१. हिंदी साहित्य का इतिहास
इलियट ने कहा है,” केवल अतीत ही वर्तमान को प्रभावित नहीं करता, वर्तमान भी अतीत को प्रभावित करता है। “
इस तर्क से प्रत्येक युग में साहित्य के नए विकास रूप उसके पूर्व रूपों के मूल्यांकन को प्रभावित करते रहते हैं।
हिंदी के विद्वान और अन्य भाषाविद् आरंभ से ही ये मानते आए हैं कि भारत के जितने भू–भाग में वर्तमान में हिंदी या खड़ी बोली हिंदी सामाजिक व्यवहार की माध्यम भाषा है, वह सब का सब हिंदी प्रदेश है और उसके अन्तर्गत बोली जानेवाली भाषाएंँ हिंदी की उपभाषाएंँ हैं। इस दृष्टि से बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा,हिमाचल प्रदेश,दिल्ली एवं आस पास के इलाके हिंदी क्षेत्र में आते हैं। बुंदेलखंडी,राजस्थानी के रूप, ब्रज, कन्नौजी,कुमाऊँनी आदि पहाड़ी बोलियांँ हिंदी की शाखा प्रशाखाएंँ हैं।
एक मत यह है कि हिंदी का अर्थ ‘वर्तमान हिंदी‘ या ‘खड़ी बोली हिंदी‘ ही है। कुछेक विस्तारवादी उर्दू को भी हिंदी की ही एक उपभाषा मानते हैं। उनके अनुसार ब्रजभाषा आदि की तरह उर्दू का साहित्य भी हिंदी साहित्य का ही एक अंग है। समय–समय पर हिंदी भाषा, उपभाषाओं, बोलियों को लेकर विद्वानों में मतभेद के साथ शोध भी होते रहे हैं।
२. हिंदी भाषा का उद्भव
विश्व की लगभग 3,000 भाषाओं में हिंदी का विशिष्ट स्थान है। आकृति या रूप के आधार पर हिंदी वियोगात्मक या विश्लिष्ट भाषा है। भाषा परिवार के आधार पर हिंदी को भारोपियन परिवार का माना गया है। हिंदी जिस भाषा धारा के देशिक रूप में आती है, उसका प्राचीनतम रूप संस्कृत को माना गया है। मोटे तौर पर 1500 ई.पू. से 500 ई.पू. का काल संस्कृत का काल है। इस काल में संस्कृत आम बोलचाल की भाषा थी। यहांँ भी संस्कृत के दो रूप मिलते हैं। पहला है ‘वैदिक संस्कृत‘ जिसमे वैदिक वाङ्मय की रचना हुई और दूसरा है ‘लौकिक‘ या ‘क्लासिकल‘ संस्कृत जिसमें वाल्मीकि,व्यास,भास,अश्वघोष,कालिदास,माघ आदि महान कवियों की रचनाएंँ हैं। मानक भाषा के अतिरिक्त उस काल में तीन बोलियांँ भी विकसित हुईं – पश्चिमोत्तरी, मध्यदेशी, पूर्वी।
५०० ई.पू. संस्कृत की प्रवृत्ति में काफी बदलाव आया, जिसे ‘ पालि ‘ माना गया। इसका समय पहली ईस्वी तक है। बौद्ध ग्रंथों में पालि का शिष्ट रूप है। इस काल में ‘ दक्षिणी ‘ बोली के साथ ही क्षेत्रीय बोलियों की संख्या तीन से चार हो गई।
पहली ईस्वी से ५०० ईस्वी तक प्राकृत भाषा के नाम से इसे अभिहित किया गया। शौरसेनी, पैशाची, व्राचड़, महाराष्ट्री, मागधी, अर्ध मागधी जैसी क्षेत्रीय बोलियों का विकास इसी काल में हुआ।
प्राकृत से ही कालांतर में क्षेत्रीय अपभ्रंश भाषा का विकास हुआ है। इसका काल मोटे तौर पर ५०० ई.-१००० ई. तक है। यदि विभिन्न प्राकृत भाषाओं से विकसित अपभ्रंश को किसी अन्य नाम के अभाव में प्राकृत नामों में ही समाहित किया जाए तो आधुनिक आर्य भाषाओं का जन्म अपभ्रंश के विभिन्न क्षेत्रीय रूपों से इस प्रकार माना जा सकता है:
अपभ्रंश के भेद भारतीय आर्यभाषा
१. मागधी बिहारी, बांग्ला, उड़िया,असमिया।
२.अर्ध मागधी पूर्वी हिंदी
३. व्राचड़ सिंधी
४. महाराष्ट्र मराठी
५. पैशाची लहंदा, पंजाबी
६. शौरसेनी पश्चिमी हिंदी,राजस्थानी,पहाड़ी,गुजराती
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि हिंदी भाषा का उद्भव अपभ्रंश के शौरसेनी,मागधी,अर्ध मागधी रूपों से हुआ है।
