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भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अनछुए पक्ष भाग-२

भारत में झारखण्ड, उड़ीसा, बिहार और छत्तीसगढ़ राज्य में स्थित चट्टानों से बना हुआ एक पठार है छोटानागपुर, जिसका अधिकतर हिस्सा झारखंड राज्य में आता है। आदिवासी छोटानागपुर के मूल निवासी रहे हैं। इनकी जीविका मुख्यतः खेती एवं वन के कंद फलों से चलती थी। पठार के बंजर ज़मीन को अपने परिश्रम से उपजाऊ बनाकर आदिवासी खेती किया करते थे। इन क्षेत्रों में मुग़ल काल में व्यापारी एवं अन्य लोग भी आ कर बसने लगे थे। इन लोगों ने धीरे धीरे आदिवासियों के ज़मीनों को हरपना शुरू कर दिया एवं उनका शोषण भी करने लगे। चूँकि मुग़ल शासक इन क्षेत्रो पर उतना ध्यान नहीं देते थे, क्योंकि उस वक़्त मुग़ल शासन कमज़ोर पड़ चूका था, अतः उस वक़्त आदिवासियों के जीवन शैली पर इसका कोई प्रारंभिक व्यापक परिणाम नहीं पड़ा। अंग्रेज़ों ने भारत में आने के बाद बंगाल में अपने शासन की स्थापना की, जिसके बाद इन आदिवासियों के जीवन में महत्वपूर्ण परिवर्तन आया। जिस प्रकार अंग्रेज़ों ने 1857 की क्रांति को छुपाने हेतु उसे विद्रोह बताया, उसी प्रकार अंग्रेज़ों द्वारा यह कहा गया की कोल आंदोलन अंग्रेज़ों के अत्याचार के विरुद्ध नहीं, अपितु साहूकारों, जागीरदारों एवं ज़मींदारों के विरुद्ध था। सही मायने में अंग्रेज़ों ने यहाँ आने के बाद छोटानागपुर के राजाओं  एवं रजवारों से भी मालगुजारी वसूलना प्रारंभ कर दिया था, जिसका प्रभाव सामान्य व्यक्ति पर भी पड़ना स्वाभाविक था, क्योंकि फसलें अंततः उन्हीं के द्वारा उगाई जाती हैं। इसके साथ ही लगान की व्यवस्था का आरंभ हुआ एवं लगान न चुकाने पर आदिवासियों की ज़मीनें हड़प ली गईं एवं उनके साथ आर्थिक, मानसिक एवं शारीरिक शोषण किया जाने लगा। आदिवासी समाज इस शोषण के सामने निःसहाय था। अंग्रेज़ों द्वारा आदिवासियों की ज़मीनें भी गैर आदिवासियों को दी जाने लगीं। आदिवासी इलाकों में उस वक़्त अंग्रेज़ हुकूमत की बर्बरता अपने चरम पर थी। इस सन्दर्भ में उरांवों के मन में भी बागी तेवर आना स्वभाविक था। उन्हें आवश्यकता थी, तो एक नेतृत्व की, जो उन्हें बुधु भगत में मिली।

बुधु भगत ने कभी भी अन्याय को सहन नहीं किया था। उन्होंने बचपन से ही जमींदारों और अंग्रेज़ी सेना की क्रूरता को देखा था। अपने लोगों पर हो रहे इन अत्याचारों ने बुधु भगत के मन में अंग्रेज़ों, ज़मींदारों, साहूकारों के प्रति विद्रोह को जन्म दिया। वो देखते थे की फसल तैयार होने पर उसे जबरदस्ती उखाड़ लिया जाता था एवं गरीब लाचार आदिवासी कुछ नहीं कर पाते थे। उन्होंने हमेशा ये देखा की उनके गांव वाले, जो मुख्यतः गरीब ही थे, एवं उनके जीविकोपार्जन का साधन उनके द्वारा उगाए गए अन्न के अलावा कुछ नहीं था, उन ग्रामीणों के घर इन क्रूरताओं के कारण कई-कई दिनों तक चूल्हा नहीं जल पाता था एवं महिलाओं, बच्चों, बुजुर्गों को भूखा ही सोना पड़ता था। अपने गांव के कोयल नदी के किनारे बुधु भगत कई घंटों इन बातों को सोचते एवं अकेले तलवार चलाने एवं धनुर्विद्या में निपुणता प्राप्त किया करते थे। उन्होंने अपने इस निपुणता को अंग्रेज़ों के विरुद्ध युद्ध में प्रयोग किया।

