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संस्कृति की संरक्षिका नारी- भाग १

भारतीय संस्कृति विविधता की संस्कृति है। संस्कृति की विविधता हर क्षेत्र-परिक्षेत्र में दृष्टिगत होती है। ऐसे ही भोजपुरी क्षेत्र में देखें तो यहाँ विचार और व्यवहार में पूरी तरह से विविधता देखी जाती है। यही विविधता तो भारतीय और भोजपुरिया संस्कृति की विशिष्टता है। इसे किसी निश्चित ढाँचे में नहीं गढ़ा जा सकता। इस बलखाती अल्हड़ नदी को किसी बाँध से नहीं घेरा जा सकता। यह तो उस वसंती हवा सी स्वतंत्र है जो अपनी ही मानती है। इसे किसी दिशा-निर्देश का अर्थ नहीं पता। इसका कोई गुरू नहीं है। इसे किसी का गुरूर नहीं है। यह तो बस जन मानस के अंतस से निकली पवित्र मानसिकता और सरस सोच को दर्शाती है। हम अपनी सांस्कृतिक समृद्धि और उपलब्धियों पर मुग्ध होकर केवल वाहवाही ही नहीं देते, इसके साथ ही जीवन-जगत से उसके संबंध को और तमाम सांस्कृतिक घटकों के आपस के संबंध को पूरी तरह जोड़ते भी हैं। समझते भी हैं। संबंधों का दायरा केवल कुनबे और आस-पड़ोस तक ही नहीं होता, दूर गाँव के ‘फलाने’ भी काका, चाचा, भाई आदि कहे जाते हैं। इस लेखा को मैं भोजपुरी संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत कर रहा हूँ।

भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो लोक और लिखित परंपरा में रामायण-महाभारत के सैकड़ों रूप हैं। लोक और शास्त्र के गुणात्मक योग से फलित भक्ति साहित्य ने तो खैर एक नया त्रिकोण ही रच दिया। यदि लोक और शास्त्र को ही केंद्र मानें, तो ये रचनाएँ इन दोनों केंद्रों के बीच ऐसे स्थित हैं कि लोक-मर्मज्ञ इन्हें लोक-परंपरा के ज्ञान एवं साहित्य का लिखित रूप करार देंगे और शास्त्र-ज्ञानी इन्हीं रचनाओं को शास्त्रीय ज्ञान एवं शिष्ट साहित्य का लोकोपयोगी संस्करण कहेगा। मनुष्य सामाजिक प्राणी तो है, परन्तु उसके सारे सपने और उसकी सभी इच्छाएँ समाज और इतिहास में पूरी नहीं होतीं। मनुष्य के स्वप्न और उसकी इच्छाएँ समाज और इतिहास से प्रभावित तो होती हैं, लेकिन इनसे बँधी नही होतीं। इसलिए वह ‘स्पष्ट लोक स्रष्टा’ है। इतिहास का कोई काल-खंड हो या समाज में व्याप्त कोई भी विचारधारा, स्त्री-पुरुष में भेदभाव स्पष्ट परिलक्षित होता रहा है। जहाँ पुरुष अपने सपनों पर नगरों, महलों और नवीन राजवंशों का उदय करता रहा है, वहीं स्त्रियों के सपने और उनकी इच्छाएँ लोकगीतों में दर्ज हैं।  इस मायने से लोक-साहित्य और समृद्ध होने के साथ-साथ प्राचीन होने हुए भी नवीन चिंतन का केंद्र बन जाता है।

मैं अपने माता-पिता की सबसे छोटी संतान हूँ जिसके कारण उनसे मेरी सन्निकटता उनके प्रौढ़ा अवस्था से उनके वृद्धा अवस्था तक बनी रही। मैं अनगिनत बार अनुभव करता था कि माँ जग किसी विषम परिस्थिति से गुजर रही होती तो गीत गाती थी। वे गीत केवल गीत न होकर उसके अंतर की पीड़ा होते थे। मुझे स्पष्ट रूप से याद है कि तब वह गाते हुए कम, रोते हुए अधिक लगती थी। किसी विषम-परिस्थिति में वह स्वयं को द्रौपदी की तरह प्रस्तुत करते हुए गाती कि –

अब पति राखीं ना हमारी जी,

मुरली वाले घनश्याम।

बीच सभा में द्रोपदी पुकारे

चारू ओरिया रउरे के निहारे

दुष्ट दुशासन खींचत बाड़ें

देहिंया पर के साड़ी जी,

मुरली वाले घनश्याम।

 माँ मुझे सुलाते समय शाम-सकारे अक्सर गीत गाया करती थी। उनके गीतों के बोल से ही मैं उनके मन के हर्ष-उल्लास, पीड़ा-वेदना समझ जाता था। जब वे सहज होंती तो उनका सबसे प्रिय गाना होता शृंगार-प्रेम से युक्त गाना होता –

