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अपने-अपने राम

Tulsidas

रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही।

कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही॥

एक राम अवधेस कुमारा।

तिन्ह कर चरित बिदित संसारा॥

नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा।

भयउ रोषु रन रावनु मारा॥

प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।

सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि।।

भरद्वाज जी महर्षि याज्ञवल्क्य से कहते हैं: “हे प्रभु! मैं आपसे पूछता हूँ कि वे राम कौन हैं? हे कृपानिधान! मुझे समझाएँ। एक राम तो अवध नरेश दशरथ के पुत्र हैं, जिनका चरित्र सारा संसार जानता है। उन्होंने पत्नी के वियोग में अपार दुःख उठाया और क्रोध में आकर रावण को युद्ध में मार डाला। हे प्रभु! यह वही राम हैं या कोई दूसरे हैं जिनका नाम शिवजी भी जपते हैं आप सत्य और ज्ञान का रूप है आप विवेक से इस बात का निर्णय कीजिए।”

वास्तविक ‘राम’ कौन हैं?

वो जो अयोध्या नरेश दशरथ नंदन हैं या वो जो निर्गुणधारा के संतों की वाणी से उपजे हैं।

तुलसीकृत ‘मानस’ से बहुत पहले के ग्रंथों में राम को भगवान विष्णु का ही अवतार माना गया है। इन ग्रंथों में वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण, मंगल रामायण, नारद रामायण, पुलत्स्य रामायण, वशिष्ठ रामायण आदि ग्रंथ प्रमुख है।

वाल्मीकि रामायण में राजा दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ के समय देवता गण यज्ञ में भाग लेने के लिए उपस्थित होते हैं और भी भगवान विष्णु से लोक कल्याण हेतु रावण वध की प्रार्थना करते हैं-

त्वां नियोक्ष्यामहे विष्णो लोकानां हितकाम्या।

तत्र त्वं मानुषो भूत्वा प्रवृद्धं लोककण्टकम्।

अवध्यं देवतैर्विष्णो समरे जहि रावणम्।

परंतु तुलसी के राम निर्गुण और निराकार प्रभु का साकार रूप हैं। वास्तव में राम निर्गुण और निराकार ही हैं और वह भक्तों के कल्याण के लिए साकार रूप धारण करते हैं ऐसा स्वामी जी ने कहा है।

निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोइ।

सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होइ

जो निर्गुण, अरूप,अलख और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेमवश सगुण और साकार रूप धारण करता है।

प्रभु राम को सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान बताते हुए तुलसीदास जी अयोध्या कांड के एक प्रसंग में ऋषि वाल्मीकि एवं प्रभु राम के मिलन का वर्णन करते हैं।

प्रभु राम एक साधारण मनुष्य के समान वाल्मीकि जी को दंडवत करते हैं एवं अपने निवास के लिए उचित स्थान बताने को कहते हैं । ऋषि वाल्मीकि राम के शाश्वत रूप से परिचित हैं फिर भी संसार की मर्यादा को बनाए रखने के लिए ऋषि रूप में ही प्रभु राम से वार्तालाप करते हैं। वे राम के परम पुरुष एवं परमात्मा होने का संकेत देते हुए कहते हैं-

पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ

जहँ होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाउँ।

प्रभु राम वाल्मीकि ऋषि के वचन सुनकर एक मधुर स्मित देते हैं। गोस्वामी जी ने इस भाव को इस प्रकार प्रकट किया है-

सुनि मुनि बचन प्रेम रस साने,

सकुचि राम मन महुँ मुसुकाने।।

राम निर्गुण, अखंडित, अनंत और अनादि हैं, जिनका ध्यान परम तत्व को जानने वाले किया करते हैं। वेदों में जिन्हें ‘नेति-नेति’ कहा गया है; वे आनंद रूप हैं और माया से निर्लेप हैं। इनके समान कोई हो ही नहीं सकता और कोई है ही नहीं।

सारद कोटि अमित चतुराई,

बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई।

बिष्नु कोटि सम पालनकर्ता,

रुद्र कोटि सत सम संहर्ता।।

ऐसे अपार सामर्थ्य के स्वामी होते हुए भी वे भक्तों के लिए सुलभ हैं एवं शरीर धारण कर लीलारत है।