समय के साथ साथ अपनी कुशलता और निपुणता के कारण आदिवासियों ने उनमें अपने नेता को देखा, जो इन सारे अत्याचारों के विरुद्ध अपने नेतृत्व में कुछ कर सकता था। अंग्रेजी शासन की क्रूरता के विरुद्ध जब सैकड़ो की संख्या में आदिवासियों ने उनसे लोहा लेने का संकल्प लिया, तो उन्हें वीर बुधु भगत में एक नेतृत्वकर्ता मिला। आदिवासियों ने उनसे अन्याय के विरुद्ध लड़ने के लिए आह्वान किया। आदिवासियों के आग्रह पर एवं अपने मन की आवाज़ को सुन वीर बुधु भगत ने अपना एक समूह बनाने की ठानी। उन्होंने सिल्ली, लोहरदगा, चोरेया, पलामू, पिठौरिया इत्यादि इलाकों में अपने समूह के गठन का कार्य किया एवं एक मजबूत संगठन बनाया। सभी लोग उनके साथ अपने पारंपरिक औज़ारों जैसे तीर, धनुष, तलवार, कुल्हाड़ी इत्यादि लेकर साथ देने के लिए खड़े हो गए। उनके पास अब आदिवासियों का पर्याप्त जन समर्थन बन चूका था। सबने साथ मिलकर पूरी ताकत एवं शौर्य से अंग्रेज़ों का सामना किया। इस दौरान बुधु भगत ने अन्य लोगों के साथ मिलकर अंग्रेज़ कैप्टन इंपे द्वारा बंदी बनाए गए सैकड़ों ग्रामीणों को उनका सामना कर परास्त करते हुए मुक्त करा लिया। बुधु भगत द्वारा शुरू किया गया यह आंदोलन अब छोटानागपुर के समस्त भूमि पुत्रों का आंदोलन हो गया था। अंग्रेज़ों को बुधु भगत के आदिवासियों पर सकारात्मक प्रभाव की सारी सूचनाएं प्राप्त हो रही थी। छोटानागपुर के तत्कालीन संयुक्त आयुक्तों ने 8 फरवरी 1832 ई.में लिखे गए अपने पत्र में अंग्रेज़ों को बुधु भगत की कुशलता, क्षमता, नेतृत्व एवं प्रभाव का पूर्ण उल्लेख किया। अंग्रेज़ों के द्वारा उनकी कुशलता एवं दक्षता को स्वीकार भी किया था।

