close logo

संस्कृति की संरक्षिका नारी- भाग २

पिछला भाग

अब पूरी तस्वीर ये बनती है कि समाज में बेटी के जन्म से दुखी होने, इसे बुरा मानने की प्रवृत्ति को एक सीमा से अधिक बढ़ने से रोकने के लिए उसी समाज के भीतर एक लोकविश्वास उभरता है। बेटी के जन्म लेने पर माँ-बाप तथा परिजन दुखी और चिंतित क्यों होते हैं? इसे जाने बिना इस मुद्दे के साथ न्याय नहीं होगा। यह चर्चा आगे की जाएगी, जब इसके कारणों को स्पष्ट करने वाली बातें हो चुकी होंगी। बेटी के पैदा होने के बाद उसे मार डालने की कोशिश या इच्छा गीतों में नहीं पाई जाती। जन्म लेने के बाद बेटी भी माँ के लिए अपने ही रक्त से सींचकर पैदा की गई संतान है। वह अपनी बाल-लीलाओं से माँ-बाप के हृदय को आनंदित करती है। उसके प्यार-दुलार में माँ-बाप जीवन की तमाम कष्ट, कुछ ही समय के लिए सही, बिसार देते हैं।

यह भारतीय परंपरा द्वारा अनुमोदित स्पेस है। आधुनिकता के आने के साथ आदर्श भारतीय परिवार की आदर्श स्त्री बनाने के अभियान के साथ और इसके बाद यह स्पेस घटा है। स्पेस स्त्री बनाने का, स्पेस लोक-गीतों का। समय के साथ चलने का होड़ लगाता मानव-तर्क चाहे कहे कुछ भी, परन्तु लोक-जीवन, लोक-साहित्य और लोक गीतों का स्वरूप् विकसित ही हुआ है। समृद्ध ही हुआ है। लोक-गीत और लोक-अस्तित्व आधुनिक तार्किक सोच नहीं हैं। इन्हें वर्षों पहले परिभाषित भी किया गया था और पोषित भी। ऋग्वेद के सुप्रसिद्ध पुरुष सूक्त में ‘लोक’ शब्द का व्यवहार जीवन तथा स्थान दोनों अर्थों में किया जाता है। ऐसे असंख्य उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि सामान्य जीवन एवं स्थान से जुड़े संगीत को लोक-संगीत कहा जाता है। लगभग सभी भाषाओं या बोलियों का अधिकांश लोक-संगीत लिखित कम, मौखिक अधिक है। गेय विरासत के रूप में लोक-संगीत पीढ़ियों को हस्तांतरित होते रहने वाला  जन-जीवन का दर्पण होता है। जनता के हृदय का उद्गार होता है। ग्रामीण जनता संस्कारों, ऋतुओं, पूजा-व्रतों, विभिन्न कार्यकलापों आदि के अवसर पर जब अपने मन की भावनाओं का उद्गाार गाकर करती है तो अनायास ही लोक-संगीत का सृजन हो जाता है। लोक-संगीत सभ्यताओं, संस्कारों को समृद्ध करने के साथ-साथ बोलियों, भाषाओं को भी एक पहचान देने में सक्षम है। भोजपुरी लोक-संगीत को अपनी सरसता, मादकता, समृद्धि, उन्माद, अपनापन, ठेंठपन आदि के कारण सबसे समृद्ध कहा जा सकता है। जन-जन में अपनी प्रचुरता एवं व्यापकता के कारण भोजपुरी लोक-संगीत की प्रधानता स्वाभाविक है।

मजूरी कई के

हम मजूरी कई के

जी हजूरी कई के

अपने सइयाँ केऽऽ

अपने बलमा के पढ़ाइब

मजूरी कई के।।

भोजपुरी पूरब की बोली है। पूरब! जहाँ की मिट्टी सदानीरा सरीताओं की तरंगों और रसों से आप्लावित रहती है। जब मिट्टी ही सरस होगी तो संगीत का सुर सरस क्यों नहीं होगा? जब सरसता, मादकता , सौंदर्य, प्रेम, ममता, समर्पण, परिश्रम, जीवटता, जीवन आदि की बात आए तो जीवन देने वाली, जीवन भोगने वाली और जीवन बनाने वाली नारी कैसे बच पाएगी? कृ नारी तो जीवन का आधार है। लोक-संस्कृति, लोक-संस्कार, लोक-जीवन नारी से है, तो लोक-संगीत उसके बिना कैसे हो सकता?

कुछ वर्षों पहले मैं अपने शहर में हमेशा सिनेमा देखने जाया करता था। एक चित्र मंदिर में तो लगभग एक वर्ष से सिनेमा शुरू होने के पहले एक ही विज्ञापन दिखाया जाता था। मैं उस विज्ञापन को देखते-देखते ऊब गया था, परन्तु उसके शब्दों में डूब गया था। वॉयस-ओवर के एक-एक शब्द मस्तिष्क में चित्र बनाने लगते थे। नारी! प्रकृति की अनुपम कृति। प्रेम और सौंदर्य की प्रतिमूर्ति! कृ ममता और स्नेह का साकार रूप।

