साधारण मिलन नहीं है। एक भक्त का अपने भगवान के प्रति अटूट विश्वास व आस्था का सबसे बड़ा प्रतीक है। यह भक्ति के नौ रसों का घाट है। जिसे स्वयं प्रभु श्रीराम ने अपने श्रीमुख से नवधा भक्ति नाम दिया है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस के अरण्यकाण्ड में स्वयं प्रभु श्रीराम के मुखारबिंद से नवधा भक्त के विषय में विस्तार से बताया है। यह भक्ति ज्ञान या भक्ति योग वैसा ही है जैसा बाद में महाभारत काल में महायोगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कुरूक्षेत्र में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय बारह में भक्ति योग समझाया। उससे पहले नवधा भक्ति सतयुग में, प्रह्लाद ने पिता हिरण्यकशिपु को इस भक्ति के विषय में बताया था।

श्रीराम-शबरी मिलन सभी तरह की ऊंच-नीच से परे यह मिलन सहस्त्रों शताब्दियों से भक्त व भगवान के विश्वास का प्रमाणिक उदाहरण रहा है। श्रीराम जब शबरीजी के आश्रम में आये तो शबरी मुनि मतंग के वचनों का स्मरण कर मन में प्रफुल्लित हो गई। उनके जीवन का लक्ष्य उन्हें प्राप्त हो गया। मतंग वन मंगलमय ध्वनियों से गुंजायमान् हो गया। श्रीराम का शबरी से मिलन जगत के लिए कल्याणमय् पल है। भगवान का भक्त के द्वार पर आना जबकि रामजी सीताजी के वियोग में वन वन भटक रहे है, अपने आप में मार्मिक व भक्ति की शक्ति का प्रतीक का प्रमाणिक प्रसंग है। श्रीराम शबरी के मिलन का प्रसंग अन्य रामायणों में भी बहुत ही रोचक व अद्भुत तरह से वर्णन है। जो कि भक्ति साहित्य में विशेष स्थान रखता है।

प्रतिदिन की तरह नये नये फूलों से सजाया द्वार व उसपर आ रहे कमल सदृश नेत्र और विशाल भुजाओं वाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किए हुए सुंदर, साँवले और गोरे दोनों भाइयों श्रीराम-लक्ष्मण के चरणों में शबरीजी लिपट पड़ीं। मानों अंधे को अपनी दोनों नेत्र यकायक मिल गये। वे प्रेम में मग्न हो गईं, मुख से वचन नहीं निकलता। बार-बार चरण-कमलों में सिर नवा रही हैं। फिर उन्होंने जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाइयों के चरण धोए और फिर उन्हें सुंदर आसनों पर बैठाया। यह दृश्य हर किसी के लिए सुखदायक है। सरल हृदय मानव अपने आंसू रोक नहीं सकता।

भगवान श्रीराम ने शबरी द्वारा श्रद्धा से भेंट किए गए बेरों व अन्य सुरस फलों को बड़े प्रेम से खाया और उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं:

कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि।।

प्रभु राम इन फलों को बहुत ही प्रेमसहित व मन से ग्रहण करते हैं। मानों उन्होंने शबरी के झूठे बेर के लिए ही वनवास बड़े प्रेम से स्वीकारा हो ! वहीं लक्ष्मण जी यह सब देखकर विस्मित है ! मन ही मन कह रहे है प्रभु की अब यह कौन-सी लीला है ? लक्ष्मण जी इस लीला का आनंद भी ले रहे है।
फिर शबरी अपने प्रभु को देखकर प्रेम से भर गई। उन्हें कुछ सुधबुध ही नहीं है कि अब आगे क्या कहें ? कैसे स्वयं परमात्मा से कुछ कहें ? शबरी अपने को नीच जाति व अत्यंत मूढ़बुद्धि मानने लगी। उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि प्रभु सामने बैठे है और उनकी स्तुति कैसे करें ? जबकि शबरी सिद्ध तपस्विनी थी।

जैसे कि प्रभु हर बार अपने भक्त को परेशानी में देखकर उनके मन का समाधान करते है उसी तरह श्रीराम ने शबरी के मन को शांत करते हुए कहा कि हे भामिनि ! “मानउँ एक भगति कर नाता” (मैं तो केवल एक भक्ति ही का संबंध मानता हूँ।) मुझे अपने सभी भक्त प्यारे है। मैं किसी भी तरह की ऊंच-नीच को नहीं मानता। प्रभु श्रीराम के लिए अपना भक्त परमप्रिय है।

शबरी को प्रभु श्रीराम कहते है, मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति रस कहता हूँ। एक ही भक्ति के नौ रसों का रहस्य बताता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में इसे धारण कर;-

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा- पहली भक्ति है संतों की सत्संग। सत्य का साथ। मानव जीवन के कल्याण के लिए सतत ईश्वर का सान्निध्य ही एकमेव उपाय है। सत्यम शिवम सुन्दरम भाव।

दूसरी रति मम कथा प्रसंगा- दूसरी भक्ति है मेरे कथा -प्रसंग में प्रेम । प्रभु से प्रेम करना। प्रभु भाव में रत रहना। भगवन के भजन कीर्तन में आनंदमय रहना।

तीसरी भक्ति है अभिमान रहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा करना। छोटे-बड़े के भेद भाव से परे जाकर भक्ति भाव में रहना।

चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर प्रभु के गुण समूहों का गान करना। कैसी भी चलाकी-चतुराई से बचना।

मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवी भक्ति है। जो वेदों में प्रसिद्ध हैं। राम नाम ही सत्य है। प्रभु के नाम राम में रमे रहना।

छठी भक्ति – इन्द्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म(आचरण) में लगे रहना। सदा सत्य के साथ रहना।

सातवीं भक्ति है जगत् भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत(राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। प्रभु की भक्ति करने वालों को अधिक मानना।

आठवीं भक्ति- जथालाभ संतोषा (जो कुछ मिल जाय उसी में संतोष करना) और स्वप्न में भी पराये दोषों को न देखना।

नवी भक्ति- सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य(विषाद) का न होना। समभाव में रहना। भक्त का भगवान के प्रति अटूट आस्थावान होना।

यह नवधा भक्ति रस बरसाने के बाद प्रभु श्रीराम शबरी से कहते है कि इन नवों में से जिनके पास एक भी होती है, वह स्त्री-पुरूष, जड़-चेतन कोई भी हो- मुझे वह अत्यंत प्रिय है। ओर फिर प्रभु श्रीराम शबरी को प्रेममय होकर कहते है, हे भामिनि ! फिर तुझमें तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिये सुलभ हो गयी है। प्रभु के दर्शन का परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।
वास्तव में यह नवधा भक्ति संपूर्ण मानवता के लिए प्रभु श्रीराम का वरदान, कृपा ही है।

संदर्भ:-

१. श्रीरामचरितमानस-गोसाईं तुलसीदास (टीकाकार-हनुमानप्रसाद पोद्दार)

२. श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण ( प्रथम खण्ड) गीताप्रेस, गोरखपुर

३. https://www.vedicaim.com

४. https://hindi.speakingtree.in/blog/content-378292/m-

५. http://vskjabalpur.org

Image credit: amarujala

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