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मेरे राम

बंदऊ गुरु पद कंज…

जीवन की सर्वप्रथम स्मृति है कि पलंग के कोने में आसन पर आसीन होकर बाबा मानस पढ़ते थे और मानस के इन्ही सुमधुर दोहों की ध्वनि से निद्रा भंग होती थी। बाबा हर ऋतु में प्रातः गंगा स्नान कर और उसी गंगाजल से चौकी को पवित्र कर उस किन्तु बैठ मानस पाठ करते थे। बाबा इसके अलावा कोई व्रत या उपवास नही करते थे।

राम से मेरा प्रेम स्वाभाविक है, क्योंकि फिर कभी मैंने अपने जीवन में इतनी सुंदर न कोई और कथा पढ़ी ना ऐसा अभिराम आराध्य देखा–सुना।

बाबा जब भी अवधी में दोहे पढ़ते तो मैं कई बार अर्थ पूछती थी। अवधी भाषा का ज्ञान ना होने से मेरा मन अर्थ सुनने की ओर अधिक रहता जो बाबा बिना झुंझलाए सुनाते थे। समय के साथ मेरा राम के प्रति प्रेम अधिक प्रगाढ़ होता चला गया। श्री राम की कहानी मेरी सबसे रुचिकर कथा थी।

किन्तु वयस्क होने पर स्वभाव का एक और लक्षण उभरा – तर्क, जो हिंदुओ में सामान्य है! इस बीच समयांतर में मंदिर–मस्जिद विवाद सुनती रहती थी। बाबा से एक दिन प्रश्न कर बैठी,

“मंदिर इतना आवश्यक क्यों है बाबा?”

बाबा बोले, “आवश्यक क्यों नहीं है?”

इस प्रश्न का मेरे पास ना तो उत्तर था और ना ही सुंदर जग के उदात धारणा में रहने वाली बालिका के मन में ऐसे जटिल उत्तरन्वेषण का उत्साह था।

इस बीच उत्तर रामायण की कथाओं ने भी मेरी रुचि को शशांकित कर दिया था। यह वह समय था जब मुझे राम प्रिय होकर भी, हिन्दी फिल्मों में चित्रित दर्प ग्रसित हिन्दू पुरुष लगने लगे थे। वो राम, जिनके लिए उनकी पत्नी भोग्या मात्र थी।

एक पंथ से प्रभावित उस समय के छायांकनों को देख मेरी उस मधुर भावना पर तुषारापात हो चुका था। किन्तु मेरे राम तो ऐसे वह मृदु प्रेमी थे जिन्होंने सीता को लता भवन में देख, रात भर चन्द्रमा से अपनी व्यथा कथा कही थी।

“सब उपमा कवि रहे जुठारी। केहि पटतरौं बिदेह कुमारी”
बाद में उन्होंने कहा कि,

“सुन्दरता कहुँ सुन्दर करई।छबि गृह दीप शिखा जनु बरई।”
यानी सीता तो सुन्दरता को भी सुन्दर बनाने वाली है।

वहाँ सरल राम ने कहा था कि कवियों द्वारा जूठी उपमा से जनक नंदिनी का क्या वर्णन करूं और नई उपमा  समझ नही आती।

फिर मेरे राम कहते हैं-

“सुन्दरता कहुँ सुन्दर करई।छबि गृह दीप शिखा जनु बरई।”
यानी सीता तो सुन्दरता को भी सुन्दर बनाने वाली है।

प्रेम कितना मर्यादित बना देता है यह मैने राम से सीखा था किन्तु एक समय मेरा मन केवल प्रश्नों से भर गया था।

अंततोगत्वा, संस्कार संस्कार होते है और विद्यालयों में ऐसा वातावरण होता है कि आप सामाजिक चिन्तन के नाम पर ब्रांड्स का नाम और कंपनी की लिस्ट बनाते रह जाते हैं। यदि आप पूजा पाठ करते हैं, धर्म का मनन करते हैं, तो भी आप एक वृहद परिवेश में अंधविश्वासी मान लिए जाते हैं। मेरे साथ सुविधा थी, मेरा परिवेश सुदूर ग्रामीण छात्रों का भी रहा तो मध्य में सांस्कृतिक और धार्मिक चर्चाएँ होती रहती थी, परंतु इसे वातावरण में मिथक ही माना जाता था।

यह सरल और सीधा हिसाब था जिसमें कोई संभावना नहीं थी किन्तु मन में चिन्तन बना रहा जो कई दिशाओं में जाता था, मन तथ्य ढूंढता था।