अपभ्रंश और आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के बीच का संक्रमण कालीन काल ‘ अवहट्ट ‘ है। इसे ‘अपभ्रंश का अपभ्रंश‘ या ‘परवर्ती अपभ्रंश‘ कह सकते हैं। इसका काल खंड ९०० ई.-११०० ई. तक निर्धारित है। साहित्य में इसका प्रयोग १४ वीं सदी तक होता रहा है।
विद्यापति प्राकृत की तुलना में ‘ अवहट्ट ‘ को मधुरतर बताते हैं –
” देसिल बायना सब जन मिट्ठा
ते तैसन जम्पञो अवाहट्ठा ”
अर्थात देश की भाषा सब लोगों के लिए मीठी है, इसे अवहट्ट कहा जाता है।
अतः हम कह सकते हैं कि प्राचीन हिंदी से अभिप्राय – अपभ्रंश (अवहट्ट) के बाद की भाषा है।
३. हिंदी – प्रदेश, उपभाषाएं, बोलियां
पश्चिम में अंबाला (हरियाणा) से लेकर पूर्व में पूर्णिया (बिहार) तक तथा उत्तर में बद्रीनाथ–केदारनाथ (उत्तराखंड) से लेकर दक्षिण में खंडवा ( मध्य प्रदेश) तक हिंदी भाषा अपने विशिष्ट रूप में बोली जाती है। इसके अन्तर्गत ९ राज्य हैं जिन्हें ‘ हिंदी भाषी क्षेत्र ‘ के नाम से जाना जाता है। ये राज्य हैं –
उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश तथा एक केंद्र शाषित प्रदेश दिल्ली।
1889 ईस्वी में जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने ‘ मॉडर्न वर्नाकुलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान ‘ में हिंदी की उपभाषाओं एवं बोलियों में वर्गीकरण प्रस्तुत किया। 1894 से 1927 तक भाषाई सर्वेक्षण को ‘ ए लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया ‘ में विस्तार से प्रस्तुत किया।
बाद के समय में सुनीति कुमार चटर्जी ( बांग्ला भाषा का उद्भव और विकास,1926) , धीरेन्द्र वर्मा ( हिंदी भाषा का इतिहास, 1933) आदि अनेक विद्वानों ने वर्गीकरण प्रस्तुत किया। जिसे 5 वर्गों में बांटा गया है।
उपभाषाएंँ बोलियांँ
1.पूर्वी हिंदी अवधी,बघेली,छत्तीसगढ़ी
2.पश्चिमी हिंदी कौरवी (खड़ीबोली),ब्रजभाषा
बंगारू (हरियाणवी),बुन्देली,कन्नौजी
3. बिहारी भोजपुरी,मगही,मैथिली
4. पहाड़ी कुमाऊँनी,गढ़वाली
5. राजस्थानी मारवाड़ी ( पश्चिमी राजस्थानी)
जयपुरी/ढूंँढाड़ी ( पूर्वी राजस्थानी)
मेवाती (उत्तरी राजस्थानी)
मालवी (दक्षिणी राजस्थानी)
भाषा विज्ञान में प्रायः पश्चिमी हिंदी और पूर्वी हिंदी को ही हिंदी माना गया है।
४. हिंदी शब्द की व्युत्पत्ति और उसके विभिन्न रूप
भारतवर्ष के उत्तर–पश्चिम में प्रवाहित सिंधु नदी के आसपास का स्थान ‘ सिंधु प्रदेश ‘ कहलाया। यह क्षेत्र विदेशी यात्रियों एवं आक्रांताओं का सिंहद्वार था। ईरान से आए लोगों ने सिंधु को ‘हिंदु‘ कहा। हिंदु से हिन्द और फ़ारसी का ‘ई‘ लगने से हिंदी हुआ। हिंदी, हिन्द देश के निवासियों के अर्थ में प्रयुक्त होते हुए हिन्द की भाषा बन गई।
यूनानी का ‘इंदिका‘ या अंग्रेजी का ‘इन्डिया‘ ईरानी के ‘हिंदीक‘ का ही विकसित रूप माना गया है। हिंदी भाषा के लिए इस शब्द का प्राचीनतम प्रयोग शरफुद्दीन यज़दी के ‘ज़फ़रनामा‘ ( १४२४) में मिलता है।
प्रारम्भ में हिंदी शब्द का प्रयोग हिंदी और उर्दू दोनों के लिए होता था। जहाँ ‘तज़किरा मखज़न उल ग़रायब‘ में आता है “दर ज़बाने हिंदी कि मुराद उर्दू अस्त” वहीं हिंदी के सूफ़ी कवि नूर मोहम्मद कहते हैं,” हिंदू मग पर पाँव ना राख्यौ,का बहुतै जो हिंदी भाख्यौ“। संभवतः उन्नीसवीं सदी के प्रथम चरण में अंग्रेजों की विशेष भाषा नीति के कारण इन दोनों को अलग–अलग भाषा माना जाने लगा।
