इस लेख के पहले भाग में, हमने सभ्यता दर्शन के आयाम से महाभारत का अन्वेषण करने का प्रयास किया था। पहले भाग में प्रस्तुत चिंतन विचारकों, दार्शनिकों, संस्थान निर्माताओं और राजनेताओं के मनन के लिए काफ़ी उपयुक्त हैं।
पहले भाग में जिन दर्शनों की चर्चा की गई है विशेष रूप से – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, उनका राष्ट्र के पुनर्निर्माण में लाभ उठाने की अत्यंत आवश्यकता है। हालांकि, उनके निहितार्थ भविष्य के लिए भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। महाभारत में एक और चीज का भंडार भी है जो तत्काल मंथन और मनन का विषय है, वह है इतिहास का आयाम।
महाभारत के ऐतिहासिक आयाम को एक स्पष्टीकरण की आवश्यकता है। भारतवर्ष का शास्त्रीय साहित्य मौलिक रूप से साहित्यिक, रूपक और प्रकृति में दार्शनिक है। साथ ही हमारे शास्त्रीय साहित्य में बहुत कुछ विज्ञान के दायरे में भी है।
बहुत कम वस्तुओं को सीधे विशुद्ध रूप से ऐतिहासिक रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। इनमें सबसे पहले पाषाण शिलालेख निश्चित रूप से हैं, लेकिन उन्हें कठिन शाब्दिक अर्थों में साहित्य के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया है। हमें इसे बदलना तो चाहिए, लेकिन यह बात मूल विषय नहीं है। भारत के संदर्भ में शास्त्रीय साहित्य या काव्य, जो रूपक हैं, उन सब में एक ऐतिहासिक आयाम है। हमें इस तरह के कार्यों से ऐतिहासिक जानकारी निकालने के लिए एक अनूठी पद्धति विकसित करने की अपरिहार्य आवश्यकता है।
राजाओं और शाखाओं की एक लंबी अर्ध–ऐतिहासिक वंशावली
महाभारत में कितने ही राजवंशों से संबंधित कई राजाओं और उनकी कथाओं का उल्लेख है। उन्हें दार्शनिक वाचन की सुलभ सेवा के लिए विभिन्न पर्वों में रखा गया है। दूसरी अनेक जगहों पर वे मिश्रित कहानियों के रूप में आते हैं जो किसी अन्य चरित्र की यात्रा को समृद्ध करती हैं -जैसे अर्जुन- इंद्र संवाद या युधिष्ठिर- यक्ष संवाद। मार्कंडेय, उग्रश्रवा या भीष्म के माध्यम से भी कितनी ही कहानियों को जीवंत किया गया है।
आदि पर्व, वन पर्व, शांति पर्व, और अनुशासन पर्व ऐसी कहानियों की खान है। ये कथाएँ वास्तव में आकर्षक हैं। वे न केवल हमें राजाओं का वंशवृक्ष बनाने में मदद करती हैं, बल्कि वे प्राचीन काल से प्रचलित राजधर्म और संस्कृति के संघर्ष और विकास की झलक भी देते हैं। भौतिक इतिहास के अलावा, वे हमें सभ्यता के प्रवाह को फिर से परिभाषित करने में भी मदद करते हैं।
चूंकि वे एक दार्शनिक या एक रूपक उद्देश्य की सेवा करते हैं, इसलिए बहुधा इतिहास में उनकी प्रासंगिकता खो सी जाती है। यदि इन कहानियों के बीच के सम्बंधों के आधार पर एक वंशवृक्ष बनाया जाता है, तो हमें विभिन्न राजवंशों का एक आकर्षक वंश प्राप्त होता है। हमें चंद्र, पुरु, भरत, पांचाल, काशी, यदु, और इक्ष्वाकुओं की वंशावली का एक एकीकृत और विहंगम दृश्य मिलता है।
इसके अलावा, हरि वंश जिसे खिलापर्व भी कहा जाता है और, जो महाभारत के अंत में आता है, में ऐसे अध्याय शामिल हैं जिन्हें लगभग ऐतिहासिक माना जा सकता है। भागवत में हरिवंश और उससे सम्बंधित लेख लगभग मगध युग तक फैले हुए हैं। नतीजतन,शोधकर्ता को वैदिक काल से लेकर आधुनिक युग तक एक निरंतर प्रवाहित इतिहास मिलता है। हालांकि, विडम्बना ये है कि भारतीय इतिहास इन कथाओं की अवहेलना के साथ लिखा गया है।
आधुनिक भारतीय इतिहास को यूनानी लेखों को मुख्य आधार बना कर लिखा गया है। सामान्य जन के मन में सल्तनत और मुग़ल दरबार में वर्णित कथाओं का ही वर्चस्व है।कितने ही पहलुओं पर पर्याप्त पूछताछ भी नहीं की गई है। फिर भी हमने महाभारत और हरिवंश की उपेक्षा क्यों की है?
