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प्राचीन भारत के गणितीय ख़ज़ाने- चौथा भाग

शून्य से लेकर 1017 (परार्ध) और 1023 (महाक्षोभ) जितनी बड़ी संख्याएँ। वास्तव में,तो कुछ लोग दावा करते हैं कि हमने 1023 से भी बड़ी संख्याओं की खोज कर दी थी । २००० वर्ष पुराने ‘ललित विस्तार सूत्र‘ नामक बौद्ध ग्रंथ में गणितज्ञ अर्जुन और बोधिसत्वगौतम का शास्त्रार्थ दिया गया है।

महाराज दण्डपाणी की पुत्री गोपा से जब उनका विवाह तय हुआ तो उन्हें उस समय के रीति के अनुसार गौतम को परीक्षा देनी पड़ी और जब बारी गणित की आई तो उस समय के महान गणितज्ञ अर्जुन ने उनसे पूछा – राजकुमार गौतम क्या तुम कोटि से आगे की शतोत्तर गणना जानते हो ? राजकुमार का उत्तर हाँ में था और उन्होंने  1053= तल्लक्ष्ण तक की संख्या बता दी इसके आगे भी उन्होंने संख्या 10421 =ध्वजग्रनिश्मनि का उल्लेख किया जिसका मान आजके सबसे बड़े सख्या गुगोल (10100) से कितना ही अधिक है। लेकिन प्रश्न ये है कि हम भारतीयों को इतनी बड़ी संख्याओं की आवश्यकता क्यों पड़ी?

क्या हमें दिन-प्रतिदिन की बातचीत में इतनी बड़ी संख्या की आवश्यकता है? हम में से प्रत्येक व्यक्ति अति प्रसन्न होगा अगर उसका वेतन 1010 के गुणज(multiple) में हो, किंतु ये हो नहीं सकता। क्या यह संभव हो सकता है कि बीते युग के राजा विद्वानों को इतने अनुपात में धन दान कर रहे थे? यदि नहीं, तो इतनी बड़ी संख्याओं के अस्तित्व में होने का क्या उद्देश्य है?

यह निर्विवादित सच है कि हमारे दिन-प्रतिदिन के जीवन में, हमें ऐसी बड़ी संख्या की आवश्यकता नहीं हो सकती है। लेकिन कौन कहता है कि गणित का एकमात्र उद्देश्य हमारी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करना है? क्या मूलभूत अंकगणित ही गणित का एकमात्र उद्देश्य होना चाहिए? इस तरह के तर्कों के बाद भी हमार प्रश्न वैसे ही अनुत्तरित खड़ा है कि “इतनी बड़ी संख्याएँ क्यों?”

यह अनुमान है कि हमारी आकाशगंगा में अरबों-खरबों तारे हैं, और ब्रह्मांड में अरबों आकाशगंगाएँ हैं। तारों के बीच की दूरियाँ बहुत बड़ी हैं, उनके बीच की दूरियाँ प्रत्येक दिन बढ़ती ही जा रही हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड का विस्तार हो रहा है। ताप या प्रकाश के रूप में तारों द्वारा बहुत बड़े पैमाने पर ऊर्जा उत्सर्जित होती है। अंतरिक्ष में इन विशाल गोलों द्वारा जो गुरुत्वाकर्षण बल डाला जा रहा है वह हास्यास्पद रूप से उच्च है। और ब्रह्मांड की आयु बारे में तो क्या कहना? यह सब आंकने और मापने के लिए दूरी की चरम इकाइयों की माँग करते हैं।

वर्तमान समय में दूरी की अंतर्राष्ट्रीय मानक (S.I) इकाई मीटर है। यह लंबाई या दूरी मापने के लिए एक व्यापक रूप से प्रयुक्त इकाई है। फिर भी, खगोल विज्ञान के क्षेत्र में, लोग अन्य इकाइयों को पसंद करते हैं, जैसे कि खगोलीय इकाई, प्रकाश वर्ष, परा-सेकंड आदि। खगोलविदों को इन नई इकाइयों का उपयोग करके बड़ी दूरी को व्यक्त करना सुविधाजनक लगता है।