हालांकि कुछ कट्टर हिंदी प्रेमी हिंदी शब्द की उत्पत्ति हिंदी भाषा से दिखाते हैं,
जैसे– हिन् ( हनन करने वाला) + दु (दुष्ट) = हिंदु अर्थात दुष्टों का हनन करने वाला हिंदु और उनकी भाषा हिंदी;
हीन ( हीनों) + दु (दलान) = हीनों का दलन करने वाला हिंदु, उनकी भाषा हिंदी।
चूंकि इन व्युत्पत्तियों में प्रमाण नहीं अतः इसे स्वीकार नहीं किया गया।
(i) हिंदवी/हिंदुई/ज़बान ए हिंदी/देहलवी : अमीर खुसरो ने मध्य काल में मध्यदेश की भाषा के लिए इन शब्दों का प्रयोग किया। हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए खुसरो ने फ़ारसी हिंदी शब्दकोश ‘ खालिक बारी‘ की रचना की।
(ii) भाषा/भाखा : १९ वीं सदी के प्रारंभ तक हिंदी के लिए भाषा/भाखा शब्द का प्रयोग होता रहा है। विद्यापति, कबीर, तुलसी, केशवदास आदि ने इसी का प्रयोग किया। फोर्ट विलियम कॉलेज में हिंदी अध्यापकों को ‘ भाषा मुंशी ‘ का नाम दिया गया।
(iii) रेख़्ता : मध्यकाल में प्रचलित अरबी फ़ारसी शब्दों से मिश्रित कविता की भाषा जिसका प्रयोग मीर एवं ग़ालिब ने किया।
(iv) दक्खिन/ दक्किनी : हिंदी में गद्य रचना की परंपरा का श्रेय दक्कनी हिंदी के रचनाकारों को ही है। प्रसिद्ध शायर वली दक्कनी ( १६८८–१७४१) में दिल्ली आया और उत्तर भारत में दक्कनी हिंदी को लोकप्रिय बनाया।
(v) खड़ी बोली : खड़ी बोली की तीन शैलियांँ हैं –
[१.] हिंदी/शुद्ध हिंदी/ उच्च हिंदी/नागरी/आर्यभाषा – यह संस्कृत प्रधान नागरी लिपि में लिखित रूप है। जयशंकर प्रसाद की रचनाएँ इसका उदाहरण है।
[२.] उर्दू/ज़बान ए उर्दू – अरबी–फारसी बहुल खड़ी बोली इसके अंतर्गत आती है। मंटो की रचनाएंँ इसमें आती हैं।
[३.] हिन्दुस्तानी – हिंदी–उर्दू का मिश्रित रूप जिसे आम जन ने प्रयोग किया। प्रेमचंद की रचनाएंँ इसी के अन्तर्गत आती हैं।
५. हिंदी साहित्य का आरंभ
हिंदी साहित्य के आरंभ का प्रश्न हिंदी भाषा के आरंभ से जुड़ा हुआ है। कोई भी जन भाषा अपने प्रवाह की अक्षुण्णता में सदा एक समान नहीं रहती। स्थान और काल के भेद से उसमें रूप भेद भी उत्पन्न होता है।
हिंदी साहित्य को स्थान, समय और परिस्थितियों के आधार पर कई कालों में विभक्त किया गया है।
(i) आदिकाल – हिंदी भाषा का आदिकाल इसका शिशु काल है ।यह वह काल था जब अपभ्रंश या अवहट्ट का प्रभाव हिंदी भाषा पर मौजूद था और हिंदी की बोलियों के निश्चित व स्पष्ट स्वरूप विकसित भी नहीं हुए थे। हिंदी साहित्य के इतिहास का यह वह काल था जिसमें भाषा और साहित्य दोनों ही संपन्न थे।उसके समस्त देन का अभी तक सम्यक मूल्यांकन नहीं हो पाया है क्योंकि विद्वान प्रमाणिकता एवं भाषा के विवादों में उलझे रहे हैं। कई ऐसी उपलब्धियांँ सामने आती है जिनका परवर्ती साहित्य पर अपार ऋण है। आदिकालीन साहित्य की भाषा कठिनता से सरलता की ओर जाती हुई भी एक व्यापक रूप ग्रहण करने की ओर बढ़ रही थी। उसमें नए पुरुषार्थों और नए अनुभवों को व्यंजित करने की शक्ति जन्म ले रही थी।सिद्धों की जीवन दृष्टि और स्पष्टवादिता, नाथपंथियों का हठयोग, जैनों की अहिंसा, चारण– भाटों की प्रशस्तियांँ, खुसरो की लोकानुरंजना– सबको एक साथ अभिव्यक्त करने का सामर्थ्य जुटाने में तल्लीन हिंदी भाषा, ना अलंकार की परवाह करती थी ना ही लक्षणा व्यंजना आदि की। आदिकालीन कवियों का हिंदी भाषा की रूपात्मक एकता का प्रयास जो पंद्रहवीं शताब्दी तक पहुंँचते–पहुंँचते पूर्ण हो चुका था, इतिहास में सदैव याद रखा जाएगा। अतः आदिकाल को हिंदी साहित्य का ‘समृद्धि युग‘ माना जा सकता है। खड़ी बोली का आदिकालीन रूप सरहपा आदि सिद्धों, गोरखनाथ आदि नाथों ,अमीर खुसरो जैसे सूफियों ,जयदेव नामदेव, रामानंद आदि संतो की रचनाओं में उपलब्ध है इन रचनाकारों में हमें अपभ्रंश अवहट्ट से निकलती हुई खड़ी बोली स्पष्ट दिखाई देती है।
