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लिखना सीखा भी जाता है क्या?

हिन्दी पट्टी में कोरोना काल के बाद जो बदलाव आये, उनमें से एक था लेखन सम्बन्धी कार्यशालाओं का आयोजन। ऑनलाइन माध्यमों से चलने वाली ऐसी कार्यशालाओं में भला क्या सिखाते होंगे, ऐसा सवाल मन में आ सकता है। लोग ये मानकर चलते हैं कि लिखना, विशेषकर हिन्दी में लिखना तो उन्हें आता ही है। बचपन से जो भाषा संवाद के लिए प्रयोग करते आ रहे हैं, उसमें लिखना क्यों नहीं आता होगा?

ये सीधा सा लगने वाला उत्तर तब झूठा लगता है जब आप स्वयं किसी मुद्दे पर हजार शब्दों का एक लेख लिख देने की कोशिश भर कर लें। करीब डेढ़ सौ शब्दों तक पहुँचने में, शुरुआत में, हम खुद ऐसे हांफने लगते थे, जैसे चालीस की उम्र में जिम में कसरत करने पहुंचा कोई पहले-दूसरे दिन पंद्रह मिनट में हांफने लगे। लिखने का प्रयास शुरू करते ही हमें अपने एक दूसरे, थोड़े पुराने सवाल का जवाब मिलने लगा था।

दूसरा प्रश्न था कि भारत में लोग लिखते नहीं क्या? कुछ वर्षों से ये विचार कभी कभी मन में इसलिए आता रहा क्योंकि भारत से जुड़ी बड़ी-बड़ी घटनाओं के विषय में भी जानना-पढ़ना हो तो कुछ ही वर्षों बाद हमें किसी विदेशी लेखक के लिखे पर निर्भर होना पड़ता है। आवश्यक नहीं कि यहाँ मेरे ‘विदेशी’ का अर्थ केवल जन्म से, नागरिकता से ‘विदेशी’ हो, कई बार विचारों से भी लोग ‘विदेशी’ से इतने अभिभूत होते हैं, कि उन्हें ‘भारतीय’ मान लेना कठिन हो जाता है।

समय के साथ ये भी लगने लगा कि संभवतः ऐसा क्यों होता होगा। दूसरी कई बातों जैसा ही, लेखन भी अभ्यास का विषय है। आप प्रतिदिन लेखन का अभ्यास कितना करते हैं, अन्य लेखकों से – जिनका अभ्यास आपसे अधिक हो – उनसे सीखते कितना हैं, इसपर भी निर्भर करता है कि आपका लेखन कितना अच्छा होगा।

अंग्रेजी की बात की जाए तो लेखन में सुधार के लिए “बर्ड बाय बर्ड”, “ऑन राइटिंग वेल”, “सेन्स ऑफ स्टाइल” जैसी कई पुस्तकें आसानी से उपलब्ध हैं। हिन्दी में जब अधिक अभ्यस्त लेखकों के अनुभवों से सीखने का प्रयास किया तो शुरू में पुस्तकें मिलती ही नहीं थीं। थोड़े और प्रयासों से पिछले कुछ वर्षों में ऐसी पुस्तकों का नाम पता चल गया जिनसे हिंदी लिखना सीखा जा सकता था।

रामचंद्र वर्मा की “अच्छी हिंदी” या आचार्य विद्यानिवास मिश्र की “हिन्दी की शब्द सम्पदा” जैसी पुस्तकें काम की थीं। आसानी से इनका नाम क्यों नहीं मिलता? क्योंकि इन्टरनेट की दुनिया जिस एसईओ (सर्च इंजन ऑप्टिमाईजेशन) पर काम करती है, उसमें जिस किताब के रिव्यु जितने ज्यादा होंगे, वो उतनी आसानी से दिखेगी। अमेज़न जैसे ऑनलाइन माध्यमों पर किसी ने इनके रिव्यु लिखे ही नहीं थे, तो ये किताबें एसईओ में कहीं नीचे छुप जाया करती थीं।

जब ये पता हो कि लिखना सीखा जा सकता है, अभ्यास से सुधारा जा सकता है, और साथ ही ये भी पता हो कि भारतीय भाषाओँ में लिखना सीखने के आयोजन कम होते हैं, तब अगर किसी लेखन की कार्यशाला में जाने का अवसर मिले, तो भला कैसे चूका जा सकता है? रक्षाबंधन से लेकर स्वतंत्रता दिवस के बीच का लम्बा सप्ताहांत, जिसमें छुट्टियाँ थीं, उसने बंगलोर पहुँच जाना और आसान कर दिया था।

आयोजन में आये करीब चालीस लोगों में से कई नाम से, सोशल मीडिया के माध्यम से परिचित तो थे, लेकिन किसी से प्रत्यक्ष भेंट भी पहले नहीं हुई थी। नए लेखकों से मिलने के साथ ही ये अवसर था ये भी जानने का कि भारत के और क्षेत्रों में लेखकों को कौन से मुद्दे महत्वपूर्ण लगते हैं, कौन किस विषय पर लिख रहा है?

