close logo

शिव नारायण प्रेम कथा

तिथि है भाद्र मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी। मध्य-रात्रि का प्रहर है। चारो दिशाओं में घोर अँधियारा है। मूसलाधार बरसात में बिजली कड़कती है। इस जेल के सभी प्रहरी अचानक निद्रा में लीन हो जाते हैं। सभी द्वार अपने आप खुल जाते हैं। बेड़ियाँ स्वयं टूट रही हैं। यमुना जी प्रभु के चरण स्पर्श के लिए उफान पर हैं।

 

वहीं कहीं दूर महादेव भी समाधिस्थ हैं!
पौराणिक कथाओं के अनुसार, श्री नारायण के प्रत्येक अवतरण पर महादेव उनके बाल स्वरूप दर्शन के लिए पृथ्वी पर स्वयं पधारे हैं। चाहे वह वृद्ध ज्योतिषी के रूप में, श्रीकाकभुशुण्डि के साथ श्रीरामावतार का समय हो, या साधु-भेष में श्रीकृष्णावतार के समय में गोकुल में उनका आगमन हो।

 

इस चित्र को देखकर कई लोगों के मन में इस कथा के बारे में कोतुहल उठना स्वाभिक ही है कि महादेव किस बालक को अपने दर्शनो का सौभाग्य प्रदान करने आये हैं। कान्हा हैं बाल्यावस्था में, या राम लल्ला हैं, जो कौशल्या माता की गोद में मुस्कुरा रहे हैं।

विभिन्न कथाओं में महादेव और नारायण के संबंधों के बारे में बहुत कुछ दर्शाया गया है। इस चित्र के बालक और महादेव की कथा से पहले इस संबंध में महादेव एवं नारायण के आपसी प्रेम की कथा जान लेना आवश्यक है।

तो आइये महादेव के कान्हा के बाल दर्शन से पहले आपको ले चलते हैं शिव-नारायण प्रेम कथा की ओर ।
प्राचीन काल में कैलाश शिखर पर महर्षि गौतम के आश्रम में, बाणासुर, अपने कुलगुरु शुक्राचार्य, भक्त शिरोमणि प्रहलाद, दानवीर बलि, एवं दैत्यराज वृषपर्वा, अतिथि के रूप में वास करते थे ।

प्रात:काल का समय था जिस दिन वृषपर्वा महादेव की पूजा में मग्न था। तभी वहाँ महर्षि गौतम का एक प्रिय शिष्य, शंकरात्मा आया और वृषपर्वा तथा उनके सामने रखी हुई महादेव की मूर्ति के बीच मे आकर विध्न डालने लगा। वृषपर्वा के अनेक समझाने के बाद भी उसके व्यवहार में परिवर्तन नहीं आया। शंकरात्मा के उद्दंड व्यवहार से क्रोधित वृषपर्वा ने एक क्षण में ही तलवार निकालकर उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। किन्तु यह शंकरात्मा तो महर्षि गौतम को प्राणों से भी अधिक प्रिय था। इस कारण महर्षि गौतम ने अवसाद में पड़ कर देखते ही देखते वृषपर्वा की आँखों के सामने योगबल से अपने प्राण त्याग दिए।

महर्षि गौतम के प्राण त्यागने पर शुक्राचार्य से भी नहीं रहा गया तथा उन्होंने भी उसी प्रकार अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। तत्पश्चात महाऋषि जनों को प्राण त्यागते देख, प्रहृलाद आदि अन्य शिष्यों ने भी प्राण त्याग दिए। गौतम ऋषि के आश्रम में क्षण भर में, शिव भक्तों के शवों का ढेर लग चुका था।

यह करुणापूर्ण दृश्य देखकर देवी अहल्या हृदयभेदी स्वर से आर्तनाद करने लगती हैं। इस आर्तनाद का मार्मिक स्वर महादेव को सुनाई देता है एवं उनकी समाधि भंग हो जाती है। वह इस प्रकार अविलम्ब महर्षि गौतम के आश्रम पर पहुँचते हैं जैसे गज की करुण पुकार सुनकर भगवान् श्री हरि वैकुण्ठ से आतुर होकर भागे चले आये थे।