आर्यभट्ट, जिन्हें पिछले 2000 वर्षों की सबसे बड़ी प्रतिभाओं में से एक माना जाता है, ने खगोल विज्ञान के अपने अध्ययन में बहुत कठिनाइयों का सामना किया था। उस समय तक दशमलव प्रणाली पूरी तरह से विकसित हो गयी थी और इसलिए “बारह हजार तीन सौ पैंतालीस” जैसी बड़ी मात्रा को व्यक्त करना 1, 2, 3, 4, 5. लिखना जितना सरल था, लेकिन यह प्रणाली उनके काम के लिए पर्याप्त नहीं थी। एक और टीस देने वाली समस्या यह थी कि उन्हें अपना आलेख लिखने के लिए छंदों का निर्माण करना पड़ा था। छंद आकार में छोटे होने चाहिए थे, ताकि उन्हें याद रखना आसान हो, और फिर भी बहुत कुछ व्यक्त करने में सक्षम हो! एकमात्र समाधान जो वह देख सकते थे, वह संख्याओं को व्यक्त करने का दूसरा तरीका बनाना था, अर्थात् एक और संख्या प्रणाली बनाना। इस प्रणाली में, अलग-अलग संख्याओं के लिए अलग-अलग शब्द बनाए जा सकते हैं। इन नए शब्दों को छंद में प्रयुक्त किया जा सकता है। इसके अलावा, बड़ी संख्या को व्यक्त करने के लिए, उन्हें बहुत छोटे शब्दों की आवश्यकता थी। याद करें कि पिछले लेख में, हमने विभिन्न कोणों पर त्रिकोणमितीय कार्यों के मूल्यों के बारे में बात की थी। त्रिकोणमितीय सूत्रों के मान/मूल्यों के बारे में एक छंद लिखते समय, आर्यभट्ट क्रमशः मखि, भखि, फखि, जैसे शब्दों का उपयोग 225, 224, 222 जैसी संख्याओं को क्रमशः व्यक्त करने के लिए करते हैं।  अन्यथा, इन संख्याओं को व्यक्त करने के लिए उन्हें  पञ्चविंशत्यधिकं द्विशतम्, चतुर्विंशत्यधिकं द्विशतम् और द्वाविंशत्यधिकं द्विशतम् जैसे शब्दों की आवश्यकता होती।

गणित में आर्यभट्ट के कार्य ऐवम रचना की तुलना पाणिनी के संस्कृत व्याकरण के काम से की जा सकती है। बहुत से शब्दों को व्यक्त करने में सक्षम छोटे शब्दों के लिए, पाणिनी ने नए प्रकार के नए शब्द बनाए, जिन्हें उन्होंने प्रत्याहार कहा। इन प्रत्याहारों की स्पष्ट समझ के बिना, कोई भी पाणिनी के काम को नहीं समझ सकता है। आर्यभट्ट के कार्य के लिए भी यही सच है। अपने ग्रंथ “आर्यभट्टिय” में, प्रारंभिक अभिवादन और प्रस्तावना के बाद, जो उन दिनों एक सामान्य प्रथा थी, आर्यभट्ट लिखते हैं –

वर्गाक्षराणि वर्गेऽवर्गेऽवर्गाक्षराणि कात् ङ्मौ य:। खद्विनवके स्वरा नव वर्गेऽवर्गे नवान्त्यवर्गे वा॥

ये पंक्तियाँ पहली नजर में गूढ़ लगती हैं, विशेषतः उन लोगों के लिए जिन्हें संस्कृत और गणित का केवल प्रारंभिक ज्ञान है।