कारण स्पष्ट हैं किंतु हम स्वीकारते नहीं है। आधुनिक इतिहासकारों ने बुद्ध से इतिहास शुरू करने के लिए जगह बनाने के लिए, इन सभी को पौराणिक मिथक बताने और बनाने का प्रयास किया है। इसके अलावा, महाभारत से ऐतिहासिक जानकारी निकालने के लिए नई पद्धतियों की आवश्यकता है।
इसके लिए पारंपरिक पद्धतियों और विद्याओं में डूबकर किए अध्ययन की आवश्यकता होती है, जो आधुनिक दुनिया में बहुत कम हैं। ऐसा नहीं है कि किसी ने भी ऐसा करने का प्रयत्न नहीं किया। एफई परगिटर और पंडित कोटा वेंकटचलम ने इसमें महती योगदान दिया है जिन्हें दुर्भाग्यवश आगे नहीं बढ़ाया गया है।
महाभारत से, उसे अन्य महाकाव्यों की कथाओं से जोड़ने के साथ, हम अपने इतिहास को वैदिक काल में दो स्तरों पर फिर से बना सकते हैं
- एक निश्चित इतिहास
- एक प्रशंसनीय इतिहास
हमें स्वीकार करना चाहिए कि कुछ कथाएँ और विवरण अर्ध-ऐतिहासिक हैं। हमें उन्हें अर्ध-इतिहास के रूप में परिभाषित करने के साथ औपचारिक इतिहास में शामिल करना चाहिए। इस तरह हम आज के सामान्य जन के मन में अतीत के बारे में सोचने के विचारों का निर्माण कर सकते हैं। हमें इस बारे में सोचने से पीछे नहीं हटना चाहिए। यही हमारे इतिहास की सच्चाई को और उसे सच्चे तरीक़े से लोगों तक लाने का मार्ग है। हमें पश्चिम से आने वाले इतिहासकारों की सख्त धारणाओं पर खरा उतरने की जरूरत नहीं है।
इससे भी और बुरा परिप्रेक्ष्य ये है कि, कई कथाएँ और विवरण जिन्हें हम वर्तमान में पूरी तरह से ऐतिहासिक मानते हैं, वास्तव में सम्पूर्ण सच नहीं हैं। सबसे बड़ा उदाहरण अशोक का है। इस बात के कितने उदाहरण उपलब्ध हैं कि कलिंग युद्ध से पहले ही वह एक बौद्ध बन चुका था। इतिहास में अन्य राजा भी हैं जिन्होंने देवानामप्रिय प्रियदर्शी की उपाधि ग्रहण की।राजा राम मोहन रॉय की पुस्तक “इंडिया बिफ़ोर ऐलेग्ज़ैंडर” इंगित करती है कि “कुमारगुप्त १” वास्तव में वह राजा थे जिसने देवानामप्रिय प्रियदर्शी की उपाधि ग्रहण की थी। फिर भी हम वही पढ़ते हैं जो हमें नहीं पढ़ना चाहिए। साथ ही हम महाभारत / हरिवंश की कथाओं को इतिहास के बाहर छोड़ देते हैं।
हमारा प्रयत्न होना चाहिए कि आंशिक साक्ष्य वाले अर्ध-ऐतिहासिक कथाओं के रूप में उन्हें इतिहास में लाएँ। आने वाली पीढ़ियों को साक्ष्यों की पूरी इमारत बनाने दें। हमारे संतानों के सामने हमारे अतीत की एक एकीकृत तस्वीर प्रस्तुत करना हमारा अपने पूर्वजों के प्रति एक कर्तव्य है और इसका पालन होना चाहिए।
यह ऐतिहासिक कथानक सिर्फ राजाओं और राजवंशों के ही बारे में नहीं है। भारतवर्ष के महान ऋषियों के लिए भी इसी तरह के वंशवृक्ष और विकास का निर्माण किया जा सकता है और किया जाना चाहिए ।महाभारत ऋषि भृगु और ऋषि अंगिरस के आकर्षक विवरण प्रस्तुत करता है।
इसके साथ ही , महाभारत में आंतरिक संघर्ष और क्रमिक विकास की भी एक बढ़िया प्रस्तुति है। यह बताता है कि ऋषियों के वंश कैसे विकसित हुए। भारतवर्ष में ऋषि परम्परा का विकास कैसे हुआ, ये भी हम महाभारत से समझ सकते हैं। यह समाज में उनके उद्देश्य, मूल्य और आवश्यकता को भी अलग और अनूठे रूप से प्रस्तुत करता है।
सारांश में, महाभारत अपने में प्राचीन काल से हमारी सभ्यता के हुए विकास को समाए हुए है। इसमें हमारी सभ्यता के विचारों और सरोकारों का प्रवाह है। यह मतभेदों, संघर्षों और मेल मिलाप का एक आकर्षक मिलन भी है।