इसके साथ ही बुधु भगत ने अपने गांव के आसपास अवस्थित घने जंगलों एवं पहाड़ियों में अपने समूह को गुरिल्ला युद्ध के लिए प्रशिक्षित एवं पारंगत कराना आरंभ किया। अपनी सैनिक एवं नेतृत्व कुशलता के कारण उस वक़्त बुधु भगत की रांची एवं आसपास के इलाके में रह रहे आदिवासियों पर बहुत ही प्रभावी पकड़ थी एवं उनके कहने पर हज़ारों लोग अपनी जान तक देने को तैयार थे। अपने सहयोगियों के साथ बुधु भगत चोगारी पहाड़ की चोटी पर घने जंगलों के बीच अंग्रेज़ों के विरुद्ध रणनीतियां बनाया करते थे। अमर शहीद बुधु भगत ने उस समय अंग्रेजी दमन का खुलकर विरोध किया था। इस दौरान कोल जाति के आदिवासियों ने गैर आदिवासी जमींदारों, महाजनों और सूदखोरों की अनेक संपत्तियों को नष्ट कर दिया तथा साथ ही कचहरियों और थानों पर आक्रमण किया, क्योंकि इन जगहों पर इनपर हो रहे अत्याचारों पर शिकायत करने पर भी कचहरी एवं थानों द्वारा जमींदारों, महाजनों और सूदखोरों का ही साथ दिया जाता था। उन्होंने सरकारी खजाने को लूटना शुरू कर दिया। इन सारी घटनाओं नें अंग्रेज़ों को झकझोर कर रख दिया था। उन्हें पता था की जब तक बुधु भगत हैं, उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। अंग्रेज़ों नें तत्पश्चात अपनी सारी शक्ति बुधु भगत को जीवित या मृत पकड़ने में लगा दिए थे।

अंग्रेजों को यह ज्ञात हो चूका था की आदिवासी विद्रोह को दबाने हेतु बुधु भगत का पकड़ा जाना आवश्यक है, एवं इसके बिना वे विद्रोह को नहीं दबा सकते। अंग्रेजों नें बुधू भगत को घेरने एवं गिरफ्तार करने के कई प्रयास किये, परंतु सभी प्रयास असफल ही रहे। उन्होंने अनेकों सुचना तंत्र का प्रयोग किया, परंतु उन्हें विफलता ही मिलती थी। कभी बुधु भगत के किसी एक जगह पर होने की सुचना अंग्रेज़ों को मिलती, तो तत्क्षण दूसरे जगह की। बुधु भगत इतने पारंगत थे तथा उन्हें जंगलों, पहाड़ों एवं बीहड़ मार्गों का ऐसा सम्पूर्ण ज्ञान था की वे अंग्रेज़ों को चकमा दे दिया करते थे। कभी कभी अंग्रेज़ों को उनके दो या अधिक जगह उपस्थित रहने की सुचना मिलती थी। परंतु फौज के पहुँचने से पहले ही वे अपना प्रयोजन पूर्ण कर चले जाते, एवं फौज को कुछ पता ही नहीं चलता। इन्हीं सब कारणों के चलते जन समूह को यह भी लगने लगा था की उन्हें दैविये शक्ति प्राप्त है। जंगलों एवं पहाड़ों के प्राकृतिक ज्ञान के अलावा उनको गांव वालों का अटूट प्रेम एवं जन समर्थन भी प्राप्त था, जो उनको छुपने में एवं अंग्रेज़ों की पकड़ से बाहर रखने में सहायक था। वो ये सोचते थे की बुधु भगत जी का अवतरण उन्हें अंग्रेज़ों की क्रूरता से मुक्ति दिलाने के लिए ही हुआ है। जब अंग्रेज़ उन्हें पकड़ने के सारे प्रयास में विफल रहे, तब उन्होंने बुधू भगत को जीवित या मृत पकड़वाने वाले को एक हजार रुपए पुरस्कार की घोषणा कर दी। यह झारखंड के इतिहास में प्रलोभन की पहली घटना कही जा सकती है, एवं इससे यह भी ज्ञात होता है की उन्होंने उस समय अंग्रेज़ों को कितना परेशान किया हुआ था । परंतु बुधु भगत का जन समर्थन अत्यधिक व्यापक एवं साथ ही बिना किसी लोभ लालच के था। बुधु भगत का ऐसा प्रभाव था की जनमानस उनको पकड़वाने के विषय में सोच भी नहीं सकता था। उनकी लोकप्रियता लोगों में प्रबल थी। इससे यह ज्ञात होता है की उन्हें कितना और किस स्तर तक जन समर्थन प्राप्त था।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अनछुए पक्ष भाग-१

Feature Image Credit: maanews.in

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