पढ़ाई के बाद उच्च शिक्षा के लिए लगभग समग्र भारत में रहने घूमने का अवसर मिला। यह समय मेरे जीवन का अत्यधिक सुन्दर समय था। दक्षिण के शास्त्रीय परिवेश में जब मैंने राम को अभंग और त्रिभंग मुद्राओं में मंदिरो में देखा तो लगा कोई अपना बड़ा मिल गया है। घर से सुदूर स्थान इस अपरिचित स्थान में, हर्ष की सीमा नही रही।

बचपन से मात्र एक ही से तो मेरा परिचय था और वो साथ सदैव हो लेते थे। इन्ही दिनों मुझे यह समझ आया कि भारत को संपूर्ण आर्श्व-पार्श्व से यदि कुछ बांधता है वो हैं श्री राम। फिर वो चाहे गुजरात की राम नवमी हो या बंगाल का अकाबोधन और या फिर तमिलों का प्रातः श्रव्य सुब्बुलक्ष्मी जी की स्वरलहरी में बजने वाला “राम चन्द्र कृपालु भज मन”।

क्या पूरब, क्या पश्चिम, क्या उत्तर और क्या दक्षिण, श्री राम चहुँ और विराजमान थे। मैं कितनी जगह घूमी और हर जगह राम को पाया, और हर जगह लोग उन्हें मेरी ही तरह प्रेम करते थे।

बंगाल में एक जगह है राजाराम तल्ला, जहाँ राम की शास्त्रीय परंपरा से चार महीने पूजा होती है और नृत्य संगीत से उनकी अर्चना होती है। भरतनाट्यम् की शिक्षा के समय जब राम भजन पर अवश्य एक नृत्य नाटिका का प्रबन्ध होता था तब अत्यंत ही सुखद आश्चर्य होता था।

ऐसा क्या था या है श्री राम में जो सम्पूर्ण भारतवासी स्नेह करते हैं श्री राम से?

उत्तर प्रदेश की रामलीला से लेकर राजस्थान के रामवंशी क्षत्रियों का उत्सव, या भारत के मध्य में स्थित श्रीराम का राज्य, ओरछा, जहाँ आज भी श्री राम राजा हैं।

वैसे तो राजा एक ही है और वो हैं श्रीराम!

राम वो राजा है जो प्रत्येक हृदय में राज करते है, राम वो राज हैं जिनकी कार सेवा के नाम पर सारा भारत अयोध्या में प्रशासन की धज्जियां उड़ा कर इकट्ठा हुआ। अविश्वसनीय घटना यह थी कि प्रथम बार के अमानवीय अत्याचार के अनुभव झेलने उपरांत दूसरी बार फिर और उत्साह से इकट्ठा हुआ और किसी ने इस घटना पर आश्चर्य भी नही प्रकट किया।

राम वो राजा हैं जिनके लिए भारतीय प्रशासनिक सेवा के दो अधिकारी जो देश के सुदूर दक्षिण और उत्तर भाग से आते थे, ने प्रधानमंत्री नेहरू से लड़ कर, मिलकर इतिहास की नींव रख दी!

वो प्रशासनिक अधिकारी थे, उनका तर्क हमसे अधिक संपन्न और सुगठित रहा होगा किन्तु उन्होंने क्यों नहीं कहा मंदिर–मस्जिद एक समान?

उनको वो महाठगिनी माया क्यों व्याप गई?

राम इतने प्रेम से सुमिरन के बाद भी अत्यधिक शौर्य के परिचायक क्यूं रहे? उनके चरित्र की शक्ति है कि सर्वोच्च बलिदान देने के लिए उनका नाम पराक्रम का जनक रहा।

सियावर राम चन्द्र की जय! कह वीर भीषण समर में भी विजय प्रशस्त समझते थे!

लेकिन इन प्रश्नों का उतर आप कहाँ अन्वेषित करेंगे?

फैजाबाद में या लखनऊ में या फिर बस्ती या देवरिया में जहाँ प्राचीन अवध होता था? भले यहूदी, ईसाई, मुसलमान अपने पवित्र स्थान येरूसलम के लिए आज भी लड़ते है लेकिन मक्का आज भी मक्का है, वैटिकन आज भी वैटिकन है किन्तु ना अवध वैसा रहा और ना रहा वैसा बृज।

आध्यात्म को ना जानने वाले और मेरे जैसे कथाओं को मानने वाले सामन्यजन बनारस में आध्यात्म शोधने की अपेक्षा उस चबूतरे को अपनी श्रद्धा समर्पित करते रहे। अपनी सारी मनोकांक्षाए और प्रेम उस चबूतरे और छावनी पर निछावर करते रहे क्योंकि हमारे लिए तो सबसे बड़ी अयोध्या जी जहाँ राम जी लिए अवतार।