( ii) मध्यकाल: मध्ययुगीन हिंदी साहित्य को पूर्व मध्य युग (१३१८ ई से १६४३) और उत्तर मध्य युग ( लगभग १६४३ ई. से सन् १८४३ ई.) दो भागों में बांँटा जा सकता है।पूर्व मध्य युग में भक्ति काल का समय आता है और उत्तर मध्य युग में रीतिकाल को स्थान दिया गया है। इस काल में भाषा के तीन रूप निखर कर आए:- ब्रजभाषा, अवधी और खड़ी बोली।
ब्रजभाषा और अवधी का अत्यधिक साहित्यिक विकास हुआ जबकि तत्कालीन ब्रजभाषा साहित्य को कुछ देशी राज्यों का संरक्षण भी प्राप्त हुआ। इनके अतिरिक्त मध्यकाल में खड़ी बोली के मिश्रित रूप का साहित्य में प्रयोग होता रहा ।इसी खड़ी बोली का 14वीं शताब्दी में दक्षिण में प्रवेश हुआ अतः वहांँ इसका साहित्य अधिक प्रयोग हुआ।18वीं सदी में खड़ी बोली को मुस्लिम शासकों का संरक्षण मिला और इसके विकास को नई दिशा मिली।
(ii) 1. भक्ति काल: कुछ विद्वानों के अनुसार भक्ति काल को हिंदी साहित्य का ‘स्वर्ण युग‘ कहा जाता है। हिंदी काव्य का श्रेष्ठतम अंश इसी काल में उपलब्ध होता है। जिस समय इस काल को ‘स्वर्ण युग‘ कहा गया उस समय विद्वानों के समक्ष वर्तमान युग का साहित्य नहीं था।
भक्ति काल का प्रारंभ निर्गुण संत काव्य से होता है। यह सत्य है कि इन कवियों ने काव्यशास्त्र का अध्ययन नहीं किया था।जीवन के विद्यालय में सत्य और अनुभूत सत्य का पाठ पढ़ते हुए इन्होंने जो कुछ लिखा वो बेजोड़ था।इन लोगों ने जन भाषा का प्रयोग किया और लोकप्रियता अर्जित की। कबीर ,नानक ,मलूक दास, शिवनारायण आदि संतों ने गुरु पूजा के साथ–साथ मानव कल्याण की बातें की। दूसरे शब्दों में उसे धर्मनिरपेक्ष सत्योन्मुखी वाणी कह सकते हैं।निर्गुण संत कवियों के साथ प्रेमाख्यानक काव्य ने भी इस काल को स्वर्णिम बनाया।
भक्तिकाल का श्रेष्ठतम काव्य सगुण भक्तिकाव्य है। सगुण भक्तिकाव्य शिल्प की दृष्टि से भी अतुलनीय था। तुलसीदास ने उस समय की सभी काव्य विधाओं का प्रयोग अपने काव्य में किया। अवधी में रचित ‘ राम चरित मानस ‘ उस समय का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है।
ब्रज भाषा के क्षेत्र में कृष्ण भक्त कवियों का प्रमुख स्थान है। सूरदास, नंददास,रसखान, मीरा आदि का प्रमुख स्थान। वहीं अवधी को साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने में तुलसी के अतिरिक्त सूफी कवियों का प्रमुख स्थान है।
खड़ी बोली का केंद्र मध्यकाल तक आते–आते उत्तर से दक्कन में हो गया। कबीर,रहीम,नानक,दादू, मलूकदास,रज्जब आदि संतों का योगदान अनुकरणीय है।
