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स्वातंत्र्योत्तर लंबी कविताओं में भारत बोध भाग-3

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राजकमल चौधरी की मुक्ति प्रसंग कविता युगबोध की सार्थक अभिव्यंजना है तो रघुवीर सहाय की कविता में अवमूल्यन की चिंता ।एक ओर मुक्ति प्रसंग में देश की राजनीतिक – सामाजिक स्थितियों के यथातथ्य चित्रण पीछे कवि की राष्ट्रीय – सामाजिक चेतना ही प्रेरक रही है तो रघुवीर सहाय कृत आत्महत्या के विरुद्ध कविता में लोकतांत्रिक मूल्यों के पतन की चिंता है।

रघुवीर सहाय की कविता में अमानवीय स्थितियों के बीच मानव बने रहने का तथा औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर निकलने का संघर्ष व्यंजित है। –

“कुछ होगा, कुछ होगा अगर मैं बोलूँगा

न टूटे न टूटे तिलिस्म सत्ता का मेरे अन्दर एक कायर टूटेगा

टूट मेरे मन टूट एक बार सही तरह…

कितनी घुटन के अंदर घुटन के

अंदर घुटन से कितनी सहज मुक्ति” 17

रघुवीर सहाय की कविता में टूटन- घुटन के प्रति व्यंजित यही संघर्ष धूमिल की कविताओं में आक्रोश बनकर सामने आता है। इस आक्रोश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष है शोषण, उत्पीड़न के विरुद्ध मानवीय मुक्ति का पक्ष। धूमिल की कविताओं में भारत बोध इस रूप में है कि वे न केवल जनतंत्र की छाया में पल्लवित सामाजिक – राजनीतिक विसंगतियों का निर्मम उद्घाटन करते हैं बल्कि विसंगतियों के उन्मूलन का आह्वान भी करते हैं।

मोचीराम कविता में मनुष्य की मौलिकता को नष्ट करने वाली जातिवादी सामाजिक संरचना पर व्यंग्य है। –

“पेशेवर हाथों और फटे हुए जूतों के बीच

कहीं- न- कहीं एक अदद आदमी है

जिस पर टाँके पडते हैं,

जो जूते से झाँकती हुई अंगुली की चोट छाती पर

हथौड़े की तरह सहता है।” 18

सामाजिक विद्रूपताओं की चोट को हथौड़े की चोट के समान सहने की बात कहकर कवि पेशे और जाति को जोडकर देखने वाली इस व्यवस्था पर तीखा प्रहार करता है –

” यार! तू मोची नहीं, शायर है

असल में वह एक दिलचस्प गलतफहमी का शिकार है

जो यह सोचता है कि पेशा एक जाति है

और भाषा पर

आदमी का नहीं, किसी जाति का अधिकार है

जबकि असलियत यह है कि आग सबको जलाती है

सच्चाई सबसे होकर गुजरती है।” 19

मानव मात्र की समानता और समरसता का आवाहन करता कवि अन्याय को सहने वाली चुप्पी और अन्याय का प्रतिकार करने वाली चीख दोनों के महत्व को रेखांकित करता है –

” भविष्य गढ़ने में, ‘चुप ‘ और ‘चीख ‘

अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म से

अपना – अपना फर्ज अदा करते हैं। “20

धूमिल की एक और लंबी कविता ‘पटकथा ‘ राष्ट्रीय जीवन में संरचनात्मक परिवर्तन की कामना की कविता है। व्यवस्था की विवशता के बोध से यह कविता चमकती है। आजादी के बाद के भारत के संदर्भ में उत्साह और आनंद के देखे गये सपनों के पूरा न होने की कसक है। देश के लिए देखे गये सुनहरे सपनें मृगजल के समान एक अनंत दौड़, और अनंत प्रतीक्षा के रूप में साकार होते हैं, प्राप्त नहीं होते –

“मैं इन्तजार करता रहा..

जनतंत्र, त्याग, स्वतंत्रता..

संस्कृति, शांति, मनुष्यता..

ये सारे शब्द थे/ सुनहरे वादे थे

खुशफहम इरादे थे…

मैं सुनता रहा.. सुनता रहा..

मैं खुद को समझाता रहा.. सब कुछ सही होगा।” 21

झूठी दिलासा है कि सब कुछ सही होगा, सही कुछ नहीं होता, सही होने का नाटक होता है और यह नाटक जारी रहता है। लीलाधर जगूडी की कविता’ नाटक जारी है ‘के सैंतीस खंड इसी नाटक के अलग – अलग दृश्य हैं। इन दृश्यों के केंद्र में  व्यवस्था पर करारी चोट, संकुचित होती दुनिया, आजादी का परिभाषीकरण, टोपी से जूते में तब्दील होता आदमी का शीर्षक, बनावटीपन, नीरस जीवनचर्या, आम आदमी की हालत की जिम्मेदार असंगत व्यवस्थाएँ आदि हैं। इस कविता के संदर्भ में जगूडी की सम्मति यहाँ उल्लेखनीय है –

