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जयंती पापनाशिनी : देवकन्या का दैवत्व भाग- १

सुरपुर की राजधानी अमरावती!

दिव्य लोक, दुर्लभ स्थान, अलौकिक सुंदरता के आयाम महल!

उन सब के मध्य स्थित देवराज शक्र का दिव्य भवन!

चारों तरफ नंदनवन के सौरभ से सुगंधित वातावरण, कलकल करती प्रपात ध्वनियाँ, कानों में गूंजती मधुर स्वरलहरियाँ!

मनुष्य, नाग, दैत्य, गंधर्व इसकी झलक मात्र को तरसते थे। यह एक ऐसा दुर्लभ आकाशदीप था, जिसकी कल्पना मात्र से ही संतोष करके रह जाना पड़ता था क्योंकि देवों और पुण्यात्माओं के अतिरिक्त अन्य को यहॉं निवास तो क्या दर्शन तक सुलभ न था।

परंतु उस विशाल देवभवन में आज प्रसन्नता एवं उल्लास के स्थान पर उद्विग्नता का वातावरण था। देवराज इंद्रसभा से उठकर आए थे और तब से अपने भवन के उद्यान में टहलते हुए गंभीर चिंतन में डूबे  हुए थे। मुख पर चिंता और व्याकुलता स्पष्ट रूप से झलक रही थी। ऐन्द्री शची ने कारण पूछना चाहा तो टाल गए, किंतु मन शांत होने का नाम नहीं ले रहा था।  सभा में गुप्तचरों से समाचार ही कुछ ऐसे प्राप्त हुए थे।

जब सदैव स्वर्ग हथियाने को लालायित रहने वाला युद्धविलासी शत्रु अकारण ही शांतिपाठ करने  लगे, शरण और संधि की बात करने लगे तो और भी सावधान तथा सतर्क हो जाना चाहिए। वातावरण में अचानक छाई स्तब्धता आगामी झंझावात का प्रतीक होती है। एकाएक दैत्यों की ओर से आए शांतिप्रस्ताव ने पहले तो उन्हें विस्मय में डाल दिया  था। अपनी प्रकृति के विरुद्ध दैत्यों ने संदेश भेजा था कि वे युद्ध त्याग कर गुरुमाता के सानिध्य में आश्रम में निवास करेंगे, अहिंसा एवं सदाचार का पालन करेंगे, शस्त्र और राज्य का त्यागकर भगवान का ध्यान एवं प्राणियों की सेवा  करेंगे। ऐसा विचित्र संदेश पाकर वे धर्मसंकट में पड़ गए। विधिसम्मत प्रस्ताव को वे मना भी नहीं कर सकते थे। अतः विवश होकर सशंकित मन से प्रस्ताव स्वीकार करना पड़ा, किंतु मन नहीं माना तो गुप्तचरों को वस्तुस्थिति पता लगाने का आदेश दिया। आज गुप्तचर उसी से संबंधित रहस्य को उद्घाटित करने आया था।

जिसका का डर था वही हुआ। संधि की आड़ में षड्यंत्र का कूटजाल रचा जा चुका था, शांति के आवरण के पीछे विध्वंस की तैयारी चल रही थी, जीवन की आशा देकर संहार की आधारशिला रखी जा चुकी थी। दैत्यों को संधि प्रस्ताव के साथ भेजकर दैत्यगुरु शुक्राचार्य स्वयं महादेव से मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त कर दैत्यों के अमरत्व एवं अमरों के विनाश के सूत्रधार बनने की भूमिका ग्रहण कर चुके थे। जाते समय भार्गव शुक्राचार्य ने दैत्यों से कहा था कि वे वरदान प्राप्ति के उपरांत उनकी सहायता के लिए आएंगे,तब तक शांति बनाए रखना।

भृगुपत्नी ने दैत्यों को अभयदान देकर  अपने आश्रम में संरक्षण दे दिया। आश्रम जपतप स्थली से षड्यंत्र की पृष्ठभूमि बन गया था और सब जानते हुए भी देवराज विवश थे, क्योंकि गुरुमाता वास्तविकता देखने को तैयार न थीं। शनैः शनैः सृष्टि भावी विनाश की ओर बढ़ रही थी।

देवराज के हृदय में आकुलता बढ़ती जा रही थी। कहाँ जाएं‌, क्या करें, किसे रोकें? शुक्राचार्य को अमरविद्या पाने से या दैत्यों को षड्यंत्र रचने से, महादेव को वरदान देने से या फिर मुनिपत्नी को संरक्षण देने  से? जब सामने असंभव विकट समस्याएं हो तो समाधान भी विलक्षण सोचने पड़ते है।

“पिताजी! आप यहाँ क्यों व्याकुल से एकांत विचरण कर रहे हैं? अंदर चलिए, आपके विश्राम एवं जलपान की व्यवस्था कक्ष में कर दी है।” , कानों में मधुर वाणी झंकृत हुई। क्षण भर के लिए देवेंद्र का मुखमंडल दमक उठा। अधरों पर एक स्मित रेखा खिंच गयी।  मन हिमखण्ड सा शीतल हो उठा।

उनकी प्राणप्रिय कोकिलभाषी, नटखट हिरणी सी, भगवती की अंशस्वरूपा प्रिय पुत्री जयंती!