भक्त और भगवान के प्रेम की पराकाष्ठा है।

अहल्या के ‘उद्धारक’ राम ‘आज्ञाकारी’ बन वनगमन करते हैं और ‘वनवासी’ राम बनते हैं। इस संपूर्ण यात्रा में समाज के उस वर्ग को एकजुट करते हैं जो मुख्यधारा से पूर्णत: अलग है। इसी यात्रा में में माता शबरी से भी भेंट करते हैं और उन्हें नवधा भक्ति का पाठ पढ़ाते हैं।

नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं।

सीता हरण के पश्चात भगवान राम गोदावरी के तट पर रहते हुए अनेक ऋषि-मुनियों एवं भक्तों को दर्शन देते हैं इसी क्रम में मतंग ऋषि की सेवा में रत माता शबरी से भी उनकी भेंट होती है। शबरी भीलनी जाति की थीं। उनके ह्यदय में प्रभु राम के लिए प्रेम का सागर है और जब राम उनकी कुटिया में पधारे तो वे आनंद विभोर हो गईं। मुनिवर मतंग ने अपना शरीर त्याग करने से पहले उन्हें प्रभु राम के दर्शनों का वरदान दिया था। वह प्रेम,श्रद्धा, निष्ठा और नम्रता से प्रभु के चरणों में लिपट गईं। आनंद में बावरी अपने अश्रुओं से उनके चरणों को पखारती हैं। प्रेम पूर्वक वन के कंदमूल और फल अर्पित करती हैं, जिसे राम और लक्ष्मण स्वीकार करते हैं। शबरी दोनों हाथ जोड़कर विनती करती है कि,”प्रभु! मैं तो नीच जाति की मूर्ख और गँवार नारी हूंँ। मैं किस मुंँह से और किन शब्दों में आपकी स्तुति करूंँ।

केहि विधि अस्तुति करौं तुम्हारी।

अधम जाति मैं जड़मति भारी ।।

यह सुनकर प्रभु राम बड़े कोमल और सुंदर शब्दों में कहते हैं हे देवी! मैं केवल एक ही नाता मानता हूंँ और वह भक्ति का नाता है।

कह रघुपति सुनु भामिनी बाता।

मानउँ एक भगति कर नाता।

माना जाता है कि भक्तिहीन प्राणी जल से खाली बादलों के समान है और इसी क्रम में राम शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश देते हैं।

.प्रथम भगति संतन्ह कर संगा

राम कहते हैं भक्ति की नींव ही संतों की संगति है। सत्संग द्वारा ही भक्ति की प्राप्ति संभव है और इसी के द्वारा सभी सांसारिक दुखों का अंत होता है। पूर्व जन्म के पुण्य से ही किसी संत से मिलाप होना संभव है। निराकार परमात्मा को समझना हम साधारण जीवों के वश में नहीं है और हमारी इसी असमर्थता को समझते हुए ईश्वर मनुष्य रूप में अवतरित होते हैं, जिन्हें हम संत या सतगुरु की संज्ञा देते हैं और इनकी संगति से ही हमें परमात्मा से मिलन का सुख प्राप्त होता है।

सत्संग की प्राप्ति का आधार प्रभु की कृपा ही है।

.दूसरी रति मम कथा प्रसंगा

राम कहते हैं कि जब संतों की शरण एवं सत्संग प्राप्त हो जाए तो मनुष्य को चाहिए कि वह संतो द्वारा समझाई गई प्रभु की महिमा को प्रेम पूर्वक सुने हम शारीरिक रूप से तो सत्संग में रहते हैं परंतु हमारा मन यहांँ-वहांँ रमा रहता है और प्रभु के गुणगान से नहीं जुड़ता। प्रभु के गुणगान से वास्तविक अभिप्राय मन और आत्मा से ईश्वर को सत्य मानकर उसकी प्राप्ति के लिए यत्न करना है। भक्तों को हृदय को मिश्री के समान होना चाहिए जो पानी रूपी सत्संग में घुल मिल जाए ना कि पाषाण के समान जो पानी के अंदर रखने पर भी अंदर से सूखा ही रह जाए।