और बातों के साथ इसमें, यह प्रस्तुत किया गया है कि धर्म और पुरुषार्थ की धारणा के साथ समाज कैसे जुड़ा और विकसित हुआ है। एक व्यक्ति सामाजिक जीवन में होने वाले बदलावों और सभी प्रकार की होने वाली खोजों का चित्र देख सकता है। दर्शन इस पूरी यात्रा के माध्यम से समाज का मार्गदर्शन करता रहा है। यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी कई कुल, राजवंशों के माध्यम से हमारे सामने मनोहर रूप से प्रस्तुत हुआ है।
सरस्वती नदी और वैदिक सभ्यता की प्राचीनता
पिछले खंड में, हमने सामान्य रूप से सभ्यता के ऐतिहासिक प्रवाह को महाभारत के द्वारा अनुभव किया। इस खंड में, हम इसके ऐतिहासिक महत्व में महाभारत के एक विशिष्ट भाग का पता लगाते हैं। शल्य पर्व में, बलराम जो एक तीर्थयात्रा पर थे, कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में लौटते हैं। फिर वह अपनी तीर्थयात्रा का बड़े विस्तार से वर्णन करते हैं।
यह वर्णन अत्यंत आकर्षक और सौ से अधिक छंदों में है। उनकी तीर्थयात्रा सरस्वती नदी के उस छोर से प्रभावी ढंग से शुरू होती है जहां नदी समुद्र से मिलती है, और यात्रा का अंत सरस्वती नदी के उद्भव के स्थान पर होता है। स्थानों की एक श्रृंखला और प्रत्येक स्थान पर नदी के प्रवाह की प्रकृति का चित्ताकर्षक वर्णन किया गया है। कई सालों तक, बहुत लोगों ने इस कथन को कोई महत्व दिया क्योंकि सरस्वती को पौराणिक मिथक मात्र ही माना जाता था।
हालांकि, प्रौद्योगिकी ने इस नदी के अब लुप्त हो गए प्रवाह अवशेषों के विश्लेषण को बदल दिया है। उपग्रहिय बिंबविधान और भूवैज्ञानिक विश्लेषण के नए उपकरणों ने आधुनिक दुनिया को एक तरह से चौंका दिया है। सरस्वती वास्तव में एक नदी थी जो एक समय में प्रवाहित होती थी। मानसून पैटर्न में बदलाव के कारण 1800BC के आस पास इसका प्रवाह सूख गया और ये लुप्त हो गयी।
बलराम की तीर्थ यात्रा का वर्णन वास्तव में नदी के उपग्रहिय बिंबविधान प्रवाह से मेल खाता है। इस से भी आगे, तीर्थयात्रा भी नदी को धीरे-धीरे सूखने और उसके प्रवाह में कमी आने को आंशिक रूप से वर्णित करती है। यह स्पष्ट रूप से दो चीजों को स्थापित करता है –
- महाभारत ने 1800BC और उससे भी पहले की घटनाओं की स्मृति को बनाए रखा है
- महाभारत के कम से कम कुछ हिस्सों को 1800BC से पहले लिखा या देखा गया था
ये विश्लेषण इंगित करता है कि 1800BC से पहले हमारी सभ्यता उपस्थित थी। इससे भी महत्वपूर्ण बात है कि यह आर्यन आक्रमण सिद्धांत (AIT) / आर्यन प्रवासन सिद्धांत (AMT) को पूरी तरह खंडित कर देता है। इसे डॉ मिशेल डैनिनो ने सरस्वती नदी पर अपनी पुस्तक में बहुत विस्तार से बताया है।
इस पुस्तक को पढ़ना प्रत्येक भारतीय सभ्यता के प्रेमी के लिए अपरिहार्य है। सभी आर्य आक्रमण/ प्रवासन सिद्धांत के प्रतिपादकों को अब साक्ष्यों के साथ सरस्वती नदी के ना होने को सिद्ध करना होगा। वही सरस्वती नदी जिसे ऋग्वेद में “अम्बी तमे नदी तमे देवि तमे सरस्वती” रूप में वर्णित किया गया है। ऋग्वेद के नदी सूक्त में भी सरस्वती का उल्लेख है कि ‘‘इमं में गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्रि स्तोमं सचता परूष्ण्या असिक्न्या मरूद्वधे वितस्तयार्जीकीये श्रृणुह्या सुषोमया”।
