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भरि लोचन बिलोकि अवधेसा। तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा।

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।

बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतमिति ॥ मैत्रायणी उपनिषद ४.११।।

मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष में मन ही कारण है । विषय संग करने से वह बंधन का कारण है और विषय शून्य होने से मोक्षप्रद।

अब कोई यह भी कह सकता है ऐसे मोक्ष और मृत्यु में क्या अंतर है। इससे तो विषयी रहना ही भला। अंततः मनुष्य सुख की प्राप्ति हेतु हि तो किसी भी कार्य में लगता है।‌ परन्तु यह संसार का नियम या स्वभाव ही है कि इसके किसी भी विषय में सुख क्षणभंगुर हि है। या तो अभीष्ट वस्तु मिलती नहीं। मिले तो उसकी रक्षा की चिंता घटती नहीं। उससे वियोग भी अवश्यंभावी है। और यदि यह सब न हो तो मनुष्य स्वयं ही उससे उपराम होकर अन्य विषय को पकड़ता है और क्रम चलता रहता है। और फिर होता है यह-

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।

सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।

क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।   (भगवद्गीता २.६२-६३)

विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्तिसे कामना पैदा होती है। कामना (में विघ्न)से क्रोध पैदा होता है। क्रोध होनेपर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोहसे स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्यका पतन हो जाता है।

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।

न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।। २.६६   गीता।।

(संयमरहित) अयुक्त पुरुष को (आत्म) ज्ञान नहीं होता और अयुक्त को भावना और ध्यान की क्षमता नहीं होती भावना रहित पुरुष को शान्ति नहीं मिलती अशान्त पुरुष को सुख कहाँ।

तो भाई कहां है सुख ? इस पर गीताचार्य भगवान कहते हैं

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।

आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।२.६४।।

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।

प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।२.६५।।

आत्मसंयमी (विधेयात्मा) पुरुष रागद्वेष से रहित अपने वश में की हुई (आत्मवश्यै) इन्द्रियों द्वारा विषयों को भोगता हुआ प्रसन्नता (प्रसाद) प्राप्त करता है।

प्रसाद के होने पर सम्पूर्ण दुखों का अन्त हो जाता है और प्रसन्नचित्त पुरुष की बुद्धि ही शीघ्र ही स्थिर हो जाती है।

सुख का मार्ग तो प्रशस्त होगया पर मन को वश में करना इतना ही सरल होता तो अर्जुन जैसा शूरवीर योद्धा यह कहता हि क्यों –

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।६.३४।।

हे कृष्ण ! मन बड़ा ही चञ्चल, प्रमथनशील, दृढ़ (जिद्दी) और बलवान् है। उसका निग्रह करना मैं वायुकी तरह अत्यन्त कठिन मानता हूँ।

पर बिना  पुरुषार्थ और कष्टके संसार में कुछ भी सुलभ नहीं। अत: अपना उत्थान और पतन अपने ही हाथ है।  इसी से भगवान ने कहा

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।

महबाहो ! नि:सन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है; परन्तु, हे कुन्तीपुत्र ! उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है।।

यह अभ्यास और वैराग्य रूपी पुरुषार्थ से वश में किया हुआ मन ही परमपद की प्राप्ति का हेतु है। इस वासना रहित मन को छोड़कर और कोई परमपद नहीं ‌

संत्यक्तवासनान्मौनादृते नास्त्युत्तमं पदम् ॥ मुक्तिकोपनिषद २.२१॥

पर मन का स्वभाव ही है कि यह कहीं न कहीं लगेगा हि। किसी न किसी वस्तु को विषय करेगा हि। अतः इसे वासना शून्य करना हो तो इसे उपासना में लगाना होगा।  उपासना का अर्थ आदि शंकराचार्य ने गीता भाष्य १२.३ इस प्रकार बताया-

उपास्यस्य अर्थस्य विषयीकरणेन सामीप्यम् उपगम्य तैलधारावत् समानप्रत्ययप्रवाहेण दीर्घकालं यत् आसनम् तत् उपासनमाचक्षते

उपास्य वस्तुको शास्त्रोक्त विधिसे बुद्धिका विषय बनाकर उसके समीप पहुँचकर तैलधाराके तुल्य समान वृत्तियोंके प्रवाहसे जो दीर्घकालतक उसमें स्थित रहना है उसको उपासना कहते हैं।

तो ध्यान देने कि बात यह है कि बुद्धि वृत्ति के प्रवाह को ‘शास्त्रोक्त ‘ विधि से किसी वस्तु में लगाना‌ और उसमें स्थित होना।

यह होता श्रीभगवान की धारणा करने से। क्या है यह धारणा?

