close logo

जयंती पापनाशिनी : देवकन्या का दैवत्व भाग – ३

कृपया इस श्रृंखला का पिछला भाग “जयंती पापनाशिनी : देवकन्या का दैवत्व भाग- २”  पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें 

प्रातःकाल वे ऋषि के नित्यकर्म के लिए जल-वस्त्र एवं दातुन रख आतीं।  पूजन सामग्री एवं पुष्प जुटा देतीं। नए-नए कुशों से पवित्री एवं आसन बना देतीं। भूसी की अग्नि मंद-मंद प्रज्ज्वलित रखतीं तथा भोजन के समय सुमधुर फल पात्र में रखकर जल के साथ प्रस्तुत करतीं। उनके तप और ध्यान में विघ्न न पड़े, इसलिए जयंती ने किंकिणी, कंकण एवं अन्य आभूषणों को त्यागकर वानप्रस्थ के अनुकूल वल्कल वस्त्र धारण कर लिए थे।

अपनी-अपनी तपस्या में लीन रहते हुए एक सहस्र वर्ष व्यतीत हो चुके थे। समूचा वन दोनों तपस्वियों की आभा से आलोकित हो उठा था। ऋषि की तपस्या सफल हुई और जयंती की भी। देवाधिदेव महादेव से भार्गव को मनोनुकूल वर की प्राप्ति हुई। लक्ष्य प्राप्त होने के पश्चात जब उनकी दृष्टि बहिर्मुखी हुई तो अपने आस-पास का वातावरण देखकर वह अचम्भे में पड़ गए। किंतु शीघ्र ही उनके मौन प्रश्नों का उत्तर बनकर आती जयंती उन्हें दृष्टिगत हुईं। पास आकर उन्होंने प्रणाम किया तत्पश्चात जल एवं फलों के पात्र को रखते हुए बोलीं,”प्रणाम भगवन्! कितने हर्ष का विषय है कि अंततः आपके कठोर तप के फलस्वरूप भगवान शिव ने स्वयं पधारकर आपको कृतकृत्य किया है। आपकी साधना सफल हुई। कृपा करके भोजन के रूप में यह फल स्वीकार करें।”

आशातीत सौन्दर्य की मूर्ति को तपस्विनी वेष में देखकर वे विस्मित रह गए। कुछ क्षण पश्चात बोले,”हे सुश्रोणि! हे वरारोहे! तुम कौन हो?किसकी कन्या हो? अप्सराओं एवं नागकन्याओं को लज्जित कर देने वाली हे असितापांगि! तुमने ऐसे रूखे वल्कल वस्त्र क्यों धारण कर रखे हैं? ऐसे निर्जन भयंकर वन में तुम क्यों कष्ट उठा रही हो?”

प्रथम बार अपने पति के मुख से अपने प्रति ऐसे शब्द सुन जयंती का मुखमण्डल आरक्त हो उठा।  अस्ताचलगामी सूर्य की  किरणें, गेरुए वस्त्र एवं जयंती का लज्जालेपित वदन, तीनों परस्पर प्रतिस्पर्धा से करते प्रतीत हो रहे थे। समय और अवस्था का ध्यान कर नतवदना होकर वे बोलीं,”हे ऋषिप्रवर! मैं देवराज शतक्रतु एवं शची की पुत्री जयंती हूं। मेरे पिता ने मुझे आपको समर्पित किया है। मैं आपकी सेविका के रूप में सहस्र वर्षों से इसी आश्रम में निवासरत हूं।”

कुछ पल हतप्रभ रहने के पश्चात शुक्राचार्य बोले,”हे देवी! अज्ञानता में हुई अशिष्टता एवं असुविधा के लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूं तथा तुम्हें प्रणाम करता हूं। कितने विस्मय की बात है कि बड़े-बड़े ज्ञानियों एवं तपस्वियों के तप को भंग करने वाले अदितिपुत्र देवराज इंद्र ने मुझे अपना कन्यारत्न देकर मेरे तप को सुगम एवं सफल बनाने की कृपा की। तुमने देवपुर का सुख त्याग कर इस आश्रम में कठोर कष्ट उठाए। कहो, मैं तुम्हारा यह उपकार कैसे चुका सकता हूं?”

सुमधुर वाणी में जयंती ने कहा,”मेरे पिता ने मुझे आपको दिया था। आर्यपुत्र की सेवा और स्नेह के अतिरिक्त मुझे कुछ भी अभीष्ट नहीं।”

“हे तन्वंगी! सहस्र वर्षों तक लगभग अदृश्य एवं मौन रहते हुए तुमने मेरे तप को सफल बनाने का धर्म निभाया है, अतः सही अर्थों में तुम मेरी सहधर्मिणी हुई। देवि! यदि तुम्हारी सहमति हो तो अगले दस वर्षों तक अदृश्य रहते हुए निर्विरोध रूप से दाम्पत्य जीवन के विहार में तुम मेरी सहचरी बन कर निवास करो।”

नेत्र उठे, मिले, सहमति बनी एवं स्वीकारोक्ति में अधरों पर स्मित की रेखाएं खिंच गईं। भार्गव शुक्राचार्य का रुक्ष,  कठोर,  जीवन अब जयंती के स्नेह, प्रेम, मृदुलता से सरस हो उठा था। वे उनकी इच्छाओं, क्षमताओं, ज्ञान, तर्क‌, मीमांसा सब में बराबर साथ देतीं, उद्वेलित करतीं एवं साथ-साथ नवीन दृष्टिकोण के साथ सुमार्ग की ओर निर्देशित भी करतीं। उनके जीवन को नवीन लक्ष्य, दिशा, उत्साह मिल चुका था। साथ ही साथ संतुष्टि एवं स्थिरता भी। जयंती को भी शुक्राचार्य के रूप में ज्ञान, प्रतिभा एवं स्वयं के प्रति प्रेम से परिपूर्ण उचित जीवनसाथी मिल गया था।

उधर देवताओं ने देवगुरु बृहस्पति के रूप में कूटनीति की दूसरी चाल सफलतापूर्वक खेल दी थी। वे शुक्राचार्य का रूप लेकर दैत्यों को पथभ्रष्ट कर चुके थे। समयावधि पूर्ण होने पर जब शुक्राचार्य वहां पहुंचे तो पूरा क्रीड़ाक्षेत्र बदल चुका था। बार-बार समझाने पर भी दैत्यों ने उन्हें वास्तविक शुक्राचार्य मानने से मना कर दिया।

पहले तो शुक्राचार्य को बहुत क्रोध आया और मन किया कि शाप देकर इन छली देवताओं एवं मूर्ख असुरों दोनों का विनाश कर दें। किंतु मस्तिष्क में जयंती की शांत, मृदु मुस्कान उभरी और लावे से उबलते क्रोध का उफान हिमखण्ड सा शीतल पड़ गया। अब वे शांतभाव से अपनी पत्नी के पास आश्रम की ओर बढ़े जा रहे थे।  मार्ग के आश्रमों से चण्डीकवच की ध्वनि कानों में पड़ रही थी,

…….तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयंती पापनाशिनी”

स्रोत-

  • श्रीदेवीभागवत महापुराण
  • संक्षिप्त शिवपुराण
  • दुर्गासप्तशती

Feature Image Credit: facebook.com

Disclaimer: The opinions expressed in this article belong to the author. Indic Today is neither responsible nor liable for the accuracy, completeness, suitability, or validity of any information in the article.