महादेव आश्रम पहुँचकर अपनी कृपा दृष्टि से सभी शवों में प्राण फूंक देते हैं। महादेव महर्षि गौतम के त्याग से प्रसन्न होते हैं एवं वर मांगने को कहते हैं। महर्षि गौतम करबद्ध हो महादेव से आश्रम में प्रसाद ग्रहण करने की विनती करते हैं। भोले बाबा तो ठहरे प्रेम के भूखे सो महर्षि का निश्छल प्रेम देखकर उनका निमन्त्रण तुरंत स्वीकार कर लेते हैं।

इन्ही भावनाओं के भाव में आकर ही उन्होंने एक दिन शबरी के मीठे-जूठे बेरों को श्रीराम के रूप में, और सुदामा के तन्दुलो को श्रीकृष्णरूप में भोग लगाया था। ऐसा ही तो गीता में भी लिखा है,
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।

तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥

अर्थात जो कोई भी भक्त मेरे लिए पत्र, पुष्प, फल, जल आदि भक्ति से अर्पण करता है, उस शुद्ध मन से भक्त का वह भक्ति पूर्वक अर्पण किया हुआ पत्र पुष्पादि मैं भोगता हूँ, अर्थात् स्वीकार करता हूँ।।
(श्रीमद्भगवद्गीता ९/२६)

महादेव प्रार्थना कर श्री ब्रह्मा और श्रीविष्णु को भी महर्षि का आतिथ्य स्वीकार करने को समझा लेते हैं। इधर भोजन का प्रबंध हो रहा था, उधर महादेव, विष्णु को साथ लेकर आश्रम में भ्रमण को निकल पड़ते हैं। भ्रमण के समय एक सरोवर पर उनकी दृष्टि जा पहुँचती है, तथा वे उसमें जलक्रीड़ा का आनंद उठाने लगते हैं।

इन दो मित्रों, सखाओं की इस अद्भुत लीला का पुराणों में बेहद सुंदर वर्णन किया गया है। यह लीला इतनी अद्भुत थी कि नारद जी भी आकर वीणा वादन करने लगे थे। स्वयं महादेव ने सरोवर से बाहर आकर, जल क्रीडा छोड़, नारद जी के सुर-मे-सुर सजा दिए थे।

विष्णु जी भी कहाँ पीछे रहते, तो वह भी बाहर आकर मृदङ्ग वादन करने लगे। ब्रह्मा जी भी अति आन्द्नित थे। कुछ क्षण पश्चात संगीत-कोविद महाबली बजरंगी भी अपने दर्शन देकर उस लीला में शामिल हो जाते हैं।

आप आंखें बंद कीजिए और खो जाइए उस मनोरम दृश्य में कि स्वयं पवनसुत गायन में मग्न हैं। महादेव, विष्णु, ब्रह्मा, नारद सभी शांत हो, हनुमान जी के गायन को सुनकर सुध-बुध खो बैठे हैं। सभी देवजन ऐसे मंत्रमुग्ध हुए कि भोजन के आमंत्रण तक को भूल जाते हैं।

अब महर्षि भागे दौडे आते हैं और किसी प्रकार अनुनय विनय करके बड़ी मुश्किल से सबको भोजन परोसते हैं । भोजन पश्चात सभा का पुनः आयोजन होता है । हनुमानजी अपना गायन पुनः प्रारम्भ करते हैं।

भोलेबाबा उनके मनोहर संगीत को सुनकर ऐसे मस्त होते हैं कि धीरे से एक चरण हनुमान् की अञ्जलि मे रख देते हैं। दूसरे चरण को उनके कंधे, मुख, कंठ, वक्षस्थल, हृदयके मध्य भाग, उदरदेश तथा नाभि मण्डलसे स्पर्श कराते हुए विश्राम अवस्था में आ जाते हैं।

अब तो विष्णु जी को ईर्ष्या होने लगती है और कहते हैं-
“जो चरण देवताओ तक को दुर्लभ है एवं वेदों द्वारा अगम्य हैं, जिन चरणों को उपनिषद भी प्रकाशित नहीं कर सकते, जिन्हें योगिजन, मुनिजन चिरकाल तक विविध प्रकार के साधन, व्रत उपवासादि, और तप करके भी प्राप्त नहीं कर सके, उन पावन चरणों को आज अपने समस्त अंगो पर धारण करने का अनुपम सौभाग्य हनुमान् को प्राप्त हो रहा है ।

