प्रत्युत्तर में स्मित बिखेरती हुए जयंती ने कहा,”अब आप शत्रुपक्ष के कुलगुरु के गुणों का बखान एकाएक अकारण तो नहीं करने लगेंगे। कहिये, ऐसा क्या किया भार्गव शुक्राचार्य ने जो समर विजयी मेरे पिता के ललाट पर उद्विग्नता की ऐसी रेखाएं खिंच आईं हैं। मैं उन रेखाओं को मिटाने के लिए क्या कर सकती हूँ?”
“किया नहीं किंतु करने जा रहे हैं, भीषण अनर्थ!”
देवेन्द्र ने जयंती को प्रारंभ से अंत तक पूरी कथा सुना दी।
“ओह तो मृतसंजीवनी प्राप्त कर वह जैसे ही , वैसे ही दैत्य संधि तोड़कर स्वर्ग पर आक्रमण कर देंगे। विद्या के आश्रय से वे पुनर्जीवित होते रहेंगे और हम क्रमशः क्षीण होते जाएंगे। इतना भीषण षड्यंत्र! वे मात्र स्वर्ग पर अधिकार पाकर चुप नहीं बैठेंगे, मर्त्यलोक पर भी उनकी मनमानी और क्रूरता बढ़ेगी। कर्तव्यहीन निरंकुश सत्ता विश्व में विप्लव ही लाती है। इसे कैसे रोका जा सकता है, पिताजी?”
“तू! तू रोक सकती है इसे!”
“मैं! लेकिन कैसे? मैं तो आप जैसी शक्तिसंपन्न नहीं हूं। न ही जयंत भैया जैसी युद्धकुशल या फिर अग्नि, सूर्य, वरुण जैसी तेजयुक्त हूं। मैं कैसे रोकूंगी?”
“क्योंकि तू भगवती का अंश है, उनका प्रसाद है। उनकी शक्ति, गुण, ओज से परिपूर्ण है तू। भगवती मात्र हुंकार एवं शस्त्रों से ही अघ विनाश नहीं करतीं, उनकी भुवनमोहिनी छवि को देखकर संसारीजन सुधबुध खो देते हैं। उनके भ्रूविलास से त्रिदेव मोहित हो जाते हैं। यह संसार महामाया के विनोद में माया मग्न हो घूमता रहता है। जो शक्तियां उनमें हैं वे तुझमें भी हैं। आवश्यकता है तो बस उन्हें पहचानने एवं प्रयोग में लाने की!”
सकपका उठीं जयंती! लज्जा से नीचे देखती हुई बोलीं,”आप चाहते हैं मैं उन्हें मोहित करूं। किंतु मैं वैसा कुछ नहीं जानती। यह कार्य तो अप्सराओं का समूह बहुत अच्छे ढंग से कर सकता है। वे नृत्य-गायन, रसविलास, अनेकानेक कलाओं में सिद्धहस्त हैं।”
“किंतु मैं तो ऐसा कुछ नहीं चाहता। मोहन एवं वशीकरण का प्रभाव अल्पकाल के लिए होता है। वास्तविकता का भान होने पर यह छलित व्यक्ति की क्रोधाग्नि को और बढ़ा देता है। शुक्राचार्य एक प्रखर सूर्य हैं। उनके ताप को संभालने के लिए मेघों का मायाजाल अपर्याप्त रहेगा। उन्हें आवश्यकता है एक विरामदायिनी संध्या की जो इनके जीवनपथ को क्रमित एवं संतुलित करे। ताकि जब वे विश्राम के उपरांत पुनः उदीयमान हों तो उनके ज्ञान एवं तप के प्रकाश से विश्व सुरभित एवं पल्लवित हो। न कि अनियंत्रित ताप से दग्ध! क्या तू उनकी सहचरी बन कर संध्या के समान उन्हें विश्राम एवं उषा के समान उन्हें उत्थान देना स्वीकार करेगी?”
गंभीरता से नतमस्तक होकर जयंती बोलीं,”जैसी आपकी आज्ञा! किंतु मैं उनके तप में कोई विघ्न नहीं डालूंगी, ना ही उन्हें पथ भ्रष्ट करूंगी, ना ही किसी भी एक वस्तु की याचना। जो निर्णय हैं वे उन्हीं के होंगे। मैं उनकी सहचरी एवं परिचारिका होने का उत्तरदायित्व स्वीकार करती हूँ।”
अश्रुपूरित आँखों से शक्र बोले,”धन्य हो पुत्री! जगदम्बा ने आशीर्वाद के रूप में तुझे हमें दिया था। आज तू ने विश्व कल्याण के लिए आत्माहुति देकर उनका अनुकरण सही सही अर्थों में कर लिया है। तू भगवती के समान जगतवंद्या एवं पापनाशनी हो गयी है। तेरा भाग्य अनिश्चित है, लेकिन अपना हृदय कठोर कर तुझे आशीष फिर भी दे सकता हूँ कि तेरा चरित्र कलुषता से मुक्त, स्निग्ध एवं धवल रहे। तेरे प्रियजनों के अच्छे बुरे कर्म तेरा स्पर्श न कर सकें। मेरे ही समान भार्गव की भी प्राणप्रिय, पथप्रदर्शिका एवं आत्मीया बने। तू उनके पुण्यकर्मों की सहचरी एवं जीवन ज्योति बने। तेरी कीर्ति विश्व में अमल धवल चंद्र किरणों सी बिखरती रहे। अब जा माँ की आज्ञा ले ले!”
