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स्वातंत्र्योत्तर लंबी कविताओं में भारत बोध भाग-I

यह बहुत सांयोगिक है कि भारत की स्वातंत्र्य यात्रा के समानांतर हिंदी साहित्य में लंबी कविता ने अपनी सांस्कृतिक यात्रा जारी रखी है। इधर देश ने विदेशी दासता से मुक्ति पायी उधर कविता ने पुरानी प्रबंधात्मक रूढ़ियों से।

लंबी कविता की शुरुआत तो स्वतंत्रता पूर्व द्विवेदी युगीन एवं छायावाद युगीन कवियों के द्वारा हो ही चुकी थी। पंत की परिवर्तन, प्रसाद की प्रलय की छाया, निराला की सरोज स्मृति और शक्तिपूजा उल्लेखनीय लंबी कविताएं हैं।परंतु हमारे विवेचन का विषय यहाँ स्वतंत्रता के युगपत स्वातंत्र्योत्तर लंबी कविताओं में निहित भारत बोध का अध्ययन करना है, और इस दृष्टि से

ऐसा जान पड़ता है कि भारतवर्ष के स्वाधीनता दिवस की वर्षानुवर्ष आवृत्ति के साथ ही ये लंबी कविताएं दीवलों पर सजे चेतस दीपों के रूप में सजा दी गई हैं जो अविरत भारत की सांस्कृतिक संन्निधियों के प्रकाश से दिग्दिगंत को आलोकित कर रहीं हैं।

मैं स्वतंत्रता के पूर्व लिखित लंबी कविताओं में निहित भारत बोध के महत्व को भूल नहीं रहा हूँ।परंतु ये कविताएं केवल लोकमंगल की साधनावस्था की कविताएं हैं जिनमें देश को शक्ति की मौलिक कल्पना के माध्यम से विदेशी शासन से मुक्ति देने का और युवाओं में आत्मबोध के आवाह्न और जागरण का कवि संकल्प है।सिद्धावस्था का लोकरंजन और विश्रांति इनमें नहीं मिलती, मिल भी नहीं सकती, विघ्न – बाधा और बेड़ियों से मुक्त हुए बिना कोई कैसे आनंद मनाता। –

“लोक जब पीड़ा और विघ्न बाधा से मुक्त हो जाता है तब.. जाकर लोक के प्रति प्रेम – प्रवर्तन का, प्रजा के रंजन का, उसके अधिकाधिक सुख के विधान का, अवकाश मिलता है।” 1

स्वातंत्र्योत्तर लंबी कविताएं इस मुक्ति के बाद की ही कविताएं हैं

ध्यान देने की बात यह है कि दूसरे वर्ग की इन लंबी कविताओं में लोकमंगल की सिद्धावस्था के साथ- साथ साधनावस्था का भी आग्रह बराबर बना हुआ है क्योंकि देश की राजनीतिक मुक्ति के बाद भी देश में जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा, सांस्कृतिक स्वाधीन चेतना और सामाजिक समरसता की पुनर्स्थापना और पुनर्प्रतिष्ठा का कविसंकल्पित कर्म अभी शेष बना हुआ था।

लंबी कविता के इन दो दौरों को लेकर लिखी गयी आलोचक नरेंद्र मोहन की सम्मति उल्लेखनीय है –

“लंबी कविताओं के दो दौर बडे साफ हैं-एक आजादी से पहले का और दूसरा.. बाद का।.. इस बीच आधुनिकता की प्रक्रिया तेज हुई है। जिससे मूल्य – मान्यताएँ बुरी तरह चरमरायी हैं।.. आधुनिक और उत्तर आधुनिक जीवन विधान की अभिव्यक्ति लंबी कविताओं में अधिक सार्थक ढंग से हुई है।.. आधुनिक जीवन की जटिल वास्तविकताओं ने ही कवियों को बाध्य किया है कि वे क्लासिकल ढाँचे की जकड़न से मुक्त हों। “2

क्लासिकल ढाँचे से मुक्ति के साथ साथ चरमराती मूल्य – मान्यताओं के बीच सांस्कृतिक संचेतना के संवहन की चुनौती और जिम्मेदारी इन कविताओं के केंद्र में रही। आजादी के बाद की इस श्रेणी की रचनाओं में पहली उल्लेखनीय रचना है नरेश मेहता कृत- समय देवता।

