“कला अज्ञात क्यों है?”
प्राचीन भारतीय कला के विषय में कुछ चिर स्थायी प्रश्नों में से यह एक प्रमुख प्रश्न है।
मूर्ति पर कलाकार के हस्ताक्षर कहाँ है? मंदिर पर वास्तुकार का नाम कहाँ है? कला में स्थित कलाकार कहाँ है? ये कुछ अज्ञात से प्रश्न हैं।
अज्ञात कलाकारों का रहस्य भारत तक ही सीमित नहीं है। पुनर्जागरण से पहले लगभग हर पारंपरिक समाज ने व्यक्तिगत रूप से कलाकार की कोई खोज खबर कभी ली ही नहीं। अधिकांशत: उत्कृष्ट ग्रीक मूर्तियाँ अज्ञात ही हैं। अब सवाल यह उठता है कि जो कलाकार इतनी सूक्ष्मता के साथ ऐसी उत्कृष्ट कला का निर्माण कर सकते थे और दर्शकों को जीवन के अन्य क्षेत्रों में ले जाने की क्षमता रखते थे, ऐसे कलाकार अज्ञात कैसे रह गए?
आज ना तो हम उस वास्तुकार का नाम जानते हैं जिसने ग्रीस में पार्थेनन को डिजाइन किया था और ना ही रोम में कोलोज़ियम को डिजाइन करने वाले कलाकार के नाम से परिचित हैं। हमने उन कलाकारों के हस्ताक्षर कभी नहीं देखे जिन्होंने प्राचीन क्रेते में मिट्टी के बर्तन चित्रित किए थे। हम उन वास्तुकारों से आज भी अनभिज्ञ ही हैं जिन्होंने पिरामिड्स का निर्माण किया अथवा लक्सर में स्थित कब्रों को भीतर से चित्रित किया था।
जब भी किसी कलाकार का नाम याद किया जाता है, तो उसे कुछ नवीन रचना हेतु नहीं बल्कि उसी पुरानी कहानी को फिर से बाँचने के लिए, उसी पुराने विषय को फिर से सँवारने के लिए याद किया जाता है। कहानी या विषय अपने आप में कभी नया नहीं होता। पारंपरिक कला की प्राथमिक विशेषता सार्वभौमिक सत्य और कहानियों के मूल स्वरूप की पुनरावृत्ति थी। आमतौर पर कलाकार कुछ ‘नवीन’ या ‘मूल’ बनाने का दावा नहीं करेंगे, बल्कि, उन्हीं पुराने विषयों की पुनरावृत्ति करेंगे। कलाकार अपना ‘नाम’ प्रदर्शित करने के लिए पारंपरिक कला की ही पुष्टि करते हैं ना कि नवीनता का सृजन करते हैं।
एशेलियस, सोफोकल्स और युरिपिड्स, जिन्हें त्रासदियों की तिकड़ी के नाम से भी जाना जाता है, प्राचीन ग्रीस के सबसे महान नाटककार थे। ये वो महान कलाकार थे जिनके कार्य वर्तमान में भी संरक्षित हैं। ये वो कलाकार हैं जिनके नाटकों में, हमें विषय या कहानी में कोई अंतर नहीं दिखता है। कहानियाँ सभी समान हैं तथा अंतर केवल उनके व्यवहार एवं प्रस्तुतिकरण में ही है।
ये कहानियाँ कुछ और नहीं बल्कि ग्रीस के शास्त्रीय मिथक थे जिन्हें समकालीन दर्शकों के लिए नाटककार फिर से परिभाषित कर रहे थे। यह माना जाता है कि सृष्टि में कुछ भी नया नहीं है तथा कोई भी कहानी नई हो ही नहीं सकती। समकालीन मुहावरे भी केवल सार्वभौमिक कहानियों और शास्त्रीय आडंबर का ही अनुवाद है। यह माना जाता था कि हमारे पूर्वजों ने सर्वश्रेष्ठ की रचना की थी तथा वे अपने समय के महानतम थे। बाद की पीढ़ियों के लिए जो एकमात्र कार्य बचा था, वो था उनके द्वारा तय किये गए मापदंडों पर खरा उतरना।
इस संबंध में ग्रीस एकमात्र उदाहरण नहीं था। भारतवर्ष में भी भास और कालिदास जैसे महान नाटककारों ने अपने महाकाव्यों में पूर्व में सुनाई गई शास्त्रीय कहानियों का ही पुन: प्रयोग किया है। भास ने महाभारत के कई दृश्यों की पुनरावृत्ति की। कालिदास भी ‘शकुंतला’ के साथ यही करते है। महान संतों एवं ज्ञानियों द्वारा रचित महाकाव्यों, पुराणों और आगमों के संदेश को ही पुनश्च प्रस्तुत करना ही उनका एकमात्र केंद्रबिंदु था।
ऐसा कोई छद्म आडंबर नहीं था कि ‘कलाकार’ हरबार कुछ नवीन ही रच सकता है। भारतीय कलाकारों के लिए कुछ नया खोजने और बनाने का व्यक्तिगत दावा नवीनता का परिचायक नहीं था। माना जाना चाहिए कि कलाकार का सबसे बड़ा लक्ष्य ज्ञानियों के मानक से मेल खाना ही था तथा उससे श्रेष्ठतर करने की उनके मन में कोई अवधारणा नहीं थी।
अगले भाग में हम आप से चर्चा करने वाले हैं कला और कला के लक्ष्यों की …
(यह लेख पंकज सक्सेना द्वारा लिखित पहले आंग्ल भाषा में प्रस्तुत किया गया है)
(Image credit: Wikimedia Commons)
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