“सीधे – सीधे इस कविता में प्रवेश कठिन लगता है लेकिन एक बात आप समझ लें कि आजादी के बाद के छठें – सातवें दशक के भारत के युवकों के मोह, व्यामोह, विडंबनाओं और अंतर्विरोधों से यह कविता टकराती है… आप इस नाटक को अपने मस्तिष्क के मंच पर घटित होते हुए महसूस कर सकते हैं। यथार्थ और कल्पना के बीच यह नाटक जीवन और परिस्थितियों से उपजी हुई भाषा में घटित होता है। “22

जीवन और परिस्थितियों, व्यक्ति और समाज तथा नागरिक और सत्ता के बीच का अंतर्संघर्ष, तनाव,एवं युग बोध  लंबी कविता का अनवरत विषय बना हुआ है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की ‘कुआनो नदी ‘, गिरिजा कुमार माथुर की ‘इतिहास के जर्राहो से ‘ तथा मणि मधुकर कृत घास का घराना जैसी कविताओं में इसका अनुभव किया जा सकता है।

मानवीय मूल्यों में प्रतिबद्धता की दृष्टि से देखा जाए तो नागार्जुन कृत ‘हरिजन गाथा ‘ उल्लेखनीय कविता है।तत्कालीन भारतीय समाज में दलितों की दयनीय स्थिति के चित्रण के साथ क्रांति के साहस के साथ समरसता की स्थापना की चाहत है। मैनेजर पांडेय ने इस कविता के संदर्भ में लिखा है –

“जब एक कवि की सामाजिक संवेदनशीलता अपने समय की दहकती वास्तविकता का साक्षात्कार करती है तो उससे इतिहास की गति को पहचानने वाली ‘हरिजन गाथा ‘ जैसी कविता पैदा होती है।” 23

समय की दहकती वास्तविकता का साक्षात्कार अकेले नागार्जुन ही नहीं बल्कि संपूर्ण लंबी कविता के इतिहास में लक्ष्य किया जा सकता है। यथार्थ की विसंगतियों से उत्पन्न तनाव ही इन कविताओं की केंद्रीय वस्तु है और यही बात इन्हें युगबोध और राष्ट्र बोध से जोडती है कि कवि ने देश की विडम्बनाओं का सच्चा चित्र सामने रखकर अपने कवि कर्तव्य को पूरा किया है। आखिर अपनी अंतिम परिणति में कवि की चाहत यही है कि उसका देश और संपूर्ण विश्व मानवता सुखी, सुरक्षित, समृद्ध और निर्भय हो। एक उदात्त मूल्य चेतना मानव में संचरित होती रहे। जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से देश अथवा विश्व के किसी प्राणी को वंचित न होना पडे। भौतिक प्रगति के साथ साथ आत्मिक एवं सांस्कृतिक उत्थान का संतुलन बना रहे। विसंगतियों, विडंबनाओं के उन्मूलन के लिए इनकी पहचान और चिह्नीकरण बहुत जरूरी है और लंबी कविता ने यही कार्य किया है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कोरोना ऐसी महाआपदा को भी कवियों ने इस विधा में प्रस्तुत किया है। विजय कुमार कृत – ‘तालाबंदी में किसी अज्ञात की खोज’ शीर्षक कविता में एक ओर कोरोना से उत्पन्न जीवन संकट के साथ-साथ मूल्य संकट और नैतिक आपदा की पडताल है, तो दूसरी ओर कोरोना आपदा से मानव जाति को बचाने वाले कोरोना योद्धाओं के प्रति कृतज्ञता का ज्ञापन। कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं –

“बुनियादें हिल रहीं हैं..

कौन? कौन? कोई नहीं बस मौन..

हर चेहरे पर एक मास्क

हर मास्क के पीछे एक चेहरा

छुप गये सारे हाव भाव

मुस्कुराहटें

क्रोध

और कातरता

तुमने धरती को भी पहना दिया था एक मास्क

छिप गये पहाड, नदियां, चारागाह और जंगल.. 24

यहाँ एक ही मास्क से तिहरे संदर्भ उद्भासित हैं। संक्रमण को रोकने के लिए पहना गया मास्क आपदा में भी अनुपस्थित मानवीय  संवेदना और संवेग को छिपाकर आधुनिक मानव के असली चित्र – चरित्र को दुनिया में उजागर होने से बचाता है। यह मास्क के बहाने से दम तोडती मानवीय मूल्य चेतना पर व्यंग्य है। तीसरे प्रकृति और पर्यावरण के अंधाधुंध दोहन से मानव ने स्वमेव ही एक बडा भारी असंतुलन उत्पन्न किया है जिसे कवि ने मानव की ओर से धरती को पहनाया गया मास्क बताया है जिससे सभी प्राकृतिक संसाधनों को भौतिक विकास की दीवार के पीछे छिपा दिया गया है। कहीं न कहीं धरती पर चढा यह मास्क भी आपदाओं के आमंत्रण का कारण है। एक महात्मा से त्रस्त और विवश मानवता का चित्र देखें –

“छह फुट की सोशल डिस्टेनसिंग

हंसती है एक बेहया हंसी

सारे भूमंडलीकरण पर..