. गुर पद पंकज सेवा तीसरी भगति अमान

‘अमान’ होने का अर्थ है ‘अभिमान का त्याग करना’ अभिमान के त्याग का अर्थ है कि ईश्वर की शरण में जाकर कुल, जाति, विद्या, धन, पद आदि का मान नहीं करना और ना ही सांसारिक यश की प्राप्ति की चाह को रखना। जिस हृदय में अभिमान है उसमें प्रेम और भक्ति के लिए स्थान ही कहांँ है। भक्ति का अमृत केवल विनम्र हृदय में ही ठहर सकता है अतः अभिमान को त्यागना ही श्रेयस्कर है।

. चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान

भक्ति का चौथा अंग कपट को त्याग कर प्रभु का गुणगान करना है अर्थात सच्चे हृदय से भक्ति करना।

निष्कपट गुणगान को ही भक्ति का चौथा अंग कहा गया है। मानस के विभिन्न प्रसंगों में विभिन्न पात्रों के माध्यम से ऐसे निष्कपट स्वाभाविक भक्ति को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया गया है।

चाहे वो राम वनवास के समय अगस्त्यमुनि के शिष्य, राम भक्त सुतीक्ष्ण का राम से मिलने का वर्णन है या मानस के सातवें कांड में महात्मा कागभुशुण्डी जी का राम भक्त गरुण जी को राम की अपार महिमा का गुणगान सुनाने का है। राम का गुणगान सुनने पर गरुण जी की भी वैसे ही अवस्था हो जाती है जैसी मानस में वर्णित अन्य भक्तों की।

भक्ति में ना भय का भाव होना चाहिए स्वार्थ का।

.मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा।

  पंचम भजन सो बेद प्रकासा।।

भक्ति का पांचवा अंग है भक्त का ईश्वर में दृढ़ विश्वास होना। परमार्थ में दृढ़ विश्वास की भारी महत्ता है। परमार्थ की सिद्धि के लिए मन को एकाग्र और स्थिर करना आवश्यक है और यह ईश्वर भक्ति द्वारा ही संभव है। हमारे मन और आत्मा की स्वाभाविक बैठक आंँखों के पीछे और मध्य में है। हमारा मन और आत्मा दोनों वहांँ से उतरकर शरीर के रोम रोम में और सारे संसार में फैले हुए हैं। हमारा मन संसार के पदार्थों में बंधा हुआ हैं इसीलिए यह बार-बार इन पदार्थों की तरफ जाता है। संसार सागर को पार करने के लिए और दुखों से छुटकारा पाने के लिए ईश्वर भजन ही आवश्यक है। प्रभु के भजन के बिना जन्म मरण के भय का नाश नहीं होता और इसी से ही सभी दुखों का अंत भी होता है।

. छठ दम सील फिरती बहु करमा।

   निरत निरंतर सज्जन धरमा ।।

‘दम’ का अर्थ है इंद्रियों का दमन करना यानी उन्हें अपने वश में रखना। ‘शील’ का अर्थ है आचरण की निर्मलता संत जनों द्वारा समझाए गए आचरण और नियमों के पालन में निरंतर लगे रहना ही छठी भक्ति है। भक्ति सच्चे और निष्काम भाव से की जाने वाली अंतर्मुखी साधना है इसके लिए किसी भी बाहरी क्रिया या कर्मकांड की आवश्यकता नहीं होती है।

जैसे-जैसे भक्त शील, क्षमा, संतोष, विवेक, नम्रता, अहिंसा, सेवा आदि गुणों को धारण करता है उसके ह्रदय में प्रभु का प्रेम परिपक्व होता रहता है वह स्वयं ही विकारों से मुक्त होता जाता है।

. सातवाँ सम मोहि मय जग देखा।

   मोतें संत अधिक करि लेखा ।।

जगत के प्रत्येक कण में मैं समाया हुआ हूंँ।

जो साधक अपने मन और इंद्रियों को वश में करके अपने आचरण को पवित्र रखते हुए भक्ति की साधना में लगा रहता है उसे संसार के कण-कण में परमात्मा दिखाई देते हैं प्रभु को सर्वव्यापक देखना केवल श्रेष्ठ भक्तों के ही भाग्य में है। संसार के सभी जड़ चेतन जीवों में एक ही राम समाए हुए हैं।