अजब राउर झाँकी ये रघुनन्दन।

हिरफिर-हिरफिर एक मनवा करे

रउरे ओरिया ताकी  ये रघुनन्दन।।

मोर मुकुट मकराकृत कुण्डल

पैजनिया बाजे बाँकी ये रघुनन्दन।।

मैं तो लोक गीतों और साहित्य की समृद्धि में सबसे अधिक स्त्री के ही योगदान को मानूँगा। मैं उदाहरण के रूप में अपनी माँ को रखते हुए कहूँ तो किसी पर्व-त्योहार के अवसर पर जब भैया लोग घर नहीं आ पाते या आने में विलंब हो जाता तो माँ पूर्णतः कौशल्या बन जाती। वह कौशल्या, जिसके राम को समय रूपी कैकेयी ने वन भेज दिया है। तब तो माँ गाते-गाते अपने इतना रोतीं थी कि आवाज बैठ जाती –

केकई बड़ा कठिन तूँ कइलू

राम के बनवा भेजलू ना।

हो हमरो केवल हो करेजवा

तुहू काढियो लेहलू ना।

हमरा राम हो लखन के

तुहू बनवा भेजलु ना।

हमरा सीतली हो पतोहिया

के तूँ बनवा भेजलू ना।

केकई बड़ा कठिन तूँ कइलू

राम के बनवा भेजलू ना।

तब मैं भी उनसे छुपकर उनके दर्द भरे गीतों को सुनता और पलकों से टपकने को तैयार आंसुओं को पोंछकर कहीं दूर हट जाना चाहता। लोकगीतों को बार-बार सुनकर और इनमें आए मुद्दों पर उनकी सोच और उनकी संवेदना को तो नहीं, पर अपनी माँ को एक केंद्र मानकर बहुत कुछ समझ पाया हूँ। तब भोजपुरी लोकगीतों में नारी की प्रासंगिकता समझ में आती है। मुझे विश्वास है कि लोकगीतों का मर्म समझने वाला हर व्यक्ति इस अनुभव से गुजरेगा। स्त्री लोकगीतों का स्वभाव है कि उसमें बहुत बड़ी बातें प्रायः साधारण घटना प्रसंगों के जरिए, लेकिन अनुभूति की गहनता के साथ, कही जाती हैं। गीत के अंत में एक-दो ऐसी पंक्तियाँ आ जाती हैं, जो पहले के साधारण घटना प्रसंगों को असाधारण रूप से महत्वपूर्ण बना देती हैं। लोकगीतों में जीवन-जगत के बड़े तथ्य वस्तुनिष्ठ सहसंबंध के सहारे कहे जाते हैं। औपनिवेशिक आधुनिकता के पहले सृष्टि और समाज तो क्या, परिवार की भारतीय अवधारणा भी केवल मनुष्य केंद्रित नहीं रही है। उस समय मनुष्य की भौतिक सुख-समृद्धि के लिए तमाम प्राकृतिक उपादानों के बेहिसाब दोहन की परंपरा भी नहीं रही, बल्कि प्राकृतिक अवयवों के संग प्रेम, पारस्परिकता एवं सहनिर्भरता का जीवन जीने पर जोर रहा है। इसीलिए हमारे यहाँ गंगा मइया हैं, विंध्याचल देवी हैं और लगभग सभी प्रजाति के पेड़ों पर किसी देवता का वास माना जाता है।

लोकगीतों में नारी अपने हर रूप में प्रासंगिक दिखती है। नवजात कन्या, युवती बेटी, बहन, पत्नी, माँ आदि हर रूप से नारी ने हमारे लोक-जीवन के साथ अपने सुख-दुःख को भोगते हुए लोक-गीतों को सँवारा है, समृद्ध किया है। भले कोई खुले कंठ से न स्वीकार करे परन्तु आज भी बहुत से लोग है कि जब घर में बेटी का जन्म होता है, उन्हें लगता है, जैसे जीवन में अँधेरा छा गया हो। माँ खुद को कोसती है कि यदि वो पहले जान पाती कि बेटी पैदा होगी, तो कोई जतन करके उसे पेट में ही मार डालती। बेटी पैदा होने की खबर पाकर पिता मुँह लटकाए, मुरझाया हुआ फिरता है। ये बातें स्त्रियों द्वारा गाए जाने वाले गीतों में भी आई हैं –

जब मोरे बेटी हो लीहलीं जनमवाँ

अरे चारों ओरियाँ घेरले अन्हार रे ललनवाँ

सासु ननद घरे दीयनो ना जरे

अरे आपन प्रभु चलें मुरुझाई रे ललनवाँ।

Feature Image Credit: dainikbhaskar.com

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