पहला ही सत्र मेरे लिए एक नया आश्चर्य लेकर आने वाला था। डॉ. जयरामन का ये सत्र “तंत्रयुक्ति” पर था। संस्कृत से स्नातक तक की पढ़ाई में मेरा सामना कभी इस “तंत्रयुक्ति” शब्द से नहीं हुआ था। हाँ, प्रबंधन के विषयों में से एक “रिसर्च मेथडोलोजी” की थोड़ी जानकारी जरूर थी। सही तरीके से शोध करने और शोध को सही क्रम, उचित भाषा में प्रस्तुत करने, इन दो कार्यों के लिए “रिसर्च मेथडोलोजी” पढ़ाई जाती है।

पहली बार में संभवतः फिल्मों के प्रभाव से तंत्रयुक्ति किसी जादू-टोने जैसा सुनने में जरूर लगा, लेकिन सिर्फ एक पन्ने में शोध को प्रस्तुत करने योग्य सारी जानकारी दी जा सकती है, ये जानना एक सुखद आश्चर्य था। इसका प्रयोग नहीं होता हो ऐसा भी नहीं था। चरक संहिता जैसे चिकित्सा के ग्रंथों में तंत्रयुक्ति को लेखन शैली का आधार बनाया गया है। चाणक्य के अर्थशास्त्र का आधार भी तंत्रयुक्ति है और अर्थशास्त्र का अंतिम अध्याय यही बताता है कि कैसे इन सिद्धांतों का प्रयोग हुआ है।

पहले ही दिन मिली जानकारी के प्रभाव से बाहर आते किन्तु उससे पहले ही दूसरे दिन के पहले सत्र में डॉ. स्वरुप रावल की प्रस्तुति सामने आ गयी। उनकी दक्षता बच्चों को कला के जरिये सिखाने में थी तो कोई आश्चर्य नहीं हुआ जब उनकी प्रस्तुति उसी शैली में शुरू हुई। कला और संस्कृति के क्षेत्र में शोध को कैसे प्रस्तुत किया जाए, इसपर अपने अनुभवों से उन्होंने काफी कुछ साझा किया। उनकी प्रस्तुति प्रश्नों से भरी थी और लेखक अपनी पुस्तक कैसे आरंभ करते हैं, कैसे वो आगे बढ़ती है, इन विषयों पर बात होती रही।

लेखन किन मूल्यों से शुरू होता है, कौन से प्रश्न हैं जिनका वो उत्तर देता है, इनपर बात शुरू हुई थी। किसी का लिखा आखिर पढ़ा ही क्यों जाए, ये विचार मेरे साथ साथ अन्य प्रतिभागियों के मन में भी इस सत्र से उठा होगा। ये एक महत्वपूर्ण बिंदु हो जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि अगर कोई पुस्तक लिखने बैठे तो उसका सामना सबसे पहले इन्हीं प्रश्नों से होता है – इस विषय पर तो इतने लोग लिख चुके, फिर तुम्हें भी क्यों लिखना है? या फिर तुमसे अधिक जानकार लोगों ने जब इस मुद्दे पर ग्रंथ लिख ही डाले हैं, तो फिर तुम्हारा लिखा कौन पढ़ेगा? जिन जरूरी प्रश्नों से एक लेखक का सामना होता है, उनपर विचार करते दोपहर हो गयी और हम लोग अगले सत्र की तरफ बढ़े।

भोजनावकाश तक डॉ. नागराज पातुरी भी कार्यशाला में आ चुके थे। प्रतिभागियों में से कई उनके परिचित थे, प्रस्तुति देने वाले जानकारों और आयोजकों से तो उनका परिचय था ही। अपने विषय को उन्होंने पहले ही “रिसर्च मेथडोलोजी” लिख रखा था। इस बार हमारा अनुमान था कि संभवतः तंत्रयुक्ति जैसे किसी विषय से नहीं, जाने पहचाने से अंग्रेजी वाले “रिसर्च मेथडोलोजी” से मुलाकात होगी। बड़ी तेजी से सामान्य मनुष्यों के बातचीत के तरीके और तथाकथित प्रगतिशील जमातों की गिटपिट भाषा-शैली में अदला-बदली करती उनकी भाषा से कार्यशाला का माहौल हल्का-फुल्का हुआ ही था कि वो अपने विषय पर आये।