मया वर्षसहस्रं तु सहस्राब्जैस्तथान्वहम् ।
भक्त्या सम्पूतिजोऽपीश पादो नो दर्शितस्त्वया ॥

लोके वादो हि सुमहान् शम्भुर्नारायणप्रियः।
हरिः प्रियस्तथा शम्भोर्न तादृग् भाग्यमस्ति मे॥
(पद्म० पा० ६९/२४७-२४८)

“मैं नारायण हूँ!! मैंने भी सहस्र वर्षों तक प्रतिदिन सहस्त्र पद्मो से आपका भक्तिभाव पूर्वक अर्चन किया, परंतु यह सौभाग्य आपने मुझे कभी प्रदान नहीं किया। तिह्लोक में यह जाना जाता है कि नारायण शंकर के परम हैं, परंतु आज हनुमान को देखकर मुझे इस बात पर संदेह सा होने लगा है”

नारायण दुखी होते हुए आगे कहते हैं कि उन्हें हनुमान के प्रति ईर्ष्या भी हो रही है। ऐसी बातें सुनकर महादेव मंद मंद मुस्कुराये और बोले

“हे! नारायण! यह आप क्या कह रहे है? क्या आपसे बढ़कर मुझे कोई और प्रिय हो सकता है? औरों की तो छोडिये, मैं सत्य कहता हूँ कि आपके समान तो मैं पार्वती से भी प्रेम नहीं करता”

न त्वया सदृशो मह्यं प्रियोऽस्ति भगवन् हरे।
पार्वती वा त्वया तुल्या न चान्या विद्यते मम।
(पद्म० पा० ६९/२४९)

यहाँ यह नोक झोंक चल रही है तभी इतने में ही माँ पार्वती वहाँ आ पहुँचती है। भोले बाबा के क्रोध से उनको बड़ी शंका लगी रहती थी। वो घबराई हुईं थी कहीं महादेव क्रोधित होकर प्रस्थान न कर जाएँ ।

माँ पार्वती के आने से महर्षि की जजमानी में जो कमी थी वह भी पूरी हो गयी । वहाँ चल रही महादेव और श्रीविष्णु भगवान की प्रणयगोष्ठी में विनोद में माँ पार्वती, महादेव के रूप, उनकी मुण्डमाला, पन्नगभूषण, दिग्वस्त्रधारण, और वृषभारोहण आदि का परिहास कर बैठती हैं ।

भगवान विष्णु महादेव की अवमानना को सहन नहीं कर पाते और दुखी होकर कहते हैं,

किमर्थं निन्दसे देवि देवदेवं जगत्पतिम् ।
यत्रेशनिन्दनं भद्रे तत्र नो मरणं व्रतम्।
(पद्म० पा० ७९/३३१-३३३)

“देवी! आप महादेव के प्रति यह क्या कह रहीं हैं? मुझसे आपके यह शब्द सहे नहीं जाते हैं। जहां शिवनिन्दा हो वहाँ हमको जीवित रहने का अधिकार नहीं, यह हमारा व्रत है”

इत्युक्त्वाथ नखाभ्यां हि हरिश्छेत्तुं शिरो गतः॥
महेशस्तु करं गृह्य प्राह मा साहसं कृथाः।

इतना कहते हैं विष्णु भगवान, वहीँ माँ पार्वती और महादेव के सामने, अपने नखों द्वारा अपना शिरच्छेदन करने को आतुर हो जाते हैं। किन्तु अंत में अपने इसी मित्र नारायण को महादेव शिरच्छेदन करने से रोक लेते हैं।

अब बताइए कि जब मित्रता ऐसे थी तो कैसे यह ना होता कि महादेव को यह समाचार मिलता कि नारायण बाल रूप में अवतरित हुए हैं गोकुल में तो वो स्वयं दर्शन को ना जाते?