तपोवन में पहुँच कर जयंती ने दृष्टि इधर-उधर दौड़ाई। निर्जन वन, हिंस्र पशुओं एवं पक्षियों का कोलाहल, जीर्ण-शीर्ण सी कुटी, अस्त-व्यस्त से बर्तन तथा कुछ चीर वृक्षों पर सूख रहे थे। जल का पात्र खाली था।
“कहां हैं ऋषिवर?”, कहते हुए दूर तक दृष्टि दौड़ाई तो बांसों के झुरमुट के पीछे से धुंआ सा उठता दिखाई दिया। साथ ही कानों में जल की कल-कल ध्वनि सुनाई दी।
“संभवतः उधर कोई नदी या प्रपात है।” , यह सोचते हुए जयंती ने मणिमेखलित ओढ़नी का किनारा कमर में लपेटा। मिट्टी के दो कलश उठाकर हाथों के सहारे कटिप्रदेश पर टेक लिए और जलस्रोत की ओर ऊबड़-खाबड़ पथ पर संभलते हुए चल दीं।
तट पर पहुंचकर देखा तो एक निर्झरिणी से जल झर-झर कर एक सरोवर का रूप लेते हुए घूमकर धारा के रूप में बह रहा था। आस-पास स्वच्छ शिलाखण्ड तट पर फैले हुए थे। निर्मल जल में कमलपुष्पों के दलों पर भ्रमर गुंजायमान थे। किनारे पर वृक्ष, लताओं एवं बांसों के झुरमुट थे। जयंती ने शीतल जल से मुंह-हाथ धोया फिर दोनों जलपात्र भरकर कठिनता से उन्हें संभालती हुई वापस चल दीं। तभी उनकी दृष्टि बांसों के उस झुरमुट पर पड़ी जहां से धुआं उठता दिख रहा था। वहां पर एक गौरवर्ण तपस्वी भूसी की अग्नि में धूम्रसेवन करते हुए शीर्षासन में विराजमान था। ताप से उसका वर्ण गौर से ताम्र हो गया था। धुंए के बीच बलिष्ठ शरीर से बहती हुई स्वेदधाराएं अस्पष्ट सी दिख रही थीं। पास ही एक कमण्डल एवं दण्ड रखा हुआ था। देखते ही जयंती का मन दयार्द्र एवं स्नेहसिक्त हो उठा।
“अहो! ऋषिवर अपने पुत्रवत यजमानों के लिए इस निर्जन वन में कितना कष्ट उठाकर ऐसा कठिन तप कर रहे हैं और उनका ध्यान रखने के लिए कोई भी नहीं है।”
जयंती ने पास जाकर उन्हें मौन प्रणाम किया एवं रिक्त कमण्डल में जल भरकर रख दिया। तत्पश्चात वे आश्रम लौट आईं। आश्रम की सारी व्यवस्था जयंती ने अपने सुकोमल हाथों में सुदृढ़ रूप से सम्भाल ली। अमरावती में जिस कुसुमकोमल राजकुमारी के मस्तक पर स्वेदबिंदु आने की आशंका तक से सेवकों के समूह में आपा-धापी मच जाती थी, वे स्वयं ऋषि की सहधर्मिणी एवं परिचारिका बन ब्रह्ममुहूर्त से देर रात्रि तक श्रमकार्य में संलग्न रहने लगीं थीं। कुटी को तृणों एवं बांस की सहायता से सुदृढ़ एवं विश्रामदायक बना दिया था। कुटी की सीमारेखा के रूप में हरी-भरी क्यारियां पुष्पों एवं तुलसीवृंद से सौरभित रहने लगीं थीं। आश्रम में रखे पात्र सदैव शीतल जल से भरे रहते व यज्ञवेदी लिपी-पुती एवं सूखे समिधा काष्ठों से सज्जित रहती थी। वस्त्र इधर-उधर वृक्षों पर लटकने के स्थान पर रेशमतंतु की डोरी पर सूखते व अच्छे से व्यवस्थित कर रख दिए जाते।
स्रोत-
- श्रीदेवीभागवत महापुराण
- संक्षिप्त शिवपुराण
- दुर्गासप्तशती
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