कथेतर साहित्य (नॉन-फिक्शन) में विशेष रूप से और कथा साहित्य (फिक्शन) में कभी-कभार नजर आने वाला “अनुबंध चतुष्टय” उनका विषय था। “रिसर्च मेथडोलोजी” के दो हिस्सों में से दूसरा, शोध को उचित प्रकार से प्रस्तुत करने के लिए प्रयोग में आता है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, अनुबंध के चार हिस्से (चतुष्टय) की बात हो रही थी। हिन्दी में संस्कृत से लिए गए शब्दों के अर्थ थोड़े बदल जाते हैं, इसपर तंत्रयुक्ति सीखते समय भी ध्यान गया था। अनुबंध चतुष्टय के विषय, अधिकारी, सम्बन्ध और प्रयोजन की चर्चा के दौरान ये अंतर और भी स्पष्ट होते गए।

अंतिम दिन की चर्चा के लिए भविष्य के लेखक-लेखिकाओं के साथ साईं स्वरूपा आई हुई थीं। अबतक उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और उनमें से कुछ काफी चर्चित भी रही हैं। एक लेखिका के तौर पर उन्होंने अपने अनुभवों से बात शुरू की। शुरुआती दौर में किन किताबों को लिखने में क्या कठिनाइयाँ आयीं, किन उपायों से उन्हें दूर किया गया, इनपर बात होती रही।

कार्यशाला में उपस्थित कई प्रतिभागी ऐसी समस्याओं को देख चुके थे, या फिर अपने अपने उपायों से उन्होंने कठिनाई दूर भी की थी, इसलिए चर्चाओं के जरिये एक से अधिक उपायों की बात हुई। लेखन के साथ ही संपादन का काम जुड़ा होता है। जाहिर सी बात थी कि इस समय तक हम सभी संपादन पर बात करने की स्थिति में आ गए थे। अंतिम भाग में किताबों की समीक्षाओं पर बात शुरू हुई।

ये हमें वहाँ ले आया जहाँ से हमने लेख की शुरुआत की थी। किताबों की समीक्षाएं न लिखी जाएँ तो इन्टरनेट युग में उनके प्रचार प्रसार में समस्या आती है। विचारों के फैलाव को रोकने का ये उपाय कुछ लोग लम्बे समय से प्रयोग में लाते हैं। उदाहरण के तौर पर “हिंदी की शब्द सम्पदा” या “अच्छी हिंदी” जैसी किताबों की बात हमने शुरू में ही की थी। इनके अलावा अगर आप ढूँढने का प्रयास करें भी तो मीनाक्षी जैन जी की पुस्तकें जो श्री राम और अयोध्या पर लिखी गयी हैं, उनकी समीक्षा आपको मुख्य धारा की मीडिया में शायद ही मिल पाए।

ऐसा तब है जब राम जन्मभूमि के लिए चले मुकदमे और हिन्दुओं के इस पांच सौ वर्षों के लगभग चले संघर्ष को महत्वपूर्ण न माना जाए, इसका कोई कारण नहीं बनता। आज अगर हम कहते हैं कि भारतीय विषयों पर पढ़ने के लिए भी विदेशियों का लिखा पढ़ना पड़ता है, तो संभावना है कि समीक्षाएं नहीं लिखी गयीं, पुस्तकें चर्चा में नहीं आयीं, इस कारण हमें भारतीय पक्ष से उनपर लिखे का पता ही नहीं चला।

उत्तर से दक्षिण तक के कई लेखक-लेखिकाओं का इन सत्रों के दौरान परिचय हो चुका था। जब अंतिम सत्र के लिए हरिकिरण जी की बारी आई तो ध्यान आया कि कार्यशाला का तीसरा और अंतिम दिन तो बीत चला है! अंतिम सत्र का विषय सीधा लेखन नहीं था, इससे लेखन से सम्बंधित उसका महत्व मेरे जैसे कई लेखकों के लिए कम भी नहीं होता। अपनी संस्कृति के प्रचार-प्रसार में हम कहाँ पीछे छूट रहे हैं? क्या समय कम है और हम पीछे छूट रहे हैं?

ऐसे ही प्रश्नों पर जब कार्यशाला का समापन हुआ तो अपरिचितों के बीच आये प्रतिभागियों ने अपने मित्रों से विदा ली। आशा है अगली बार जब हम लोग फिर मिलेंगे, तो अपनी नयी पुस्तकों के साथ मिलेंगे।

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