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हिन्दी साहित्य का “निराला सूर्य”

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को भारतवर्ष में हिंदी साहित्य जगत में कौन नहीं जानता। वे अपनी हिन्दी साहित्य, कविता व व्यक्तित्व में निराले तो थे ही, साथ ही आज तक हिन्दी साहित्य में सूर्य की तरह चमक रहे है। बिना उनकी चर्चा किए आज क्या हिंदी साहित्य की चर्चा की जा सकती है ? उन्होंने हिन्दी साहित्य में लगभग सभी विधाओं में प्रचूर मात्रा में लिखा। उनका साहित्य आज भी हिन्दी भाषा व साहित्य के लिए अमूल्य निधि है।

सूर्यकांत त्रिपाठी ‛निराला’ का जन्म मंगलवार को हुआ था। इसी से उनका नाम सूर्यकांत पड़ा। लेकिन सूर्य के पास अपनी धधकन के अलावा और क्या है ? हम सूर्य की पूजा करते हैं, क्योंकि वह जीवनदाता है। लेकिन सूर्य किसकी पूजा करे ? कवियों के कवि निराला सूर्य की तरह ही जीवन भर धधकते रहे। बचपन में मां चली गईं, जवानी आते-आते पिता न रहे। धर्मपत्नी को प्लेग खा गया। बेटी का विवाह नहीं हो सका और अकालमृत्यु हुई। जीवन भर कभी इतने साधन नहीं हुए कि कल की चिंता न करनी पड़े। किसी प्रतिभाशाली और संवेदनशील लेखक के साथ इससे ज्यादा ट्रेजेडी और क्या हो सकती है ? फिर भी, निराला प्रकृति और संस्कृति दोनों के अभिशापों को झेलते हुए अपनी सृजन यात्रा पर चलते रहे। यह आत्मिक शक्ति ही निराला जैसे लेखकों की विलक्षणता है। निराला ने ठीक ही कहा है, मैं बाहर से खाली कर दिया गया हूं, पर भीतर से भर दिया गया हूं। यह कोरा अनुप्रास नहीं था – निराला का यथार्थ था।

प्रसिद्ध आलोचक व निराला जी पर प्रमाणिक लेखन करने वाले रामविलास शर्मा अपने संस्मरणों में कहते है कि सन् 34 से 38 तक का समय निराला जी के कवि जीवन का सबसे अच्छा समय था । उनका कविता- संग्रह ‛परिमल’ छप चुका था, लेकिन ‛गीतिका’ के अधिकांश गीत, अपनी सर्वश्रेष्ठ कविताएँ ‛राम की शक्ति पूजा’, ‛तुलसीदास’, ‛सरोज स्मृति’ आदि उन्होंने इसी समय लिखी। गद्य में ‛अप्सरा-अलका’ उपन्यास छप चुके थे, लेकिन ‛प्रभावती’ , ‛निरुपमा’ उपन्यास और अपनी अधिकांश प्रसिद्ध कहानियाँ उन्होंने इसी समय लिखीं। यही बात उनके निबंधों के बारे में भी सही है। उस समय उनकी प्रतिभा अपने पूरे उभार पर थी। उसके पहले जो कुछ था, वह तैयारी थी, बाद को जो कुछ आया, वह सूर्यास्त के बाद का प्रकाश भर था।

निराला जैसी महाप्राण प्रतिभा विरोध से, टकराहट से ही तीक्ष्ण और पुष्ट होती है। अस्मिता का बोध उसमें इसी तरह जागता है । निराला में यह बोध एक समग्र भारतीय अस्मिता के बाद में उत्कर्ष पाता देखा जा सकता है।

सांस्कृतिक लयभंग की – वेदना निराला के कृतित्व का एक प्रमुख प्रेरक सूत्र बनी –उसके वादी- संवादी स्वरों को निर्धारित करती हुई।

हो गए आज जो खिन्न-खिन्न
छुट-छुट कर दल से भिन्न-भिन्न
वह अकल कला गह सकल छिन्न जोड़ेगी। (तुलसीदास)