(ii) 2. रीतिकाल : हिंदी साहित्य का उत्तर मध्यकाल जिसमें सामान्य रूप से श्रृंगार परक लक्षण ग्रंथों की रचना हुई,इसके लिए नामकरण करते समय विद्वानों में मतभेद भी रहा। मिश्र बंधुओं ने इसे ‘अलंकृत काल‘ कहा,वहीं रामचंद्र शुक्ल ने इसे ‘रीतिकाल‘ और पंडित विश्वनाथ मिश्र ने ‘श्रृंगार काल‘ की संज्ञा दी। रीतिकाल के अंतर्गत लिखे गए समस्त उपलब्ध ग्रंथों का अध्ययन करने पर यह सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि इस युग के कवियों में रीति निरूपण की प्रवृत्ति व्याप्त रही है। चाहे राज आश्रित हो या जनकवि, अधिकतर ने एक–दो विषयक ग्रंथ लिख कर आत्म प्रदर्शन अवश्य किया। संस्कृत काव्यशास्त्र में ‘रीति‘ शब्द काव्य रचना के मार्ग अथवा पद्धति विशेष के अर्थ में लाया गया है ।हिंदी के मध्ययुगीन कवियों में भी अनेक ऐसे हैं जिन्होंने काव्य रचना पद्धति को ‘रीति‘ और उसके पर्याय को ‘पंथ‘ से ही अभिहित किया है, जैसे–चिंतामणि, मतिराम, भूषण, देव, भिखारी दास आदि कवियों ने एक से ही विचार प्रस्तुत किए।
इस प्रकार विवेच्य काल में श्रृंगार काव्य के अतिरिक्त भक्ति काव्य नीति काव्य और वीर काव्य की रचना भी पर्याप्त मात्रा में हुई इसके अतिरिक्त रीतिकाल के गद्य साहित्य का चर्चा करना भी यहांँ अनिवार्य है। रीतिकाल की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि ‘ हिंदी गद्य साहित्य ‘ का आविर्भाव है। खड़ी बोली गद्य के आरंभिक निर्माता – इंशा अल्लाह खां, सदासुख लाल, सदल मिश्र, लल्लू लाल आदि हिंदी गद्य को प्रस्फुटित करने में अपने योगदान दे रहे थे।
इस प्रकार रीतीकाल हिंदी साहित्य के बहुविध विस्तार का युग था।
(iii) आधुनिक काल – हिंदी साहित्य में आधुनिक काल के विकास का क्रम एक शताब्दी पहले ही प्रारम्भ हो गया था। बदलाव के स्पष्ट चिन्ह उन्नीसवीं शती के उत्तरार्ध में दिखाई पड़ने लगे थे। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के जन्म वर्ष १८५० को इतिहास लेखकों ने आधुनिक हिंदी साहित्य का आरंभ वर्ष मान लिया।
मध्यकाल की भिन्नता और नवीन एहलौकिक दृष्टिकोण का तालमेल ही ‘ आधुनिक ‘ माना जा सकता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आधुनिक काल का जो उप विभाजन किया है, वह एक सूत्रता के अभाव में विसंगतिपूर्ण सा हो गया है। उन्होंने इसे दो खंडो में बांँटा है – गद्य खण्ड और काव्य खण्ड। डॉ नागेन्द्र आधुनिक काल की मंज़िल को ‘ पुनर्जागरण काल ‘ कहते हैं।
संक्षेप में आधुनिक काल के उप विभाजन का प्रारूप निम्न है –
१. पुनर्जागरण काल ( भारतेन्दु काल) – १८५७–१९००
२. जागरण सुधार काल (द्विवेदी काल) – १९००–१९१८
३. छायावाद काल –१९१८–१९३८
४. छायावादोत्तर काल
(क) प्रगति प्रयोग काल –१९३८–१९५३
(ख) नवलेखन काल – १९५३-……
भारतेन्दु काल – हिंदी गद्य साहित्य के विकास क्रम में भारतेंदु युग के गद्य साहित्य का महत्व और मूल्य असाधारण है। इसी युग में हिंदी प्रदेश में आधुनिक जीवन चेतना का आविर्भाव हुआ। हिंदी सही मायने में भारतेंदु के काल में नई चाल में ढली और उनके समय में ही हिंदी के गद्य के बहुमुखी रूप का सूत्रपात हुआ।भारतेंदु ने ना केवल स्वयं रचना की बल्कि लेखक मंडल भी तैयार किया ,जिसे ‘भारतेंदु मंडल‘ कहा गया । इस युग की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि गद्य रचना के लिए खड़ी बोली को माध्यम के रूप में अपनाकर युग के अनुरूप दृष्टिकोण का परिचय दिया गया लेकिन पद्य के मामले में ब्रजभाषा या खड़ी बोली को अपनाने पर विवाद रहा।