. आठवँ जथालाभ संतोषा।

     सपनेहुँ नहि देखइ परदोषा।।

जो परमात्मा को सर्वत्र देखता है वह भला कहीं किसी में दोष कैसे देख सकता है। उसे तो संसार में जो कुछ भी प्राप्त है उतने में ही  संतोष रहता है।इस अवस्था में भक्तों को जो मिल जाए उसे हरि इच्छा समझकर उसी में संतुष्टि रहती है और स्वप्न में भी किसी दूसरे में दोष दिखाई नहीं देता। असंतोष प्रकट करना प्रभु के ज्ञानरूप और दयारूप पर संदेह प्रकट करना है। संतोष सुख का मूल है और असंतोष दुख का कारण। असंतोष से मन विचलित रहता है। यह धैर्य, विश्वास, प्रीति और प्रतीति की जड़ को काट देता है। संतोष के बिना शांति असंभव है। जो व्यक्ति अपनी इच्छा को प्रभु की इच्छा के अधीन कर देता है उसे लोक परलोक के सब सुख प्राप्त होते हैं और वह अंततः नाम यानी प्रभु में ही समा जाता है।

. नवम सरल सब सन छलहीना।

    मम भरोस हियँ हरष दीना।।

भक्ति के परिपक्व होने पर भक्त में स्वाभाविक सरलता और निश्छलता आ जाती है। इस नवम् भक्ति की अवस्था में भक्त अपने हृदय में प्रभु के प्रति अटल विश्वास रखते हुए निष्कपट व्यवहार करता है। सुख और दुख में विचलित न होना ही सच्चे भक्त का चिन्ह है।

अंत में राम शबरी को संबोधित करते हुए कहते हैं-

नवम सरल सब सन छलहीनि।

मम भरोस हियँ हरष दीना।।

नव महुँ एकउ जिन्ह के होई।

नारि पुरुष सचराचर कोई।।

सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे।

सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे।

जोगि बृंद दुरलभ गति जोई।

तो कहुँ आज सुलभ भइ सोई।।

हे देवी! इन नौ अंगों वाली भक्ति का जिस स्त्री पुरुष, जड़-चेतन को एक अंग भी प्राप्त हो, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है। मेरे साकार स्वरूप के दर्शन का परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरूप को अवश्य प्राप्त कर लेता है। तू तो हर प्रकार की भक्ति में सुदृढ़ है। इसलिए जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वह तेरे लिए सुलभ हो गयी है। स्पष्ट है कि जिस भक्त की भक्ति का एक अंग भी प्राप्त हो जाये, वह भी प्रभु को प्रिय है, क्योंकि भक्ति अखण्ड है।भक्ति का एक अंग दूसरे अंग से अलग नहीं किया जा सकता। राम यहाँ समझा रहे हैं कि जिसके मन में इस प्रकार के भक्ति भाव का प्रवेश हो जाता है, वह सच्चा भक्त बन जाता है और वही मुझे प्रिय है।

एक अन्य प्रसंग में ऐसा ही भक्ति का उपदेश श्री राम ने अपने अनुज लक्ष्मण को भी दिया था।

भीलनी और लक्ष्मण दोनों को एक ही उपदेश दिया जिससे स्पष्ट होता है कि महत्ता भक्ति भाव की है निजी संबंध की  नहीं। प्रभु जाति पाति, धन-संपदा, ज्ञान विज्ञान आदि से नहीं भक्ति से प्रसन्न होते हैं और भक्ति का सामर्थ्य प्रभु ने सब में समान रूप से रखा है भक्ति हमारी हर प्रकार की दुर्बलताओं और असमानताओं को मिटाकर हम सब को एक ही धरातल पर लाती है। सबके लिए समान भाव से भक्ति ही प्रभु से मिलाप का एकमात्र सच्चा साधन है।

राम, मेरे हैं, आपके हैं और चराचर जीव जगत के हैं। कथा कहानियों से अलग राम हमारे श्वास श्वास में हैं। भक्त और भगवान कभी पृथक हो ही नहीं सकते। यदि हनुमान के हृदय में राम हैं तो राम का हृदय भी हनुमान से सुवासित ही होगा। राजपुत्र से वनवासी की यात्रा राम को सर्वसुलभ बनाती है।

कथा प्रसंग जुड़ते रहेंगे, माध्यम परिवर्तित होते रहेंगे परंतु राम त्रेता से कलयुग के ‘आदिपुरुष’ थे,हैं और रहेंगे।

हरि अनन्त हरि कथा अनंता।

कहहिं सुनहिं बहु विधि सब संता।।

कहते रहिए, सुनते रहिए, गुनते रहिए “अपने-अपने ‘राम’ को”।

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