कविताएँ पढ़ने और सुनाने में उन्हें बड़ा आनंद आता था। सैकड़ों कविताएँ उन्हें कंठाग्र थीं, अपनी नहीं दूसरों की भी। वहीं निराला जी का घर साहित्य प्रेमियों का तीर्थ-स्थल था। प्रसिद्ध साहित्यकारों से लेकर विद्यार्थियों तक के लिए उनका द्वार खुला रहता था। निराला जी का निराला साहित्यिक व्यक्तित्व था। वे साहित्यकारों का सम्मान करते थे और उनसे खुलकर मिलते थे, लेकिन धन और वैभव का सम्मान करना उन्होंने न सीखा था। उनके जीवन से जुड़ी ऐसी ही एक बात थी कि एक राजा साहब लखनऊ आए थे। उनके सम्मान में गोष्ठी हुई। सभी साहित्यकार एकत्रित हुए । राजा साहब के आते ही अब लोग उठ खड़े हुए , केवल निराला जी बैठे रहे। राजा साहब के लिए एक भूतपूर्व दीवान लोगों का परिचय कराने लगे –‘गरीब परवर ! ये अमुक साहित्यकार हैं’ जब वह निराला जी तक पहुँचे तब तक महाकवि उठ खड़े हो गये और भूतपूर्व दीवान को ‛गरीब परवर’ से आगे बढ़ने का मौका न देकर बोल उठे–‘ हम वो है जिन के दादा के दादा की पालकी आपके दादा ने उठाई थी।’ यानी भूषण की पालकी छत्रसाल ने उठाई थी । भूषण के वंशज हुए निराला जी और छत्रसाल के वंशज हुए राजा साहब।

ऐसे कितने ही निराले व जीवंत किस्से उनके जीवन से जुड़े रहे हैं। उन्हें समझना सामान्य व्यक्ति व लेखक के बस की बात नहीं है। उनके साहित्य व जीवन से जुड़े संस्मरण पाठक आज भी पढ़कर अचंभित हो सकता है। ऐसा विशाल व निराला साहित्यिक जीवन रहा था।
उनके ऐसे ही निराले व्यक्तित्व व साहित्यिक रूप के लिए नजीर बनारसी ने निराला जी के स्वर्ग चले जाने पर कहा था…

अलग उसका रस्ता, अलग उसकी मंजिल
निराली डगर और राही निराला ।
अजब सूर्य डूबा है हिन्दी जगत का
कि डूबा तो कुछ और फैला उजाला।

यह हिन्दी साहित्य का निराला सूर्य भले देह से अस्त हो गया हो, लेकिन हिन्दी साहित्य व हिन्दी भाषा में आज भी ओर आगे भी अपने साहित्यिक प्रकाश से चमकता रहेगा। उनके निराले विशाल व्यक्तित्व ने हिन्दी साहित्य को आज भी प्रकाशित रखा है। इसलिए ही इस हिन्दी साहित्य के निराला “सूर्य” ने अपनी कविता के माध्यम से कहा था ;-

अभी-अभी ही तो आया है
मेरे वन में मृदुल वसंत
अभी न होगा मेरा अंत ,

द्वार दिखा दूँगा फिर उनको
है मेरे वे जहाँ अनंत
अभी न होगा मेरा अंत।

मेरे ही अविकसित राग से
विकसित होगा बन्धु, दिगन्त;
अभी न होगा मेरा अंत।

संदर्भ

1. https://www.rachanakar.org/2007/10/blog-post_7060.html?m=1

2. https://www.amarujala.com/columns/opinion/hero-of-spring-suryakant-tripathi-nirala

3. https://m.bharatdiscovery.org/india/

4. निराला संचयिता, वाणी प्रकाशन , संस्करण 2010

5. नया ज्ञानोदय पत्रिका अंक मार्च 2018, महाकवि निराला पर एकाग्र

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