द्विवेदी युग– हिंदी कविता को श्रृंगारिकता से राष्ट्रीयता, रूढ़ी से स्वच्छंदता के द्वार पर खड़ा करने में बीसवीं शताब्दी के प्रथम दो दशकों का प्रमुख महत्व है। इस कालखंड के पथ प्रदर्शक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर इसका नाम ‘द्विवेदी युग‘ उचित ही है। इसे ‘जागरण सुधार काल‘ भी कहा जाता है।खड़ी बोली और हिंदी के सौभाग्य से 1903 ईस्वी में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती‘ पत्रिका के संपादक का भार संभाला। वे सरल और शुद्ध भाषा के प्रयोग के पक्ष में थे। उन्होंने हिंदी के परिष्कार की जिम्मेदारी उठाई और उसे पूरा किया।खड़ी बोली जिसके साथ ‘बोली‘ शब्द लगा था,वह अब ‘भाषा‘ बन गई और इसका सही नाम हिंदी हो गया। अब खड़ी बोली समस्त उत्तरी भारत के साहित्य का माध्यम बन गई। द्विवेदी युग में साहित्य रचना की विविध विधाएंँ विकसित हुई। महावीर प्रसाद द्विवेदी ,श्यामसुंदर दास ,पदम सिंह शर्मा, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, पूर्ण सिंह आदि का उल्लेखनीय योगदान है। अब साहित्य कुछ रसिको की वस्तु ना रहकर समस्त शिक्षित जनता की वस्तु बनी। नई जीवन दृष्टि ने नई भाषा को माध्यम बनाया।खड़ी बोली पूर्णत: प्रतिष्ठित हुई। साहित्य का स्वर गंभीर हुआ और उसमें दायित्व का बोध भी जागा। साहित्य को शिष्ट समाज में प्रवेश के योग्य समझा जाने लगा और कुल मिलाकर हिंदी की प्रतिष्ठा और बढ़ी।
छायावाद: –इस युग में गद्य की विभिन्न विधाओं की अभूतपूर्व उन्नति हुई।प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद ,रामचंद्र शुक्ल इस युग के रत्न थे, जिन्होंने गद्य विधाओं को समृद्ध करने में अपना योगदान दिया ।प्रसाद , पंत , निराला, महादेवी का महती योगदान है। कथा साहित्य के क्षेत्र में प्रेमचंद एक क्रांतिकारी के समान आए । ‘सेवा सदन‘ के प्रकाशन से कल्पनातिरंजित कथानक का परित्याग जो 1918 में आरंभ हुआ, यह परिवर्तन बाद के अनेक लेखकों के लिए दिशा निर्देशक सिद्ध हुआ। नाट्य रचना के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद ने पाठकों के हृदय में उत्साह,आत्म गौरव और प्रेरणा का संचार किया ।लक्ष्मी नारायण मिश्र ने समस्या मूलक और मानसिक अंतर्द्वंद का सफल अंकन किया ।आचार्य शुक्ल ने मानव मन की विभिन्न अवस्थाओं को मनोवैज्ञानिक रूप से समझते हुए निबंधों के साथ–साथ उत्कृष्ट कोटि के विचारात्मक निबंध भी लिखें। हिंदी आलोचना के क्षेत्र में उन्होंने सबसे महत्वपूर्ण कार्य किया। अंतत: कहा जा सकता है कि छायावादी युग काव्य क्षेत्र में ही नहीं गद्य साहित्य की दृष्टि से भी पर्याप्त समृद्ध है और यह समृद्धि परिमाण तथा गुण दोनों ही रूपों में सर्वोत्कृष्ट है। गद्य साहित्य के क्षेत्र में इनके महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इतिहास के कालों का नामकरण इनके नाम को केंद्र में रखकर किया गया ,जैसे– उपन्यास के इतिहास में प्रेमचंद पूर्व युग , प्रेमचंद युग, प्रेमचंदोत्तर युग।
नाटक के इतिहास में प्रसाद पूर्व युग,प्रसाद युग, प्रसादोत्तर युग।
आलोचना के इतिहास में शुक्ल पूर्व युग, शुक्ल युग , शुक्लोत्तर युग।
छायावादोत्तर काल– इस काल में अनगिनत परिवर्तन हुए। द्वितीय महायुद्ध के साथ–साथ स्वतंत्रता प्राप्ति और देश के विभाजन ने पाठकों और लेखकों पर गहरा प्रभाव छोड़ा। छायावाद के बाद हिंदी गद्य में भी प्रगति और प्रयोग की प्रवृत्तियांँ उभर कर आईं। प्रगतिवादी साहित्य पर मार्क्सवादी दृष्टिकोण का स्पष्ट प्रभाव पड़ा। आधुनिकता की ठेठ प्रवृत्ति का उदय सन् 1960 के बाद हुआ। सामाजिक,राजनीतिक परिस्थितियों के अतिरिक्त अस्तित्ववाद के दर्शन ने इसे और भी पुष्ट किया।छायावादोत्तर साहित्य के बदलाव को उसके भाषागत परिवर्तन के रूप में भी देखा जा सकता है क्योंकि नया परिवर्तन, नई भाषा ,नए मुहावरे ,नए संदर्भों, नए बिंबो, नई वक्रता की मांँग करता है । छायावादोत्तर काल में इंटरव्यू विधा, पत्र पत्रकारिता विधा,साहित्य संस्मरण एवं रेखाचित्र ,यात्रा वृतांत, आत्मकथा आदि शैलियों का भी विकास हुआ।