पंख कटे मेघदूतों जैसे ये सारे डवलपमेंट प्लान

तुम्हारी मूर्खताओं के स्मारक हैं..

विपदाओं ने रचे नये मुहावरे..

सडक पर चलते चलते हुई किसी मृत्यु के बारे में

एक खामोश रुदन अभी पडा था अलक्षित। “

एक संवेदनशील सहृदय के माध्यम से इस कविता में भारत बोध कितने प्रभावी रूप में व्यंजित है यह बात ध्यान देने योग्य है। मानव मानव की अभिन्नता और एकसूत्रीयता में बाधक जड संवेदनाओं और संवेगों के प्रति अमर्ष की व्यंजना,प्रकृति – पर्यावरण के अप्रतिहत दोहन का निषेध, भूमंडलीकरण अथवा विश्व कुटुंब भावना को बाधित करता व्यापारोन्माद और पाशविकता से मानवीयता की रक्षा सहित विविध जीवन दृष्टियाँ इस कविता में निहित राष्ट्र – बोध को पुष्ट करतीं हैं।

लंबी कविता अभी विकासमान अवस्था में गतिशील विधा है। रचना-विधान, शिल्प सौंदर्य अर्थात बनावट और बुनावट को लेकर इसकी सैद्धांतिकी धीरे-धीरे अपना एक आकार लेती जा रही है। कथ्य और संप्रेषण तकनीक की विविधता, बहुलता और विभेदों के बाद भी युग-बोध, मूल्य बोध और जीवन दृष्टि लंबी कविताओं केंद्रीय तत्व रहें हैं।  लंबी कविताएं युगीन गतिविधियों एवं वास्तविकताओं का सम्यक साक्षात्कार हैं और इस रूप में इन्हें राष्ट्र बोध का महकता हुआ दस्तावेज कहा जा सकता है।

संदर्भ –

  1. शुक्ल, आचार्य रामचंद्र, काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था( चिंतामणि ), इंडियन प्रेस लिमिटेड प्रयाग, 1950 ई., पृष्ठ 224
  2. मोहन, नरेंद्र, लंबी कविता : बाहरी भीतरी स्वतंत्रता का रूपक,संपादक – विनोद तिवारी, पक्षधर,( ब्लाग पर प्रकाशित ) 1 जुलाई 2020 ई.
  3. मेहता, नरेश, समय देवता, संपादक – अज्ञेय, तार सप्तक, प्रगति प्रकाशन, नयी दिल्ली, 1951 ई., पृष्ठ 135
  4. पूर्वोक्त, पृष्ठ 121
  5. पूर्वोक्त, पृष्ठ 135
  6. पूर्वोक्त, पृष्ठ 138, 141
  7. पूर्वोक्त, पृष्ठ 144,145
  8. तुलसीदास, गोस्वामी, बालकांड ( रामचरितमानस ), गीता प्रेस गोरखपुर
  9. भारती, धर्मवीर, प्रमथ्यु गाथा( सात गीत वर्ष ), भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, 1964 ई. पृष्ठ 24
  10. बच्चन, हरिवंशराय, दो चट्टानें, राजपाल एंड सन्स, दिल्ली, संस्करण-1971 ई., पृष्ठ 158-159
  11. पूर्वोक्त, पृष्ठ 164से166
  12. अज्ञेय, सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन, असाध्य वीणा(आँगन के पार द्वार ),भारतीय ज्ञानपीठ काशी, 1961 ई. पृष्ठ 73से88
  13.  पूर्वोक्त
  1. नवल, नंदकिशोर, निराला और मुक्तिबोध : चार लंबी कविताएँ, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2000 ई., पृष्ठ – भूमिका
  2. नवल, नंदकिशोर, मुक्तिबोध, साहित्य अकादमी प्रकाशन, दिल्ली, 1996 ई., पृष्ठ 79,80
  3. पूर्वोक्त, पृष्ठ 88
  4. सहाय, रघुवीर, आत्महत्या के विरुद्ध, राजकमल प्रकाशन नयी दिल्ली, 2009 ई.
  5. धूमिल, सुदामा पांडेय, मोचीराम, संपादक – वत्स, डाॅ राकेश एवं कुमार, संजीव, आधुनिक काव्य विविधता, इग्नू, 2010 ई., पृष्ठ 344
  6. पूर्वोक्त, पृष्ठ 345
  7. पूर्वोक्त, पृष्ठ 346
  8. पूर्वोक्त, पृष्ठ 360,361
  9. जगूडी, लीलाधर, नाटक जारी है, अक्षर प्रकाशन,दिल्ली, 1972 ई. भूमिका
  10. सिंह, रूपा,नागार्जुन की कविता कालजीवी होने के कारण ही कालजयी भी है, संपा. – पांडेय, मैनेजर, मेरे साक्षात्कार, किताबघर प्रकाशन दिल्ली , 1998 ई. पृष्ठ 45
  11. कुमार, विजय, तालाबंदी में किसी अज्ञात की खोज,प्रकाशन- समालोचन ( ब्लाग) 25 अप्रैल 2020 ई.
  12. पूर्वोक्त

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