नरेश मेहता की इस प्रलंब कविता में भारतीय संस्कृति में निहित विश्व – मानस का चित्र है जिसमें भूगोल के भेदों और राजनीति के विभेदकों से ऊपर उठकर अखंड विश्व मानवता और रागात्मकता का रेखांकन है। विश्व बंधुत्व की प्रेरणा से इसमें संपूर्ण पृथ्वी की मानस प्रदक्षिणा है तो संपूर्ण नदियों के समन्वय से संपूर्ण धरित्री को उर्वर बनाने की मंगलाशा भी।

मनुष्यों को बाँटने वाली चीन की विराट दीवार पर कवि के अमर्ष की व्यंजना के पीछे अखंड मानववाद के भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की ही आधार भूमि है-

“राजनीति की फसल सरीखी खड़ी हुई दीवाल चीन की..

मनुज बाँटने चाहा ऊँचे बुर्ज बनाकर

मिची आँख के सम्राटों ने।” 3

चीन की भौगोलिकता के चलते खिंचाव युक्त नेत्रों को मनुष्य – मनुष्य को अलगाने वाली संकुचित दृष्टि से जोडकर कवि ने अद्भुत साम्य उपस्थित किया है। निजी राग द्वेष से ऊपर उठकर स्वस्थ सांस्कृतिक चेतना के प्रति कवि का आग्रह इस संग्रह में कवि के वक्तव्य में भी बहुत स्पष्ट है –

“नयी प्रतिभाएँ अब आ रहीं हैं। इससे पहले जो नयापन मध्यवर्गीय लाये थे, वह न तो सांस्कृतिक दृष्टि से ही स्वस्थ रक्त था और न जीवन की दृष्टि से ही।” 4

भौतिकवाद से नष्ट होती रागात्मकता का चित्र खींचकर कवि ने मानों भौतिक और आत्मिक विकास के संतुलन का इशारा किया है –

” विज्ञान, धुएं के अजगर – सा

है लील रहा सब रंग रेशमी मनु – श्रद्धा का..

वही सृष्टि – श्री मनुज आज विज्ञान कब्र में मरा पडा है। “5

राजनीतिक लिप्सा और युद्धोन्माद को कवि विश्व – शांति के लिए सबसे बडा खतरा मानता है –

” विश्व शांति का आह्वान

इन राजनीति के भवनों में तो सदा असंभव…

संगीनों से कभी नहीं गेंहूँ उगता है

कल पुरजों के खेतों में ही बम की फसल हुआ करती है। “6

विश्व भर के देशों में समय देवता के माध्यम से घूमती कविता में देश – देश के प्राकृतिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक विशेषकों का वर्णन इतनी स्पृहणीयता के साथ किया गया है कि भारतीय मानस की विश्व कुटुम्बकम की भावना साकार हो उठी है। और अंत में अखंड भूमंडल की शुभैषणा भी हृदय स्पर्शी है-

“युद्धों के दर्रों में मानव लुटा हुआ सा आज एक मैदान चाहता।

और चाहता देश- देश की अपनी कटी हुई नदियों को जोड।

खेत में पानी देना..

राइन वोल्गा गंगा के वह इस धरती पर

आज नये जल छंद लिखेगा..

मेरी धरती पुष्पवती है

और मनुज की पेशानी के चारागाह पर

दौड रहीं हैं तूफ़ानों की नयी हवाएं। “7

भारत बोध की दृष्टि से धर्मवीर भारती कृत प्रमथ्यु गाथा भी उल्लेखनीय है। विशेष बात यह है कि इस कविता में एक अभारतीय पात्र में भारतीयता का संधान करते हुए उसे नायकत्व प्रदान किया गया है। प्राणिमात्र के कल्याण के लिए दान, समर्पण और त्याग के आदर्श यहाँ प्रतिष्ठित हैं।सर्वहित के लिए स्वयं के अस्तित्व को विलीन करने वालों को मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने वंदनीय बताया है –

“जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥8

Feature Image Credit: wikipedia.org

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