हिंदी का राष्ट्रभाषा के रूप में विकास
राष्ट्रभाषा का शाब्दिक अर्थ है समस्त राष्ट्र में प्रयुक्त भाषा अर्थात आम जन की भाषा। राष्ट्रभाषा राष्ट्रीय एकता और अंतरराष्ट्रीय संवाद संपर्क की आवश्यकता की पूर्ति करती है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रभाषा की आवश्यकता होती है और भारत के संदर्भ में इस आवश्यकता की पूर्ति हिंदी के द्वारा ही हुई ।यही कारण है कि हिंदी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हमारी राष्ट्रभाषा बनी ।राष्ट्रभाषा सामाजिक–सांस्कृतिक मान्यताओं –परंपराओं के द्वारा सामाजिक–सांस्कृतिक स्तर पर देश को जोड़ने का काम करती है और यह कार्य हिंदी के द्वारा ही संभव हो पाया। राष्ट्रभाषा का स्वरूप लचीला होता है जिसे जनता अपने अनुरूप ढाल सकती है।
हिंदी के प्रसार में सबका योगदान
राष्ट्रभाषा सारे देश की संपर्क भाषा होती है। हिंदी दीर्घ काल से ही भारत के जन–जन की संपर्क भाषा रही है। ना केवल उत्तर भारत में बल्कि दक्षिण भारत के आचार्यों वल्लभाचार्य, रामानुज आदि ने भी हिंदी माध्यम से अपने मतों का प्रचार किया। हिंदी भाषी राज्यों के भक्त,संत कवियों जैसे शंकरदेव ,ज्ञानेश्वर, नामदेव, नरसी मेहता, चैतन्य स्वामी आदि ने भी इसी भाषा को अपने धर्म और साहित्य के प्रसार का माध्यम बनाया ।
जॉर्ज ग्रियर्सन ने हिंदी को “आम बोलचाल की महा भाषा” कहा है।
वहीं विलियम कैरी ने 1816 ई. में लिखा,” हिंदी किसी एक प्रदेश की भाषा नहीं बल्कि देश में सर्वत्र बोली जाने वाली भाषा है।“
थॉमस रोबक ने 1807 में लिखा था,” जैसे इंग्लैंड जाने वाले को लैटिन सेक्शन या फ्रेंच के बदले अंग्रेजी सीखनी चाहिए वैसे ही भारत आने वाले को अरबी फ़ारसी या संस्कृत के बदले हिंदुस्तानी सीखनी चाहिए।”
एच.टी.कोलब्रुक ने लिखा था,” जिस भाषा का व्यवहार भारत के प्रत्येक प्रांत के लोग करते हैं, जो पढ़े लिखे तथा अनपढ़ लोगों की साधारण बोलचाल की भाषा है, जिसको प्रत्येक गांव में थोड़े बहुत लोग अवश्य समझ लेते हैं उसी का यथार्थ नाम हिंदी है।“
अंग्रेजों ने हिंदी को प्रयोग में लाकर हिंदी की महती संभावनाओं की ओर राष्ट्रीय नेताओं और साहित्यकारों का ध्यान खींचा था।
धर्म एवं समाज सुधारको ने भी हिंदी भाषा में अपना अच्छा खासा योगदान दिया था। ब्रह्म समाज के संस्थापक राजा राममोहन राय ने कहा,”इस समग्र देश की एकता के लिए हिंदी अनिवार्य है“। वहीं केशव चंद्र सेन ने 1875 में एक लेख में लिखा,”भारतीय एकता कैसे हो” जिसमें उन्होंने लिखा ,”उपाय है सारे भारत में एक ही भाषा का व्यवहार। यह हिंदी अगर भारत वर्ष की एक मातृभाषा बनाई जाए तो यह काम सहज और शीघ्र ही संपन्न हो सकता है।”
दयानंद सरस्वती जी ने भी हिंदी का पक्ष लिया था वे कहते थे कि,” मेरी आंँखें उस दिन को देखना चाहती हैं जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा समझने और बोलने लग जाए।“
