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भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अनछुए पक्ष भाग-३

अंग्रेज़ों का धैर्य अब जवाब दे चुका था, एवं बुधु भगत के नेतृत्व में आदिवासी समाज के मन में स्वतंत्रता की भावना ने घर कर लिया था तथा जनाक्रोश बढ़ता ही जा रहा था। बुधु भगत एवं उनके समर्थकों नें अंग्रेज़ों की नींव हिलाकर रख दी थी। उनके द्वारा बुधु भगत को पकड़ने के सारे प्रयास विफल हो रहे थे। अतः अंग्रेज़ों ने बुधु भगत के सहयोगियों को पकड़ना एवं जान से मारना आरंभ किया। एक फरवरी 1832 की रात को सात आंदोलनकारियों को, जो  टिको पोखराटोली से सटे बगीचा में बैठकर आंदोलन की रणनीति बना रहे थे, अंग्रेज़ों नें धर दबोचा एवं निकट के ही जोड़ाबर में सातों को बरगद के दो पेड़ों से रस्सी में बांध कर गला काटकर हत्या कर दी, जिससे कि जनता में भय आए। परंतु फिर भी अंग्रेज़ आदिवासियों का मनोबल नहीं तोड़ पाए।

इन सब घटनाओं से हताश एवं हतप्रभ अंग्रेज़ अधिकारियों नें ये समझ लिया था कि अपने सैन्य शक्ति से वे बुधु भगत के नेतृत्व में आदिवासियों के आंदोलन को नहीं रोक सकते। अतः उन्होंने दानापुर, बनारस एवं अन्य सैन्य स्थानों से अतिरिक्त थल एवं घुड़सवार सेना की मांग की। फरवरी के आरंभ में ही छोटानागपुर की यह धरती सैनिकों, घुड़सवारों एवं अंग्रेज अफसर से भर गई। बुधु भगत को जीवित या मृत पकड़ने का काम कैप्टन इंपे को सौंपा गया। बनारस की पचासवीं देसी पैदल सेना की छ: कंपनी तथा घुड़सवार सैनिकों का एक बड़ा दल जंगल में भेज दिया गया। अतिरिक्त सेना के आने के पश्चात कैप्टन इम्पे ने अपनी पहली कार्यवाई टिक्कू नामक स्थान में की। वह अपनी विशाल सेना लेकर 10 फरवरी 1832 को टिक्कू पहुंचा, जो बुधु भगत का कार्यक्षेत्र था। वहाँ प्रत्येक घर में बुधू भगत को खोजा गया, परंतु वह नहीं मिले। तत्पश्चात निराश एवं हताश कैप्टन इंपे के आदेश पर सैनिकों नें टिक्कू में आगजनी एवं नरसंहार आरंभ कर दिया, एवं लगभग चार हजार ग्रामीणों को बंदी बना लिया गया। कैप्टन इंपे नें इसकी सुचना पिठोरिया शिविर को दी एवं बंदियों को लेकर पिठोरिया प्रस्थान करने लगे। बदलते हुए घटनाक्रम में माह फरवरी में पहाड़ियों और घाटियों के रास्ते में आंधी बरसात नें ग्रामीणों को सैनिकों से मुक्त करवा दिया।

टिक्कू की हृदयविदारक घटना ज्ञात होने पर 13 फरवरी 1832 को बुधु भगत अपने साथियों को सतर्क करने के लिए सिलागाई पहुँचे। उन्हें ज्ञात था कि अंग्रेज़ों का अगला निशाना सिलागाई ही होगा। झुंझलाये कैप्टन इंपे को जब यह सूचना मिली, तो उसने चार कम्पनियां के बंदूकों से लैस सैनिकों एवं घुड़सवारों के दल के साथ सिलागाई गाँव को चारों ओर से घेर लिया। वीर बुधु भगत को भी अपने लोगों से पहले ही इस बात का पता चल गया था। उन्होंने अपने लोगों को तैयार रहने के लिए कहा.और अंग्रेजों पर वार करने की योजना उनके द्वारा बनाई गई। अंग्रेज़ सैनिकों का घेरा धीरे-धीरे गांव की ओर कसता जा रहा था, जिससे कोई भी ग्रामीण या बुधु भगत चकमा देकर भाग नहीं सकते थे। ग्रामीण भी बुधु भगत को लेकर इस चक्रव्यूह को भेद भाग निकलने का विफल प्रयास कर रहे थे। उस दिन बुधु भगत के नेतृत्व में अंग्रेज़ों को आदिवासियों के तीव्र विरोध का सामना करना पड़ा। आदिवासियों नें अंग्रेज़ सैनिकों के बंदूक एवं गोलियों के सामने अपने परंपरागत हथियारों से उनका डटकर सामना किया। उन्होनें धनुष पर तीर चढ़ा तीरों की बौछार आरंभ कर दी। कई लोगों नें टांगी एवं तलवार से अंग्रेज़ों का मुकाबला किया। अंग्रेज़ों नें अमानवीय तरीकों से आदिवासियों पर अंधाधुंध गोलियां चलाईं।  बच्चों, बुजुर्गों, महिलाओं एवं युवकों के भीषण चीत्कार से उस दिन सिलागाई गाँव का क्षेत्र काँप उठा था।