मूर्त्तं भगवतो रूपं सर्वापश्रयनि:स्पृहम्।

एषा वै धारणा प्रोक्ता यच्चितं तत्र धार्यते।। विष्णुपुराण ६.७.७८।।

भगवान का सगुण रूप चित्त को अन्य आलम्बनों से नि:स्पृह कर देता है। इस प्रकार चित्त को भगवान में स्थिर करना ही धारणा है।

और यह कैसे होती है‌-

एकैकशोऽङ्गानि धियानुभावयेत्

पादादि यावद्धसितं गदाभृत: ।

जितं जितं स्थानमपोह्य धारयेत्

परं परं शुद्ध्यति धीर्यथा यथा ॥ श्रीमद्भागवत – २.२.१३।।

भगवान के चरण कमलोंसे लेकर उनके मुसकानयुक्त मुख-कमल पर्यन्त समस्त अंगोंकी एक एक करके बुद्धि के द्वारा धारणा करनी चाहिए। जैसे जैसे बुद्धि शुद्ध होती जाएगी, वैसे वैसे चित्त स्थिर होता जायगा। जब एक अंग का ध्यान ठीक ठीक होने लगे तब उसे छोड़कर दूसरे अंग का ध्यान करना चाहिए।

व्रजतस्टिष्ठतोऽन्यद्धा स्वेच्छया कर्म कुर्वत:।

नापयाति यदाचित्तात्सिद्धां मन्येत तां तदा।। विष्णुपुराण ६.७.८७।।

जब चलते फिरते उठते बैठते स्वेच्छानुकूल कोई कर्म करते हुए ध्येय मूर्ति चित्त से दूर न हो तो इसे सिद्ध हुई मानना चाहिए।

अब कोई प्रश्न उठा सकता  है कि भगवान के अंगों को कैसे देखें क्योंकि भगवान को तो किसी ने देखा ही नहीं।  अभी हाल ही में एक  रामकथा का चलचित्र चर्चा में है। उसमें रामायण के पात्रों का स्वरूप देखकर सामान्य आस्तिक जन कुछ प्रसन्न नहीं है।‌वही कुछ बुद्धिमान उपयर्युक्त तर्क के आधार पर रचैयताओं की क्रिएटिव फ्रीडम का समर्थन कर रहे हैं।

पर मेरे मत में यह तर्क वितर्क ठीक नहीं। जिस शास्त्र में भगवान के ध्यान की इतनी विस्तृत प्रणाली है उसमें ध्येय का स्वरूप न बताया हो यह कैसे संभव है। जैसा कि पहले कहा कि शास्त्रोक्त विधि से उपास्य को विषय बनाना। तो शास्त्रोक्त विधि से भगवान को मन तब विषय बनायगा जब उनके शास्त्रोक्त स्वरूप की धारणा करेंगे। मान लो श्रीरामचन्द्र भगवान की ही धारणा करनी हो तो उनका जो स्वरूप  रामायण  में है तदनुसार उसका चिंतन करना होना चाहिए।  वाल्मीकि रामायण हो या तुलसी बाबा की रामचरितमानस, सभी कवि राम की रूप माधुरी का एक सा वर्णन करते हैं।  वाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड के ३५ वें सर्ग में तो राम के एक एक अंग का बड़ा स्पष्ट स्पष्ट वर्णन हुआ है ।  यहां तक कि राम के गुप्त अंगों  और शारीरिक चिह्नों का भी  उल्लेख हुआ है। आईए मन को  राम के उस रूप ओर लेचलें।

राम: कमलपत्राक्ष: पूर्णचंद्रनिभानन:।

रूपदाक्षिण्यसम्पन्न: प्रसूतो जनकात्मजे।। वा०रा० ५.३५.८।।

जनकनंदिनी! राम के नेत्र प्रफुल्लकमलदलके समान विशाल और सुंदर हैं। मुख पूर्णिमाके चन्द्र के समान मनोहर है। वे जन्म से ही रूप और गुणों से सम्पन्न हैं।

विपुलांसो महाबाहु: कम्बुग्रीव: शुभानन:।

गूढ़जत्रु: सुताम्राक्षो रामो नाम जनै: श्रुत:।।

उनके कंधे पुष्ट , भुजाएं बड़ी बड़ी गला शंख के समान और मुख सुन्दर है। गले हंसली मांसल है। और नयन में कुछ लालिमा है।