वास्तव में, यह आर्यभट्ट का सबसे महत्वपूर्ण छंद है, यह इस कारण है कि वह अपनी नयी प्रणाली इसमें बताते हैं। यदि यह नहीं समझा जाता है, तो पूरा ग्रंथ खिचड़ी अक्षरों के अर्थहीन अनुक्रमों का एक संग्रह बन जाता है। उनके अनुसार, वर्णमाला के क से तक के अक्षर क्रमशः 1, 2,…, 25 के मान से निर्दिष्ट किए जाते हैं। तत्पश्चात् य से ह तक के अक्षरों को क्रमशः 30, 40,…, 100 मान दिए जाते हैं। 9 स्वरों (अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ) में से प्रत्येक के लिए, वह उन्हें दो अलग-अलग मान प्रदान करते हैं 1 या 10, से लेकर  1016 (मध्य) अथवा 1017 (परार्ध) तक, इस अनुसार कि क्या इन्हें वर्गस्थान या अवर्गस्थान पर रखा गया है।

आर्यभट्ट हम अच्छी तरह से समझते हैं कि उपरोक्त अनुच्छेद एक पाठक के लिए आर्यभट्ट की शब्दावली को पूरी तरह से जानने के लिए पर्याप्त नहीं है। सब कुछ समझाना और समझा पाना दोनो इस लेख के दायरे से बाहर है। फिर भी,मैं पाठकों को आर्यभट्ट के काम में रुचि जगाने के लिए प्रोत्साहित करने का प्रयत्न करूँगा। आइए मखि पर विचार करें। दाईं ओर से प्रारंभ करें, ख् + इ। अक्षर “ख” का मान 2 हो जाता है और स्वर “इ”का मान 100 हो जाता है। इस प्रकार,”खि” का मान 2 × 100 = 200 के लिए स्थिर होता है। अब “म” आता है, जिसका मान 25 हो जाता है। 200 में 25 जोड़ें, और आपको 225 मिलता है! यही बात अन्य पद ( term) जैसे कि भखि पर लागू होती है। “खि” का मान 200 है और “भ” का मान 24 आता है। तो “भखि” का मान 224 होगा। इसी तरह, “फखि” का मान 222 है, क्योंकि “फ” का मान 22 है। यह लेखक के ऐसे और बहुत शब्दों से अवगत कराने का एक बहुत छोटा प्रयास है, जिनका आर्यभट्ट ने उपयोग किया और इस तरह के गूढ़ शब्दों की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।

आर्यभट्ट के अनुसार (और वह अपने स्थान पर बिलकुल सही हैं) एक संख्या के वर्ग  को प्राप्त करना और एक ज्यामितीय वर्ग का क्षेत्रफल समान प्रकार की गणना है। एक संख्या के घन की गणना और एक ठोस घन  की मात्रा प्राप्त करने के लिए भी यही बात लागू होती है।

वर्ग: समचतुरस्र: फलं च सदृशद्वयस्य संवर्ग:। सदृशत्रयसंवर्गो घनस्तथा द्वादशाश्रि: स्यात्॥

निस्संदेह, वर्ग और घन की गणना करना थोड़ा सरल काम है; लेकिन इसका उल्टा करना यानि मूल निकालना आसान नहीं है। लेकिन यहां भी, आर्यभट्ट ने वर्गमूल (square root) और संख्याओं के घनमूल (cube root)  को खोजने की एक नई विधि का प्रस्ताव करके एक महान काम किया और इस गणना को सरल कर दिया। इसे ही आज “लॉन्ग हैंड रूल” (Long Hand Rule) कहा जाता है और अब ये माध्यमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम का भाग है।

गणित में उनके अनगिनत योगदानों (जिनमें से कुछ पर बाद के लेखों में चर्चा की जाएगी) के बाद भी, आर्यभट्ट खगोल विज्ञान पर अपने काम के लिए अधिक प्रसिद्ध हैं। इस क्षेत्र में उनके कार्यों और शोध के लिए एक श्रद्धांजलि के रूप में, भारत द्वारा प्रक्षेपित गया पहला उपग्रह उनके नाम पर रखा गया था। इसे आर्यभट्ट नाम दिया गया था, जिसे उनका नाम गलती से माना गया था। हालाँकि, उन्होंने स्वयं अपने ग्रंथ में आर्यभट्ट के रूप में अपने नाम का उल्लेख किया है।