ग्रामीणों के साथ बुधु भगत भी चारों ओर से अंग्रेज सैनिकों से घिर चुके थे। वह जानते थे कि अंग्रेज़ों द्वारा फायरिंग की जाएगी एवं इसमें बेगुनाह ग्रामीणों की भी मौत हो सकती है। इसलिए उन्होंने अंग्रेज़ों के समक्ष आत्मसमर्पण करने का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव को अंग्रेज अधिकारीयों नें ठुकरा दिया। तत्पश्चात बुधु भगत के समर्थकों ने अंग्रेज़ों की गोलियों से उन्हें बचाने के लिए उनके चारों ओर एक घेरा बना लिया। कैप्टन इंपे के द्वारा चेतावनी के पश्चात बुधु भगत और ग्रामीणों को घेरकर गोलियां चलाने के आदेश दे दिए गए। इस गोलीबारी में बुधु भगत के इर्द गिर्द वृताकार घेरा बनाए हुए उनके अनेक समर्थक शहीद हो गए, परंतु किसी ने भी उनका साथ नहीं छोड़ा। आदिवासियों की तीर धनुष और कुल्हाड़ी अंग्रेजों की बंदूक और पिस्तौल के सामने टिक नहीं पाई और कई ग्रामीण अंग्रेजों की क्रूरता के शिकार हो गए। देखते ही देखते कोल विद्रोह में लगभग 300 से अधिक लाशें बिछ गयीं। हज़ारों घर एवं किसानों के अनाज भी अंग्रेज़ सैनिकों द्वारा जला दिए गए। इस घेराबंदी में वीर बुधु भगत के दो वीर पुत्र, हलधर और गिरधर एवं दो वीर पुत्रियां रुनकी और झुनकी भी अंग्रेजों का सामना करते हुए शहीद हुईं।

इन कारणों से बुधु भगत अंदर से कमजोर पड़ गये थे। 13 फरवरी 1832 ई. को कोल विद्रोह के महानायक वीर बुधु भगत अंग्रेजों से लड़ाई लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। अंग्रेज़ों की क्रूरता यहीं पर समाप्त नहीं हुई। उन्हें ज्ञात था की बुधु भगत का आदिवासियों में बहुत प्रभाव था एवं वे उन्हें भगवान की तरह मानते थे। अतः आदिवासियों के मन में भय उत्पन्न करने हेतु उन्होंने पिठोरिया के शिविर में अमानवीय कार्य करते हुए शहीद बुधु भगत, उनके छोटे भाई एवं भतीजे का कटा हुआ सिर महानायक के अंतिम दर्शन के लिए रखा, जिसमें हज़ारों की संख्या में आदिवासी समाज के लोग उपस्थित हुए। भारत के इतिहास एवं स्वाधीनता संग्राम में बुधु भगत का योगदान कभी भी भुलाया नहीं जा सकता है, जिन्होनें अपने बलबूते पर आदिवासियों का एक मज़बूत एवं अटूट संगठन खड़ा कर दिया था, जिससे अंग्रेज़ भी थर्राते थे। साहसपूर्ण लड़ते हुए उन्होंने अन्य ग्रामीणों के साथ अंग्रेज़ों के छक्के छुड़ा दिए थे। भारत उनकी अदम्य साहस, वीरता, नेतृत्व, जन्मभूमि के प्रति प्रेम को कभी नहीं भुला सकता है। उनका यह बलिदान सदा याद रखा जाएगा। परंतु यह भी सत्य है की वीर शहीद बुधु भगत को भारत के स्वाधीनता संग्राम एवं इतिहास में वह जगह नहीं मिली ,जिसके वे वास्तविक अधिकारी थे। उनके इस अदम्य साहस एवं देश के लिए प्राण त्यागने को भुला दिया गया। लोगों को तो शहीद बुधु भगत जी का नाम तक पता नहीं होगा। बुधु भगत का यह बलिदान व्यर्थ नहीं रहा। अंग्रेज़ों के शोषण के विरुद्ध कोल का यह संगठित रूप अन्य आदिवासियों के लिए प्रेरणा का एक श्रोत बना। इसके बाद इस क्षेत्र में संथालों का भी व्यापक आंदोलन आरंभ हुआ। असमानता और शोषण के विरूद्ध संघर्ष विद्रोह के बाद भी जारी रहा। यह भी जानने योग्य बात है कि कोल आंदोलन के कारण ही भूमि सुरक्षा के लिए सीएनटी एक्ट बनाया गया।

Feature Image Credit: wikipedia.org

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