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स्वातंत्र्योत्तर लंबी कविताओं में भारत बोध भाग-II

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प्रमथ्यु ऐसा ही पुराण पुरुष है जो मानव कल्याण के लिए स्वर्ग से आग चुरा कर पहली बार पृथ्वी पर लाता है और इस घटना के दंडस्वरुप दैनिक पीडा सहता है।उसे एक शिला से बाँध दिया गया है और प्रतिदिन एक गिद्ध उसके हृदय पिंड को नोचकर खाता है, अनवरत।

प्रमथ्यु! अंधकार को चुनौती देने का साहस है, और विश्व को प्रकाशमान करने की शुभकामना। प्रमथ्यु! स्वातंत्र्य की चेतना है, जनसाधारण में आत्मविश्वास का भाव है। प्रमथ्यु! सद्वृत्तियों की मुक्ति का आश्वासन है। प्रमथ्यु! गुण और ज्ञान के प्रति कृतज्ञता है। प्रमथ्यु एक से अनेक हृदयों में जगने वाला विश्वास है –

“अकेला मैं रहूँगा नहीं

सबके हृदयों में मैं जागूँगा

मैं – प्रमथ्यु।

कटु मैं नहीं हूँ

घृणा किससे करूँगा मैं?” 9

दुर्दांत, असहनीय पीडा के बीच भी परोपकार की सजलता में शीतल रहकर घृणा और कटुता के ताप से निर्द्वन्द्व रहना भारतीय मूल्यों का स्वराभास है।

बच्चन की लंबी कविता – दो चट्टानें अर्थात सिसिफस बरक्स हनुमान में सिसिफस युग व्याप्त चौमुखी निरर्थकता का प्रतीक बनकर उभरा है। कविता की भूमिका में बच्चन लिखते हैं –

“जैसे – जैसे मैं अपने संसार और विशेषकर अपने देश में मूल्यों के विघटन के प्रति सचेत हुआ मुझे व्यष्टि का सारा संघर्ष सिसिफस के दंड भोगने जैसा प्रतीत होने लगा।.. सिसिफस.. हनुमान.. दोनों से शक्ति संचय करना कठिन नहीं है। सृजन और जीवन सिसिफस के साथ भी संभव है, पर शांति और संजीवनी – जिसके लिए मनुष्य कम नहीं तरसता.. हनुमान के ही पास है। “10

इस तरह मूल्य विघटन के युगीन यथार्थ के प्रति चिंता तथा सृजन, जीवन, शांति. संजीवनी जैसे मूल्यों की स्थापना इस कविता को भारत बोध से जोडती है। समकालीन बोध के अनुरूप  नवीन मूल्यों की स्थापना, सार्थक परंपराओं की पुनर्स्थापना तथा शांति – संजीवनी की कामना कवि का अभीप्सित है-

“आज का युग/आज का जीवन

नया कुछ अर्थ कवि से माँगता है..

केंद्र जो ठहरा वहाँ पर।

वह सुथिर हो, संतुलित हो, शांत हो तो

शांति फैले बाहरी संसार में भी..

बनो सहभोक्ता, समीक्षक आज मेरे अनुभवों के।

युग-समस्या का तुम्हें हल दे सकूंगा।..

आज मानव-मनस

इतना खिन्न, खंडित, विश्रृंखल है

बाँध यदि उसको सकूँ कुछ देर को मैं

किसी थिर, संतुलित, निष्ठायुत समर्पित एक से तो

मनुजता की कम नहीं सेवा करूँगा। “11

विघटित होते जीवन मूल्यों को संगठित कर मनुजता की सेवा करने का संकल्प भारतीय विचार पद्धति की ही देन है।

अहं के विलीनीकरण, व्यक्तित्व का संपूर्ण समर्पण और चराचर जगत की व्यक्त – अव्यक्त अनुभूतियों में जीवन, प्रेम, और माधुर्य के संगीत की अभिव्यंजना की साध लेकर लिखी गई कविता है – असाध्य वीणा।वज्रकीर्ति के बहाने से कर्मनिष्ठा, तपस्चर्या और अविरत कृच्छ तप के सम्मान की अभिशंषा है असाध्य वीणा। प्रियंवद के माध्यम से निरभिमान, सहज निश्छल व्यक्तित्व को जीवन अमृत की प्राप्ति की गाथा है असाध्य वीणा। जनमात्र की सदिच्छा, शुभाकांक्षाओं की पूर्ति की विश्वसनीय आवाज है असाध्य वीणा।