अब आते हैं उस कथा पर जिसको प्रथम चित्र में दर्शाया गया है।

श्रीमद्गोपीश्वरं वन्दे शंकरं करुणामयम्।
सर्वक्लेशहरं देवं वृन्दारण्ये रतिप्रदम् ॥

जिस समय श्रीकृष्ण का जन्म हो रहा था उस समय महादेव समाधि में थे। जब वह जागृत हुए तब उन्हें ज्ञात हुआ कि नारायण ब्रज में बाल रूप में प्रकट हुये हैं। मन में लालसा हुई बाल रूप के दर्शन की, तो महादेव ने बनाया जोगी का स्वाँग, लिए दो गण श्रृंगी व भृंगी साथ, और चल पड़े नंदगाँव की ओर।

यह जानकर कि नंद महाराज उदारतापूर्वक ब्राह्मणों को प्रसन्न करने के लिए दान देते हैं, भगवान शिव ब्राह्मण रूप में जाने का निर्णय लेते हैं। किन्तु जैसे ही उन्होंने गोकुल में प्रवेश करने से पहले ब्रजभूमि को छुआ, उनको अनुभूति हुई कि उन्हें अपना रूप परिवर्तित नहीं करना चाहिए।

उनको विचार आया, “प्रभु को ज्ञात है कि मैं कौन हूं, इसलिए मुझे अपने वास्तविक रूप में ही प्रस्थान करना चाहिए”
कहते हैं यह ब्रजभूमि की धूल की प्रकृति है कि यह एक वास्तविक भक्त के दिल में परिपूर्णता लाती है।

चली जा रही थी महादेव की टोली, “श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव” का कीर्तन करते अपनी ही धुन में मग्न। नन्दगाँव में माता यशोदा के द्वार जा पहुंची भोलेनाथ की टोली और लगाई, “अलख निरंजन” की पुकार।

मैय्या यशोदा को जब पता चलता है कि कोई साधु द्वार पर भिक्षा लेने के लिए खड़े हैं तो मैय्या यशोदा अपनी दासी को बुलाकर साधु को फल आदि की व्यवस्था करने का आदेश देती हैं। दासी भेंट देकर साधु महाराज से बाल कृष्ण को आशीर्वाद देने को याचना करती है।

महादेव दासी से कहते हैं कि,“मेरे गुरू द्वारा मुझे ज्ञात हुआ है कि गोकुल में यशोदाजी के घर स्वयं परमात्मा प्रकट हुए हैं और मेरा आगमन उनके दर्शन हेतु हुआ है”

दासी जब मैय्या यशोदा को सब बात बताती हैं तो यशोदा आश्चर्यचकित हो जाती हैं। बाहर झाँकती हैं तो दिखते है एक भस्मधारी जोगी जिन्होंने बाघाम्बर पहना है एवं गले में सर्पों की माला है। जटाएं उन जोगी की भव्य हैं और हाथों में त्रिशूल है।

यशोदा मैय्या स्वयं बाहर जाती हैं और साधु को प्रणाम करते हुए कहती हैं,
“ओ जोगी! ले भीख जाहू घर, तोहिं उन्माद जनाय”

“महाराज आप तो स्वयं ज्ञानी-ध्यानी हैं। अगर आपको भिक्षा यथोचित नहीं प्रतीत हो रही तो आज्ञा दीजिये। आपकी सेवा में आपके आदेशानुसार वस्तुएं प्रस्तुत की जाएँगी। किन्तु क्षमा चाहती हूँ मैं लल्ला को बाहर नहीं लाऊँगी। अनेक व्रतों के बाद जन्म हुआ यह बालक मुझे प्राणों से भी प्रिय है। यह जो आपके गले में सर्प है, मेरा लल्ला उसे देखकर डर जाएगा”, तब जोगी वहषधारी महादेव मुस्कुरा कर कहते हैं,

“सुनु मैय्या!मोहिं भीख इहै चह, दे मोहिं लाल दिखाय”
मैं आपको आश्वासन देता हूँ कि वह नन्हा बालक इस नन्हे से सर्प को देखकर भयभीत नहीं होगा तथापि वह तो मुझे देखकर प्रसन्न ही होगा। मैय्या कहती हैं,

“ओ जोगी! क्यों बात बनावत, मो ते जो तेहि जाय”,
महादेव मुस्कुरा कर कहते हैं,

“सुनु मैया! यह लाल अजन्मा, ले अवतार सिधाय”
“हे माँ, आपने तो देवों के देव को जन्म दिया है। वह तो स्वयं ब्रह्म के ब्रह्म हैं”।

मैय्या यशोदा दर्शन के लिए नहीं मानती हैं। वह कहती हैं कि साधू महाराज जब तक यहाँ विराजना चाहें विराजें किन्तु वह अपने लल्ला को बाहर लेकर नहीं आएँगी और अंदर चली जाती हैं।