उन्होंने पृथ्वी, सूर्य, चंद्रमा और सौरमंडल के तत्कालीन ज्ञात ग्रहों सहित विभिन्न खगोलीय वस्तुओं के व्यास को खोजने का प्रयास किया। आर्यभट्ट ने लिखा-

नृषि योजनं ञिला भूव्यासोऽर्केन्द्वोर्घिञा गिण

 इस छंद का गूढ़वाचन करने के लिए या व्याख्या करने के लिए हमें कुछ प्रयासों की आवश्यकता होगी; और यह पूरा छंद नहीं है। केवल पद्य का प्रारम्भ ही यहाँ लिखा गया है। आर्यभट्ट के अनुसार, एक योजन 8000 पुरुषों (षि) की कुल लम्बाई (यानी 5फीट के रूप में एक आदमी की ऊंचाई मानकर) लगभग 40000 फीट है। इस समझ को ध्यान में रखते हुए, आइए देखें कि कविता क्या इंगित करती है। पृथ्वी (भू) का व्यास क्रमशः 1050 योजन (निला) है, और सूर्य और चंद्रमा (अर्केन्द्वो:) के व्यास क्रमशः 4410 योजन (घिणा) 315 योजन (गिण) हैं। ध्यान दें कि 40000 फीट लगभग 12 किमी है। इस प्रकार, इन विशाल क्षेत्रों के व्यास, आर्यभट्ट के अनुसार, क्रमशः 12600 किमी, 52920 किमी और 3780 किमी तक निकलते हैं। आधुनिक विज्ञान द्वारा प्राप्त पृथ्वी का व्यास 12800 किमी है! जैसे  आप आश्चर्यचकित हुए, मैं भी आश्चर्यचकित था! चंद्रमा का व्यास अब 3500 किमी लगभग आंका गया है, जो आर्यभट्ट द्वारा दिए गए आंकड़े (3780) के बहुत निकट है।

कोई भी प्रयत्न नहीं करने वाला मनुष्य कभी कोई भूल या त्रुटि नहीं करता। जो प्रयत्न और परिश्रम करेगा, ग़लतियाँ उस से ही होंगी। यहाँ तक कि कभी कभी दिग्गज भी हड़बड़ाते हैं और विजेता भी लड़खड़ा जाते हैं। हम जानते हैं कि सदैव सही उत्तर ही याद नहीं रखे जाते, बहुत बार भूलों और त्रुटियों का भी महत्व होता है,  और इसलिए, हमारे पूर्वजों की विफलताओं पर चर्चा करने में कुछ भी अनुचित नहीं है क्योंकि हम अभी भी उनकी त्रुटियों के माध्यम से बहुत कुछ सीख सकते हैं। केवल गौरवशाली अतीत के बारे में सोचने से हम आत्म-अभिमानी बन सकते हैं।

सूर्य और अन्य ग्रहों जैसे बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति और शनि के लिए आर्यभट्ट द्वारा प्राप्त व्यास आधुनिक विज्ञान द्वारा प्राप्त वास्तविक दूरी से बहुत दूर हैं। इन सभी गणनाओं को करने में उनकी कुछ मान्यताओं और उनकी इसमें असफलताओं के कारणों का अभी भी पूरी तरह से पता नहीं है। हमें उसकी विधि को पूरी तरह समझने के लिए गहरी विवेचना करने की आवश्यकता है। अवश्य ही इस तरह के प्रयास ज्ञान के नए द्वार खोल सकते हैं और उस समय के उन्नत ज्ञान पर अधिक प्रकाश डाल सकते हैं, अतः इस दिशा में नवीनीकृत और परिष्कृत प्रयास आवश्यक हैं। हमारी सभ्यता तो अनादि काल से प्रयास आधारित ही रही है जैसा इस श्लोक में वर्णित है-

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।

न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:।।

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