दुन्दुभिस्वननिर्घोष: स्निगधवर्ण: प्रतापवान।

समश्च सुविभक्तांगो वर्णं श्यामं समाश्रित:।।

उनका स्वर दुन्दुभि के समान गंभीर और शरीर का रंग सुंदर एवं चिकना है । प्रताप बढ़ा चढ़ा है। सभी अंग बराबर और सुडौल है। श्याम रंग की कान्ति है।

त्रिस्थिरस्त्रिप्रलम्बश्च त्रिसमस्त्रिषु चोन्नत:।

त्रिताम्रस्त्रिषु च स्निग्धो गम्भीरस्त्रिषु नित्यश:।।

उनके तीन अंग- वक्ष:स्थल, कलाई, मुट्ठी सुदृढ़ है। भौहें, भुजाएं, मेढ, यह तीन अंग लंबे हैं। केशों का अग्रभाग अण्डकोष और घुटने बराबर हैं। वक्ष: स्थल, नाभि के किनारे का भाग और उदर यह तीन उभरे हुए हैं। नेत्रों के कोने,नख,हाथ-पैर के तलवे लाल है। शिश्न के अग्रभाग, दोनों चरणों कि रेखाएं सिर के बाल ये स्निग्ध है। स्वर चाल और नाभि गंभीर है।

त्रिवलीमांस्त्र्यवनतश्चतुर्व्यङ्गस्त्रिशीर्षवान्।

चतुष्कलश्चतुर्लेखश्चतुष्किष्कुश्चतु:सम:।।

उनके उदर तथा गले में तीन रेखाएं। तलवोंके मध्यभाग, पैरोंकी रेखाएं और स्तन के अग्रभाग धसे हुए हैं। गला, पीठ, तथा दोनों पिण्डलियाॅं ये चार अंग छोटे हैं। मस्तकमें तीन भॅंवरें हैं। पैरोंके अंगूठेके नीचे तथा ललाट में चार चार रेखाएं हैं। वे चार हाथ ऊंचे हैं। उनके कपोल भुजाएं जाॅंघें और घुटने ये चार बराबर हैं।

दशपद्मो दशबृहत् त्रिभिर्व्याप्तो द्विशुक्लवान्।

षडुन्नतो नवतनुस्त्रिभिर्व्याप्नोति राघव:।।

उनके नेत्र, मुख विवर, मुखमण्डल, जिह्वा,ओंठ, तालु, स्तन,नख,हाथ पैर- ये दस कमल के समान हैं। छाती,मस्तक,ललाट,गला, भुजाएं, कंधे,नाभि,चरण, पीठ और कान ये दस अंग विशाल हैं। पार्श्व भाग,उदर,वक्ष:स्थल,नासिका, कंधे और ललाट यह छ: अंग ऊंचे हैं। केश, नख,लोम,त्वचा, अंगुलियों के पोर , शिश्न, बुद्धि, दृष्टि ये नौ सूक्ष्म हैं। उनके मातृकुल और पितृकुल शुद्ध हैं। वे श्री, यश और प्रताप से व्याप्त हैं। वे तीनों कालों में धर्म अर्थ और काम का अनुष्ठान करते हैं।

(वाल्मीकिरामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग ३५)

कुछ ऐसे ही वर्णन को तुलसीदास जी जन सामान्य के लिए ऐसे लिखते हैं –

सरद मयंक बदन छबि सींवा।

चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा।।

अधर अरुन रद सुंदर नासा।

बिधु कर निकर बिनिंदक हासा।।

उनका मुख शरद (पूर्णिमा) के चन्द्रमा के समान छबि की सीमास्वरूप था। गाल और ठोड़ी बहुत सुंदर थे, गला शंख के समान (त्रिरेखायुक्त, चढ़ाव-उतार वाला) था। लाल होठ, दाँत और नाक अत्यन्त सुंदर थे। हँसी चन्द्रमा की किरणावली को नीचा दिखाने वाली थी।

नव अंबुज अंबक छबि नीकी।

चितवनि ललित भावँतीजी की।।

भृकुटि मनोज चाप छबि हारी।

तिलक ललाट पटल दुतिकारी।।

नेत्रों की छवि नए (खिले हुए) कमल के समान बड़ी सुंदर थी। मनोहर चितवन जी को बहुत प्यारी लगती थी। टेढ़ी भौंहें कामदेव के धनुष की शोभा को हरने वाली थीं। ललाट पटल पर प्रकाशमय तिलक था।

कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा।

कुटलि केस जनु मधुप समाजा।।

उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला।

पदिक हार भूषन मनिजाला।।

कानों में मकराकृत (मछली के आकार के) कुंडल और सिर पर मुकुट सुशोभित था। टेढ़े (घुँघराले) काले बाल ऐसे सघन थे, मानो भौंरों के झुंड हों। हृदय पर श्रीवत्स, सुंदर वनमाला, रत्नजड़ित हार और मणियों के आभूषण सुशोभित थे।

केहरि कंधर चारु जनेऊ।

बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ॥

मकरि कर सरिस सुभग भुजदंडा।

कटि निषंग कर सर कोदंडा।।

सिंह की सी गर्दन थी, सुंदर जनेऊ था। भुजाओं में जो गहने थे, वे भी सुंदर थे। हाथी की सूँड के समान (उतार-चढ़ाव वाले) सुंदर भुजदंड थे। कमर में तरकस और हाथ में बाण और धनुष (शोभा पा रहे) थे।।

तड़ित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि।

नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भँवर छबि छीनि।।

स्वर्ण-वर्ण का प्रकाशमय) पीताम्बर बिजली को लजाने वाला था। पेट पर सुंदर तीन रेखाएँ (त्रिवली) थीं। नाभि ऐसी मनोहर थी, मानो यमुनाजी के भँवरों की छबि को छीने लेती हो।

इसी प्रकार नारदपुराण, पूर्वभाग के ७३ अध्याय में , भुषुण्डी रामायण पूर्वखण्ड के अध्याय ५१-५२ में, रामपूर्वतापनीयोपनिषद और रामरहस्योपनिषद में भगवान श्रीराम के विभिन्न ध्यानों का वर्णन है। अधिक विस्तार के भय से उनका संक्षिप्त वर्णन किया गया है।

राम रूप के विषय में और अधिक क्या कहें। महाभारत के वनपर्व में आए रामोपाख्यान में यहां तक कह दिया गया- अमित्राणाम् अपि दृष्टिमनोहरं- श्रीराम शत्रुओं को भी देखने में मनोहर लगते थे। यहीं कारण है मानस के अरण्यकाण्ड में राम वध को आतुर खर उनके रूप लावण्य को देखकर कहता है-

जद्यपि भगिनी कीन्हि कुरूपा।

बध लायक नहिं पुरुष अनूपा।

भले ही इसने मेरी बहन शूर्पणखा को कुरूप कर दिया पर यह अनुपम पुरुष वध लायक नहीं है।

तो इस प्रकार से कोई यदि श्रीराम रूप की धारणा करे तो अनायास ही उसका चंचल मन सब विषयों से हटकर अपने सहज  स्वरूप में स्थित हो जाता है। और जिसने मन जीत लिया उसने संसार पर विजय प्राप्त कर ली।

अतः भगवान स्वयं भी कहते हैं

प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।

मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः।।

युञ्जन्नेवं सदाऽऽत्मानं योगी नियतमानसः।

शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति।।  भगवद्गीता ६.१४-१५

प्रशान्त अन्त:करण, निर्भय और ब्रह्मचर्य ब्रत में स्थित होकर, मन को संयमित करके चित्त को मुझमें लगाकर मुझे ही परम लक्ष्य समझकर बैठना चाहिए।।

इस प्रकार सदा मन को स्थिर करने का प्रयास करता हुआ संयमित मन का योगी मुझमें स्थित परम निर्वाण (मोक्ष) स्वरूप शांति को प्राप्त होता है।

इस प्रकार भगवदाकार हुआ मन सभी वासनाओं से मुक्त हो अत्यंत शुद्ध हो जाता है । और इस शुद्ध हुए चित्त में तत्व ज्ञान को योग्यता आ जाती है।

और ज्ञान होते ही

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशया: ।

क्षीयन्ते चास्य कर्माणि द‍ृष्ट एवात्मनीश्वरे।। १.२.२१. श्रीमद्भागवत।।

हृदय की ग्रन्थि  टूट जाती है सब संदेह छिन्न भिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म बन्धन नष्ट हो जाते हैं।

तो यह थी अक्षय सुख प्राप्ती की भारतीय प्रणाली।

निगम आगम पुराण,सभी श्रीराम का ही नहीं अपितु देवि ,शिव, गणपति, सूर्य , विष्णु, स्कन्द इन सबका  रूप वर्णन करते करते नहीं अघाते। आपका भगवान के जिस भी रूप से अनुराग है उसका शास्त्र बड़े ही स्पष्ट रूप से वर्णन करते हैं।जिन्हें उस रूप का अवलोकन करना हो वह भाव से इस अपार वांग्मय समुद्र में डुबकी लगाए।‌

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