महादेव पुकार कर माँ यशोदा से कहते हैं, “हे मैय्या मैं शपथ लेता हूँ कि जब तक बालक के दर्शन नहीं हो जाते तब तक मैं जल ग्रहण नहीं करूँगा और यहीं समाधिस्थ हो जाऊँगा”
“शम्भु दरस हित बैठी यमुन तट, दृग-असुवन झारी लाय
उत काहि ‘कहां कहां’ जनु लालहु, नैनन नीर बहाय”

यशोदा मैय्या की बात सुनकर भगवान शिव यमुना के तट पर लौट आए, और वहीं समाधिस्थ हो गए। भगवान शिव के गालों से अश्रु बहे जा रहे थे।

कन्हैया भली प्रकार जानते थे कि यदि भोले बाबा की समाधि लग गई तो सहस्र वर्ष के बाद ही खुलेगी। अब यहाँ महादेव समाधि में बैठे हैं और वहाँ कान्हा ने अपनी लीला प्रारंभ कर दी है। कान्हा अब जोर-जोर से रोना शुरु कर चुके हैं। माता यशोदा ने उन्हें दूध, फल, खिलौने आदि देकर शांत कराने की बहुत प्रयत्न कर रहीं हैं, उनको बहला रहीं हैं, पर कन्हैया चुप ही नहीं हो रहे हैं और रोये जा रहे हैं। मैय्या को कुछ समझ नहीं आ रहा है कि लल्ला को कैसे शांत किया जाए ?

तभी एक गोपी करीब आती है और कान में माता यशोदा से कुछ कहती है। “मैय्या, ऐसा लागे है कि आँगन में जो साधु बैठे हैं उन्होंने ही अपने लल्ला पर कोई मन्त्र फेरा है”

काँप जाती हैं यह सुनकर मैय्या, और तुरंत शांडिल्य ऋषि को अपने लल्ला की बुरी नज़र उतारने के लिए बुलाती है ।

अब वो तो थे शांडिल्य ऋषि, सो झट से समझ गए कि जोगी के भेष में महादेव ही कृष्णजी के बाल स्वरूप के दर्शन के लिए स्वयं पधारे हैं। वो माता यशोदा से कहते हैं ,“माँ, आँगन में जो साधु बैठे हैं, उनका लल्ला से काल-कालान्तर का सम्बन्ध है। अब आप देरी न करें और शीघ्रता से उन्हें लल्ला का दर्शन करवायें”

माता यशोदा को जब यह ज्ञात होता है कि स्वयं प्रभु पधारे हैं तो प्रसन्नता से भर उठती हैं, और प्रबंधों में जुट जाती हैं। अब बाहर तो कर रहे हैं महादेव प्रतीक्षा, समाधि लगाये हुए, और अंदर मैय्या कर रहीं हैं कन्हैया का जी भर सुन्दर श्रृंगार।

पीताम्बर धारण करा रहीं हैं।आँखों में काजल लगा रहीं हैं। लल्ला को बुरी दृष्टि न लगे इसलिए गले में बाघ के स्वर्ण जड़ित नखों को भी धारण करा रहीं हैं। बाहर लेकर आती हैं यशोदा लल्ला को, और साथ ही प्रेम से निवेदन करती हैं कि जोगी जी लल्ला को एकटक न निहारें।

अब माँ तो माँ ही होती है, सो यह जानते हुए भी कि जोगी जी के भेष में प्रभु स्वयं पधारे हैं, मैय्या को डर है कि कहीं उनके लल्ला को बुरी दृष्टि न लग जाए। माता यशोदा साधू महाराज को अंदर नन्द भवन में बुलाती हैं और कन्हैया से मिलवाती हैं।

नन्दगाँव में नन्दभवन के अन्दर जहाँ कान्हा और महादेव पहली बार मिले थे, आज भी नंदीश्वर महादेव विराजमान हैं।

कान्हा और महादेव की आँखें चार होते ही महादेव मंद मंद मुस्कुरा रहे हैं, और महादेव की इस अलौकिक मुस्कराहट को देखकर अब कान्हा भी खिलखिला कर हंस पड़े हैं । मैय्या यशोदा स्वयं अचरज में पड़ी हुई हैं कि अभी तो बालक इतना रो रहा था, अब कैसे हँसने लगा। माता को विश्वास हो जाता है कि सामने स्वयं प्रभु विराजमान हैं। वह महादेव का नमन करती हैं और लल्ला को महादेव की गोद में स्वयं थमा देती हैं।

