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स्वस्थवृत्त- स्वस्थ रहने का एक उत्कृष्ट विचार भाग II

आयुर्वेद रोग निवारण का नहीं, जीवन स्वस्थ रखने का विज्ञान है। चार पुरुषार्थ से सृष्टि का अस्तित्व है – धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ! इनमें एक पुरुषार्थ – मोक्ष साध्य है तथा अन्य तीन अर्थात धर्म, अर्थ तथा काम इस चौथे पुरुषार्थ मोक्ष का साधन हैं। इन तीन पुरुषार्थों का साधन है आरोग्य ! तथा इस आरोग्य की प्राप्ति का साधन है ‘स्वस्थवृत्त’! ये स्वस्थवृत्त की संक्षिप्त व्याख्या है।

स्वस्थ वृत्त क्या है?

स्वस्थ वृत्त में पहला शब्द है, ‘स्वस्थ’। ‘स्व’ अर्थात आत्मा, उसमें स्थित रहने वाला स्वस्थ कहा जाता है।  स्वस्थ एक स्थितिवाचक शब्द है, गतिवाचक नहीं। स्वस्थ होना एक स्थिति है। उस स्थिति को प्राप्त करने के लिये क्या मात्र शरीर आवश्यक है? हाँ! शरीर आवश्यक है, परंतु शरीर के साथ इंद्रिय, मन तथा बुद्धि ये सभी भी उसी स्थिति में हों ये भी आवश्यक है, तभी व्यक्ति स्वस्थ रहता है, अन्यथा नहीं। स्वस्थ रहने के लिये शरीर की क्रियाओं का स्वस्थ रहना आवश्यक है। इंद्रियों की क्रिया व उनकी स्थिति, मन की क्रिया तथा उसकी स्थिति, बुद्धि की क्रिया तथा स्थिति, इन सभीको इस अवस्था में लाना आवश्यक है, यानि स्वस्थता को लाना आवश्यक है। शरीर, इंद्रियों, मन, तथा बुद्धि हेतु जो नियम हैं उनको वृत्त कहा जाता है। इन नियमों का जो परिणाम है उसे नाम दिया गया है – स्वस्थ वृत्त!

ये किसी एक ग्रंथ अथवा संहिता में संकलित या लिखे नहीं है। ये विभिन्न आयुर्वेद व योग के ग्रंथों में विस्तृत हैं तथा भिन्न स्थानों में इसका अनेक प्रकार से विवरण है।

स्वस्मिन् स्थान स्वास्मिन् कर्मणि स्वसु रूपे स्थीयते तत् वृतं स्वस्थवृत्तं।

जो नियम या कर्म या वृत्ति, व्यक्ति के स्वास्थ्य को अपने प्राकृतिक स्थान पर प्राकृतिक रूप में रखें तथा उन कार्यों को करते हुए स्वास्थ्य को बनाये रखें, उसे स्वस्थ-वृत्त कहते हैं।

भारतीय शास्त्रों में स्वास्थ्य तीन प्रकार का बताया गया है – शारिरिक, मानसिक तथा वैचारिक/आध्यात्मिक! शारीरिक स्वास्थ्य शरीर के स्तर पर, मानसिक स्वास्थ्य मन तथा बुद्धि के स्तर पर तथा वैचारिक/आध्यात्मिक स्वास्थ्य प्रज्ञा तथा आत्मा के स्तर पर विद्यमान माना जाता है।

अब प्रश्न ये आता है कि स्वस्थ किसे कहते है? शरीर, मन, बुद्धि, इंद्रियों का स्वास्थ्य किस तरह का है? इसके लिये आयुर्वेद बताता है कि शरीर क्या है, कैसा है, उसकी स्वस्थ स्थिति कैसी है –

‘समदोष समाग्निश्च समधातु मलक्रिया

सभी दोष, अग्नि, धातु, मलक्रिया सम हों तो शरीर की स्थिति स्वस्थ है।

तीन दोषों की समता – वात , पित्त तथा कफ ;

समस्त १३ अग्नियों की समता- पंचमहाभूतअग्नि (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश), रस रक्त आदि सप्त धातुओं की अग्नि तथा जठराग्नि ;

सप्त धातुओं की समता – रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, ओज (शुक्र अथवा रजस धातु) ;

तथा सभी मलों का पोषण, धारण तथा निर्गमन क्रियाओं की समता –

ये सभी जिसमें विद्यमान हों, उसे स्वस्थ कहते हैं। शरीर के स्तर पर ये चार बातें होनी चाहियें तो स्वास्थ्य बना रहता है।

प्रसन्नात्मेन्द्रियमना: स्वस्थ इत्याभिधीयते

आत्मा, इन्द्रिय तथा मन की प्रसन्नता जिसमें विद्यमान हो उसे स्वस्थ कहा जाता है। इस प्रकार ऊपर बताये गये त्रिदोष, अग्नि, धातु, मलक्रिया सम हों तथा आत्मा, इन्द्रिय तथा मन प्रसन्न अवस्था में हों तो व्यक्ति स्वस्थ है।

यह सर्वाधिक सारगर्भित स्वास्थ्य की परिभाषा सुश्रुत ने दी है। भाव मिश्र ने भाव प्रकाश में स्वस्थ के  चौदह लक्षणों का वर्णन किया है। इसी प्रकार चरक ने भी स्वस्थ की व्यापक परिभाषा दी है:

नरो हिताहार विहारसेवी समीक्ष्यकारी विषयेश्वसक्तः।

दाता समः सत्यपरः क्षमावानाप्तोवसेवी च भवत्यरोगः।

हितकर आहार-विहार का सेवन करने वाला, सोच-विचार कर उसके अनुसार कर्म करने वाला, जो विषयों में न फँसा हो (अपनी इंद्रियों का दास न हो, अर्थात प्रसन्नचित्त हो), सभी प्राणियों के प्रति एक-समान भाव रखने वाला, मन वचन तथा कर्म से सत्य का सर्वदा पालन करने वाला, क्षमाशील, विद्वानों व सज्जनों का संग करने वाला व्यक्ति स्वस्थ रहता है।

इसके लिये जो नियम बने कि कौन सी क्रियाएं कौन सा आहार-विहार करने से शरीर के दोष, धातु, अग्नि, मलक्रिया सम रहे तथा कौन सी क्रियाएं , कौन सा आहार-विहार करने से आत्मा, मन व बुद्धि प्रसन्न रहे – वे सभी स्वस्थ वृत्त के नियम के अंतर्गत आती हैं। जो क्रियाएं अथवा आहार-विहार इन नियमो के विपरीत होता है, वह निषिद्ध की श्रेणी में आता है। जैसे –

तत्र खलविमान्यष्टाहारविधिविशेषायतनानि भवन्ति: तद्यथा –

प्रकृतिकरणसंयोगराशिदेश कालोपयोग संस्थोपयोक्त्रष्टमानि। (च. वि. 12)

चरक द्वारा बताये गये अष्टायतन – प्रकृति, करण (संस्कार), संयोग, राशि (मात्रा), देश, काल (समय), उपयोक्त (आहार का सेवन करने वाला) तथा उपयोग संस्था – के विपरीत क्रिया तथा आहार-विहार को विधि-विरुद्ध कहा जाता है।

सूचन: यदि आप यह लेख-श्रृखंला एक साथ पढ़ना चाहें तो यहाँ तो पढ़ सकते हैं.

image credit: picxy.com

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