कर्म के प्रति संपूर्ण समर्पण और अहं के विलीनीकरण से असाध्य भी साध्य हो जाता है यह संदेश असाध्य वीणा का मूल संदेश है। अहंकारी के पतन और अहं के पराभव को व्यक्त करती पंक्तियां द्रष्टव्य हैं –

“मेरे हार गये सब जाने माने कलावंत

सबकी विद्या हो गयी अकारथ, दर्प चूर” 12

इससे आगे बढने पर प्रियंवद के विगत अभिमान, सच्चे समर्पण का सौंदर्य है –

“कौन प्रियंवद है कि दंभ कर

इस अभिमंत्रित कारुवाद्य के सम्मुख आवे?

कौन बजावे…

मैं नहीं, नहीं! मैं कहीं नहीं!

ओ रे तरु! औ वन!.. नादमय संसृति..

मुझे क्षमा कर – भूल अकिंचनता को मेरी-

मुझे ओट दे-ढँक ले – छा ले-ओ शरण्य.. तू गा, “13

प्रियंवद के इस निश्छल समर्पण से असाध्य वीणा साध्य हो जाती है, दिव्य संगीत का अवतरण वहाँ उपस्थित प्राणिमात्र की मनोकामनाओं को पूर्णकाम कर देता है। ज्ञान की गुरूता के समक्ष अपनी लघुता की स्वीकृति भारतीय जीवन दृष्टि का प्रतिफल है ।

स्वातंत्र्योत्तर भारत में नैतिक पतन, युगीन विसंगतियों एवं राष्ट्रीय चरित्र को केंद्र में रखने वाली लंबी कविताओं में सर्वश्वेर दयाल सक्सेना  की – सर्पमुख के सम्मुख, तथा विजयदेव नारायण साही की-घाटी का आखिरी आदमी उल्लेखनीय है।

लंबी कविता के इतिहास में मुक्तिबोध का आगमन एक महत्वपूर्ण साहित्यिक घटना है। नंदकिशोर नवल की यह सम्मति यहाँ द्रष्टव्य है –

“निश्चय ही मुक्तिबोध के बाद की वही लंबी कविताएँ हिंदी में बचने वाली हैं, जो उनकी नकल में नहीं लिखी गई हैं, बल्कि जिनकी रचना कवि ने अपने भीतर के सृजनात्मक दबाव में आकर की है।” 14

मुक्तिबोध कृत ‘अँधेरे में ‘ कविता में दो युगपत नायक हैं।एक है देश में व्याप्त अव्यवस्था, अराजकता के प्रति क्रांति करने वाला और दूसरा उसे क्रांति के लिए प्रेरित करने वाला – रक्तालोक स्नात पुरुष। कविता की भूमि पर इन दोनों नायकों का चरित्र कुछ इस तरह खुलता है –

“पहला चरित्र.. प्रगतिशील मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी है.. भयानक आत्मसंघर्ष से गुजरते हुए और सैनिकों द्वारा दी गई यातना बर्दाश्त करते हुए वह जन-क्रांति में शामिल होता है और इस तरह देश के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वहन करता है।.. दूसरा चरित्र एक रक्तालोक स्नात पुरुष है, जो… काव्य नायक को प्रेरित करता है कि वह मध्यमवर्गीय घेरे से निकलकर सारे खतरे उठाते हुए जनसाधारण और उसकी क्रांतिकारी कार्यवाहियों से अपने को जोडे।.. इस तरह ‘अँधेरे में ‘ फासिज्म विरोधी और सर्वहारा वर्ग से एकता स्थापन द्वारा मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवी के व्यक्तित्व परिवर्तन की कविता है। “15

जनतांत्रिक अधिकारों से वंचित वर्ग का क्रूरतापूर्ण दमन और शोषण की प्रतिक्रिया में संघर्ष करना वरेण्य है ना कि जन-संघर्षों से छिपकर, बचकर ब्रह्मराक्षस बन जाना-

” ब्रह्मराक्षस को.. सफलता नहीं मिली कि वह भी जन-संघर्षों से दूर अपनी कोठरी में ही कैद रहा। “16

इस तरह समरस मानव समाज की स्थापना , स्वहित के स्थान पर सर्वहित में संघर्ष की प्रवृत्ति, ज्ञान का सुपात्र में स्थानांतरण, अभिव्यक्ति के खतरे उठाने का साहस, तथा शोषण, दमन का निषेध आदि मुक्तिबोध की रचना प्रक्रिया में भारतबोध का दिग्दर्शन कराते हैं।

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