इतने से ही मैय्या को सब्र नहीं होता और यशोदा मैय्या जोगी जी से लल्ला को बुरी दृष्टि न लगने का मन्त्र देने को कहती हैं। अँधा क्या चाहे दो आँखे, महादेव को जैसे सारी प्रकृति का सुख मिल गया हो। भगवान शिव, जिन्होंने कृष्ण को अपनी गोद में लिया था, पारलौकिक परमानंद के सागर में खो चुके हैं।

जोगी रूपी महादेव लल्ला पर से बुरी दृष्टि उतार रहे हैं और कान्हा को गोद में लेकर नन्दभवन के आँगन में झूम रहे हैं, नाच रहे हैं। कान्हा जोगी के रूप में आये हुए शिव के कभी गाल नोंच रहे हैं, तो कभी उनकी बड़ी-बड़ी दाढ़ी के केशों को खींच रहे हैं।

सारा नन्दगाँव जैसे शिवलिंगाकार बन गया था उस दिवस। कहते हैं नन्दगाँव के नीचे से दर्शन करने पर आज भी ऐसा प्रतीत होता है कि ऊपर भगवान शंकर स्वयं विराजमान हैं। उसी नन्दगाँव में नन्दभवन के बाहर, आशेश्वर महादेव का मंदिर भी है जहां महादेव श्रीकृष्ण के दर्शन की आशा में समाधि लगा कर बैठे थे।

महादेव योगीश्वर हैं और श्रीकृष्ण योगेश्वर हैं। यदि श्रीकृष्ण प्रवृत्ति धर्म समझाते हैं, तो महादेव निवृत्ति धर्म समझाते हैं।
ब्रह्मवैवर्तपुराण में कथा है कि भगवान श्रीकृष्ण के दिव्य अंगों से भगवान नारायण, शिव व अन्य देवी-देवता प्रादुर्भूत हुए। महादेव ने श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए कहा-

“विश्वं विश्वेश्वरेशं च विश्वेशं विश्वकारणम्। विश्वाधारं च विश्वस्तं विश्वकारणकारणम्।।विश्वरक्षाकारणं च विश्वघ्नं विश्वजं परम्। फलबीजं फलाधारं फलं च तत्फलप्रदम्।।”
(ब्रह्मवै० १ | ३ | २५—२६)

“आप विश्वरूप हैं, विश्व के स्वामी हैं, विश्व के स्वामियों के भी स्वामी हैं, विश्व के कारण हैं, कारण के भी कारण हैं, विश्व के आधार हैं, विश्वस्त हैं, विश्वरक्षक हैं, विश्व का संहार करने वाले हैं और नाना रूपों में विश्व में आविर्भूत होते हैं। आप फलों के बीज हैं, फलों के आधार हैं, फलस्वरूप हैं, और फलदाता हैं”

कथाओं का मर्म निम्नलिखित पुस्तकों से लिया गया है

  1. श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार जी, भगवतचर्चा, गीताप्रेस गोरखपुर
  2. विश्व हिंदी दर्शन, अंक २३
  3. कल्याण, अंक ५७, ७५
  4. श्री कृपालु महाराज की कथाएं

 

Disclaimer: The opinions expressed in this article belong to the author. Indic Today is neither responsible nor liable for the accuracy, completeness, suitability, or validity of any information in the article.

Leave a Reply

IndicA Today - Website Survey

Namaste,

We are on a mission to enhance the reader experience on IndicA Today, and your insights are invaluable. Participating in this short survey is your chance to shape the next version of this platform for Shastraas, Indic Knowledge Systems & Indology. Your thoughts will guide us in creating a more enriching and culturally resonant experience. Thank you for being part of this exciting journey!


Please enable JavaScript in your browser to complete this form.
1. How often do you visit IndicA Today ?
2. Are you an author or have you ever been part of any IndicA Workshop or IndicA Community in general, at present or in the past?
3. Do you find our website visually appealing and comfortable to read?
4. Pick Top 3 words that come to your mind when you think of IndicA Today.
5. Please mention topics that you would like to see featured on IndicA Today.
6. Is it easy for you to find information on our website?
7. How would you rate the overall quality of the content on our website, considering factors such as relevance, clarity, and depth of information?
Name

This will close in 10000 seconds