तब जयशंकर प्रसाद की पंक्तियाँ जबान पर जुगाली करने लगतीं –

नारी तुम केवल श्रद्धा हो,

विश्वास रजत नग-पद-तल में।

पियुष-स्रोत सी बहा करो

जीवन के सुन्दर समतल में।।

नारी चर्चा के बिना कोई भी लोक-संगीत को शून्य कहा जा सकता है। भोजपुरी-संगीत में भी नारी के विविध रूपों का वर्णन देखा जा सकता है। भोजपुरी का श्रृंगाार, करुण, वीर, हास्य, निर्गुण संगीत हो या आधुनिक फिल्मी ठुमका, सारे झाँझ, पखावज, हारमोनियम, बैंजू, गिटार नारी के आस-पास ही स्वर-साधना करते हैं। सोहर में नारी के एक रूप को देखें –

मचीया बइठल मोरे सास

सगरी गुन आगर हेऽ।

ए बहुअर, ऊठऽ नाही पनीया के जावहु

चुचुहीया एक बोलेलेऽ हेऽ।।

भोजपुरी लोक-संगीत में वर्णन चाहे ऋतुओं का हो या व्रतों का, देवताओं का हो या संस्कारों का, जातियों का हो या श्रमों-कर्मों का, हर संगीत में नारी के हर रूप को पाया जा सकता है। भोजपुरी-क्षेत्र में होने वाले सभी व्रत-त्योहारों में नारी के पावन रूप का वर्णन आयास ही देखा जा सकता है। व्रत-त्योहार तो वैसे ही स्त्री के निष्ठा के प्रतीक हैं। फिर उनसे स्त्री  अलग कैसे हो सकती है? भोजपुरी मिट्टी के सबसे पावन व्रत छठ में करुणा से सनी, छठ माता के आशीष की आग्रही नारी का एक चित्रण –

पटुका पसारि भीखि माँगेली बालकवा के माई

हमके बालकऽ भीखि दींहि, ए छठी मइया

हमके बालकऽ भीखि दींहि।

हम कह सकते हैं कि नारी चैता की विरह है। लोरी की थाप है। निर्गुण का छंद है। कँहरवा की पीड़ा है। पचरा की भक्तिन है। आल्हा की मर्दानगी है। फगुआ की मांसलता है। छठ की सुशीलता है। विदाई की अश्रुधारा है। सोहर की सद्यः-प्रसुता है। बिरहा की अलाप है। झूमर की भाव व्यंजना नारी है। जँतसार की ध्वन्यात्म राग भी नारी ही है। नारी बारहमासा का वर्णन है। निर्धनता की आह नारी व्यक्त करती है। रिश्तों की डोर नारी संभालती है। भोजपुरी के किसी भी लोक-संगीत की बात की जाए, नारी का रूप पहले झलकता है। ननद-भौजाई का व्यंग्य हो या सासु का शासन, देवर की छेड़छाड़ या जेठ की बदमाशियाँ, नारी की उपस्थिति मात्र से ही लोक-संगीत में इनका वर्णन संभव हो जाता है।

कुँआरी लड़कियाँ भाई के शुभ के लिए कार्तिक मास में पिड़िया का व्रत रहती हैं तो माताएँ पुत्र की रक्षा के लिए जिउतिया। पत्नियाँ अपने सुहाग की रक्षा के लिए तीज का व्रत रहती हैं तो नारियों में बहुरा और पनढरकउवा आदि भी व्रत-त्योहार रहती हैं। नारी के माध्यम से भोजपुरी लोक-संगीत में जन-जीवन के आर्थिक पक्ष की झाँकी भी प्रस्तुत की जाती रही है-

सोने के थाली में जेवना परोसलों,

जेवना ना जेवें अलबेला,

बलम कलकत्ता निकल गयो जीऽऽ।

भोजपुरी लोक साहित्य में नारी का जो चित्रण किया गया है वह मांसल, मादक और आकर्षक होने के साथ-साथ सरस, शिष्ट और सभ्य भी है। पति-पत्नी, भाई-बहन, माता-पुत्री, ननद-भौजाई, सास-बहु का जो वर्णन हमारे सामने उपलब्ध होता है, उससे समाज में नारी का विविध चित्र अंकित हो जाता है। नारी के जिन रूपों का शुद्ध एवं सत्य वर्णन भोजपुरी लोग-संगीत में पाया जाता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।

समय के साथ बदलाव की बयार का गंध सब सूँघ रहें हैं। भोजपुरी का लोक-संगीत भी इससे अछुता नहीं है। व्यावसायिकता और बाजारू संस्कृति ने लोक-संगीत को कुछ रंगीन कर दिया है। भोजपुरी लोक-संगीत पर भी आधुनिकीकरण का मुलम्मा चढ़ाकर बाजार में परोसा जा रहा है। मांसलता के वर्चस्व के साथ ही सरसता को भी नहीं बिसारा गया है। भोजपुरी भाषा, भाव और संगीत में भी नित नए जीविकोपार्जन के अवसर सृजित किए जा रहे हैं। नारी रूपों के विविध वर्णन से ही भोजपुरी के लोक-संगीत का अतीत तो समृद्ध है ही, वर्तमान में रोजगार के अवसर उपलब्ध रहे हैं। इस आधार पर कह सकते है कि आने वाला कल हमारा अत्यंत उज्ज्वल है। सच ही प्रत्येक सफलता के पीछे नारी का हाथ होता है। इसे मानने के साथ ही स्वीकार करने की भी क्षमता रखनी पड़ेगी। नारी से ही तो यह सृष्टि है। भोजपुरी लोकगीतों के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो उस नारी की प्रासंगिकता अधिक समृद्ध और सार्थक दृष्टिगत होती है।

Disclaimer: The opinions expressed in this article belong to the author. Indic Today is neither responsible nor liable for the accuracy, completeness, suitability, or validity of any information in the article.