वहाँ भारत के सुदूर प्रांत और प्रकोष्ठों से व्यक्ति आते है जो किसी ऐतिहासिक तथ्य के इति और ह्वास को ना स्वीकार उस एकांकी चौतरे को अपने अनंत किन्तु आत्मिक विश्वास से चुनौती देते है! वही मानस जन पार्श्व के शिला निर्माण में ईंट दान देते है। कोई कोई अपने मस्तक पर सुदूर दक्षिण और कश्मीर से पैदल चल ईंट धर कर भी लाता है किन्तु इतनी आस्था के बाद भी चेतना केंद्र के नाम पर हमारे पास वाराणसी का तुलसी घाट ,चित्रकूट और दंडकारण्य है।

भले हमारे वर्तमान महान व्यक्तियों के नाम “राम” पर रख, रामानुजम, रामदास और राममोहन या तत्कालीन वामपंथी नेता का सीताराम हो किन्तु उनके अस्तित्व विमर्श के नाम पर “कोहिनूर” देने वाला भारत कितना दीन हीन दिखता था।

इस बीच जीवन में कर्तव्य आए और जब निर्वाहन में अंतर्द्वंद्व आया तब एक भावना आती थी कि कोई ऐसा अपना भी संगी होता हो जो कहे जैसा मन करे, निडरता से करो और सिया राम के संग का महत्व समझ में आया।

सिया का राम के जीवन में महत्व तर्क, शब्द, विचार से परे है। राम कभी उनका त्याग या ऐसा कोई विचार ला नहीं सकते थे किन्तु वो प्रेम  दैहिक संग से कतई ऊपर था।

वो महाभियोग लगाती, नीतियां बदल देती जैसे अहिल्या के लिए बदली गई, भी किन्तु वो राम के अपनी सहभागिनी और चीर मित्र के लिए मोह को समझती थीं, उन्होंने रानी की तरह गौरवयापन किया। जिस राम राज के लिए राम को जाना गया सीता उसकी कुण्डलिनी थी! सीताराम का प्रेम केवल उन दोनो का हृदय ही समझता था ।

“तत्व प्रेम कर मन अरु तोरा,

जानत प्रिया एक मन मोरा”

बाद में उतर रामायण के क्षेपक होने का संदेह हुआ तो आश्चर्य नहीं हुआ।

जब राम का मंदिर ऐसे तोड़ा जा सकता है, स्वयंभू शिव को ले पुजारी को कुएं में कूदना पड़ता है तो यह तो एक निरा ग्रन्थ है। किन्तु अब अंतर नहीं पड़ता क्यूंकि अब परिक्वता है और थोड़ी भक्ति भी है, और भक्ति की परिभाषा है की वो संदेह को बुहार कर बैठती है मन में।

विषय वस्तुनिष्ठता से ऐसे तथ्य चिंतन में आए की अचिंत्य बन्धन में बंधे राधा–कृष्ण की पूजा साथ ही होगी,क्योंकि वो दैवीय है, गुण–दोषमय नहीं ।

रामसीता के साथ भी यही है ।

जब राम मंदिर  परिणाम आया और शिला पूजन हुआ, मैं शांत हो चुकी थी,क्योंकि मन यह मान चुका था कि यह परवर्ती है, क्योंकि हम प्रतीक्षा नहीं ,कर्म रत रहे थे, यह होना है। हम भी, वो अधिवक्तागण, वो कार्यकर्ता,वो स्वयंसेवक सब, सभी संकल्पित थे।जब शिला पूजन चल रहा था मेरा मन अपने गांव के बगीचे के हनुमान जी पास बैठा था क्योंकि वो भी प्रतीक्षा नहीं कर्म कर रहे थे, अनवरत।

गांव में हनुमान जी चबूतरे के रूप में बगीचे के बीच होते है, जहाँ दोपहर में भी ठंडी हवा आती है। मन उसी चबूतरे के पास बैठ हजारों साल के संघर्ष का चिंतन कर रहा था और राम की उस चेतना का विचार कर रहा था जो कभी तुलसी से प्रखर हुई, कभी कृतिवास, कभी कंब से ।

जो रहीम और इकबाल के लिए भी “इमाम–ए–हिंदोस्ता” थे ।

उस दिन विश्वास के विशद तात्पर्य समझ आए और यह भी समझ आया कि धर्म को हम नहीं चुनते, धर्म हमे चुनता है। धर्म हमारे सात्विक मन का आत्मिक भोजन है। धर्म प्राकृतिक है और शास्वत भी।

जब जब धर्म विपन्न होगा दक्षिण से शंकराचार्य और उत्तर से तुलसी स्वयं प्रकट हो जायेंगे!

चेतना अनवरत है और सियाराम सनातन  और हम अकिंचन!

“कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।

तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम”

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