थियोसोफिकल सोसाइटी की संचालिका एनी बेसेंट ने भी हिंदी का पक्ष लिया था। इससे लगता है कि धर्म और समाज सुधारको की यह सोच बन चुकी थी कि राष्ट्रीय स्तर पर संवाद स्थापित करने के लिए हिंदी आवश्यक है। भावी राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को बढ़ाने का कार्य इन्हीं धर्म और समाज सुधारकों ने किया। राष्ट्रभाषा आंदोलन में जहांँ बंगाल से राजा राममोहन राय, केशव चंद्र सेन, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, बंकिम चंद्र चटर्जी , सुभाष चंद्र बोस, रवींद्र नाथ टैगोर, आचार्य क्षति मोहन सेन आदि आगे आए वहीं महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक, एन.सी.केलकर, डॉक्टर भंडारकर, वीर दामोदर सावरकर, गोपाल कृष्ण गोखले, काका कालेलकर आदि हिंदी के पक्ष में सदैव बोलते रहे। दक्षिण में सी. राजगोपालाचारी, टी. विजय राघवाचार्य ,सी.पी. रामास्वामी अय्यर आदि हिंदी भाषा के पक्षधर थे।
स्वतंत्रता के बाद हिंदी का राजभाषा के रूप में विकास
हिंदी को 14 सितंबर 1949 को संवैधानिक रूप से राजभाषा घोषित किया गया, अतः प्रत्येक वर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। राजभाषा का शाब्दिक अर्थ है राजकाज की भाषा। जो भाषा देश के राजकीय कार्यों में प्रयुक्त होती है। राजभाषा का एक निश्चित मानक स्वरूप होता है जिसके साथ छेड़छाड़ या प्रयोग नहीं किया जा सकता।
हिंदी भारत की ‘राजभाषा‘ तो बन गई परंतु ‘राष्ट्रभाषा‘ नहीं बन सकी। आज़ाद भारत में एक विदेशी भाषा जिसे देश का एक बहुत बड़ा अंश पढ़–लिख और समझ सकता था,देश की राजभाषा नहीं बन सकती थी लेकिन अचानक अंग्रेजी को छोड़ने में भी दिक्कत थी। प्रायः 150 वर्षों से अंग्रेजी प्रशासन और उच्च शिक्षा की भाषा रही थी। हिंदी देश की 46% जनता की भाषा थी। राजभाषा बनने के लिए हिंदी का दावा न्याययुक्त था साथ ही प्रादेशिक भाषाओं में भी सर्वथा उपेक्षा नहीं की जा सकती थी। इसका फैसला मुंशी – आयंगर फॉर्मूले के द्वारा किया गया। जिसके अनुसार
१. हिंदी भारत की राष्ट्र भाषा नहीं बल्कि राजभाषा बनी।
२. संविधान के लागू होने के दिन से १५ वर्षों तक अंग्रेजी बनी रहेगी।
३. अनु. ३५१ के आधार पर हिंदी एवं हिन्दुस्तानी के विवाद को दूर कर लिया गया।
परंतु यह अत्यंत दुखद है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्षों बाद भी भारत के कुछ राज्यों में हिंदी भाषा एक विवाद का कारण ही बनती रही है।
उपसंहार
आधुनिक युग का एक वरदान यह भी है कि विश्व के विभिन्न देश और उनकी भाषाएंँ बहुत निकट आ गए हैं। देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी आज ना केवल भारतीय बल्कि अंतरराष्ट्रीय परिपेक्ष्य में भी अपनी शक्ति और सीमा का आकलन करने का अवसर प्राप्त करती है ,यह हिंदी के लिए अत्यंत शुभ अवसर है और हमारा साहित्यकार आज अधिक सचेत और सक्षम होकर आश्वस्त हो लिख सकता है। राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय मंच का निर्माण हो जाने के कारण यह तय हो चुका है कि हिंदी के वर्तमान गौरव का आधार केवल सीमा विस्तार या संख्या बल ही नहीं है बल्कि साहित्यिक समृद्धि है। आज हमारी हिन्दी विश्व की सबसे समृद्ध भाषाओं में एक है।
जय हिन्द!
(यह लेख इंडिक टुडे की हिंदी निबंध प्रतियोगिता के विजेताओं में से एक के रूप में चुना गया था।)
(Image credit: Columbia University)
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