समूची अमरावती में हिम से भी उज्ज्वल एवं शीतल,  द्वेष, ईर्ष्या, लोभ की कलुषता से निरपेक्ष, सबका ध्यान रखने वाली मलयजा जयंती! जो लगभग अदृश्य रहते हुए भी सबके जीवन का सूत्र संचालन सम्भाले रहती थी। पुत्र जयंत के उत्साही, अधीर, अभिमानी और त्वरित व्यक्तित्व के विपरीत जयंती का शांत, स्निग्ध,धीर, स्नेहिल रूप उनके जीवन में स्थैर्य एवं सहजता लाता था।

चलते-चलते एक और तेजस्वी, प्रचंड व्यक्तित्व का स्मरण उन्हें हो आया, जिसके जीवन में भी शीतलता एवं स्नेह की आवश्यकता थी और वह थे भार्गव शुक्राचार्य!

ऐसे तेजस्वी तपस्वी, प्रतिभशाली मुनिपुत्र का जीवन उच्छृंखल एवं नैतिकताविहीन  दैत्यों के सान्निध्य में निरंतर रहते हुए रुक्ष,कटु एवं शुष्क बनकर रह गया था। उसकी छाप अब उनके व्यक्तित्व पर भी दिखने लगी थी। अगर उनके शुष्क जीवन में मधुरता, सरसता एवं शीतलता का संचार हो जाता तो निर्जन मरुस्थल में भी सृजन एवं विकास का मरुद्यान पनप जाता।

चलते-चलते वे महल के भीतर कक्ष में आ गए। जयंती ने शीतल जल का पात्र थमाते हुए पूछा,”सब कुशल तो है तात?”

“एंह? हाँ!”, मन ही मन किसी निर्णय पर पहुंचते हुए उन्होंने जयंती की स्नेहार्द्र आँखों को देखा और अपने निर्णय की कठोरता से उनका हृदय स्वयं कांप उठा। किंतु इससे पहले कि वह निर्णय बदल पाते जयंती ने उनका हाथ थामते हुए कहा,”पिताजी! मैं जानती हूँ कि आप मुझसे कुछ कहना चाहते हैं। किंतु मेरे प्रेमवश मौन हो जा रहे हैं। कहिये! आपका आदेश मानना मेरे लिए सौभाग्य की बात होगी। मुझे पता है कि जो भी बात होगी, सुरपुर एवं संसार के कल्याणहित ही होगी।”

नेत्र झुकाकर होठों को सरस करते हुए देवेंद्र धीरे से बोले,”भार्गव शुक्राचार्य के बारे में तो जानती हो न जयंती?”

“कौन?  तेजस्वी मुनिपुत्र, जो महादेव के अनन्य भक्त, उनके स्नेहभाजन एवं महान शास्त्रज्ञ तथा तत्ववेत्ता हैं?”

“हां, वही! वे दैत्यों के कुलगुरु भी हैं।”

“दैत्यों के? किंतु इतने प्रतिभाशाली ऋषिको आपने सुरपुर में क्यों नहीं आमंत्रित किया? उनके  ज्ञान, शोध  एवं भक्ति से अमरावती और भी सुशोभित, उन्नत एवं पवित्र होती।”

हंसे इंद्र,”मंदिर शिखर पर एक ही कलश सुशोभित होता है, वन में एक ही मृगेंद्र की अधिसत्ता होती है, नभ में एक ही सूर्य दैदीप्यमान होता है। अमरावती में ज्ञान एवं बुद्धि के भंडार महर्षि बृहस्पति पहले से ही देवगुरु के पद पर विराजमान हैं। शुक्राचार्य को उनसे हीन पद देना उनकी प्रतिभा का अपमान होगा एवं दूसरे सूर्य की भांति उन्हें देवपुर के देवगुरु का पद नहीं दिया जा सकता। प्रकृति में शक्तिसंतुलन आवश्यक है। इसी नियम के अंतर्गत दैवसत्ता के विपरीत ध्रुव दैत्यों के कुल गुरु का पद उन्होंने स्वीकार कर लिया है। जहाँ वे पूर्ण सम्मान एवं शक्ति के साथ प्रतिष्ठित हैं।”

“तो समस्या क्या है?”

मुस्करा कर इंद्र ने अपनी पुत्री को देखा,”तुझे कैसे भान हुआ कि शुक्राचार्य मेरे लिए समस्या हैं।”

स्रोत-

  • श्रीदेवीभागवत महापुराण
  • संक्षिप्त शिवपुराण
  • दुर्गासप्तशती

देवकन्या का दैवत्व श्रृंखला

Feature Image Credit: facebook.com

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