सरस्वती नदी को अब हमारी चेतना में हमेशा के लिए प्रवाहित होना ही चाहिए, वही प्रवाह हमारी सभ्यता की निरंतरता को भी सुनिश्चित करेगा।
भारतीय इतिहास का खगोलीय विवरण और तिथि–निर्धारण
भारत को प्राचीन समय से ही खगोल विज्ञान विशेषज्ञों के देश के रूप में जाना जाता है। खगोल विज्ञान के लिए भारत का अनुराग इतना अधिक है कि भारत का संपूर्ण दैनिक जीवन कई खगोलीय घटनाओं के आसपास घूमता है, पंचांग का दैनिक जीवन में अभी भी होता उपयोग इसका एक प्रासंगिक उदाहरण है।वही राग महाभारत में भी परिलक्षित होता है। महाभारत में घटित कितनी ही घटनाओं के लिए, व्यास ने तारों, सूर्य और अन्य ग्रहों की स्थिति का सटीक वर्णन किया है ।
व्यास के पास ये दिव्यदृष्टि भी शायद थी कि भविष्य में इन सब खगोलीय पिंडों की स्थिति का वर्णन हमारी सभ्यता की पुरातनता को सिद्ध करने में काम आएगा। हो सकता है, वे जानते थे कि भविष्य में भारतवर्ष में सभ्यता का संकट दिखाई देगा जब स्वयं भारतीय और दूसरे विदेशी विद्वान ही हमारी सभ्यता की निरंतरता पर प्रश्न उठाएँगे। उन्होंने अपने वर्तमान को उस ग्रंथ में सांकेतिक रूप से इंगित किया। अब, हमारा यह अतीत स्वयं ही भविष्य के बारे में बताता है।
महाभारत में तीन प्रकार के खगोलीय वर्णन हैं
- विशिष्ट विवरण
- ऐसे विवरण जिनकी व्याख्या की आवश्यकता है
- खगोल विज्ञान का उपयोग करते हुए ज्योतिषीय विवरण
बलराम पुष्य नक्षत्र में तीर्थयात्रा पर जाते हैं और 42 दिनों की समग्र अवधि के बाद श्रवण नक्षत्र में लौटते हैं। यह एक विनिर्दिष्ट और विशिष्ट विवरण है। पखवाड़े में किसी विशेष दिन से मेल खाने वाले रूपक में चंद्रमा का वर्णन एक व्याख्या है। कुरुक्षेत्र युद्ध ऐसे आंशिक विवरणों से भरा है। इसी प्रकार ज्योतिष विवरण हम सभी को अच्छी तरह से ज्ञात हैं।
इनमें से केवल, पहला उदाहरण ही ऐतिहासिक व्याख्याओं के लिए योग्य है। इस तरह के विवरणों का उपयोग करते हुए कई विद्वानों ने महाभारत युद्ध के लिए विभिन्न तिथियों का निर्धारण करने का प्रयास किया है। लेकिन इसका एक पहलू निर्विवादित है। कई खगोलीय घटनाएं 1500BC से परे घटित हुई सिद्ध होती हैं। स्पष्ट रूप से, वैदिक सभ्यता सिंधु-सरस्वती सभ्यता से पहले की है। सम्पूर्ण महाभारत का अभी तक इस दृष्टिकोण से पूरी तरह से विश्लेषण नहीं किया गया है। इस महान ग्रंथ में इस तरह खोजकर विश्लेषण करने के लिए अभी भी बहुत कुछ है।
हमारे राष्ट्र का नाम भारत क्यों और कैसे पड़ा?
आइए अब हम अपना ध्यान हमारे देश के नामकरण और आत्म-संदर्भ के एक पहलू की ओर मोड़ें। जब से सल्तनत ने कदम रखा, धीरे-धीरे हम हिंदुस्तान-दक्खन बन गए। जब से अंग्रेजों ने राज करना शुरू किया तब से हम भारत कहलाने की दिशा में बढ़ गए हैं। 1947 के बाद, हमने खुद को – इंडिया, अर्थात् भारत कहा है। हालांकि इसके बाद भी भारत, इंडिया का गरीब चचेरा भाई ही कहलाता है। फिर भी, हमें यह जानने की जरूरत है कि हम खुद को भारत क्यों कहते हैं। महाभारत इसके लिए भी महत्वपूर्ण है।
आदि पर्व में, महाभारत पुरु वंश के राजा भरत का उल्लेख करता है। वह हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र हैं। भरत की ख्याति के तीन कारण हैं-
- भरत ने अपना साम्राज्य भारतवर्ष के बड़े भूभाग के साथ सुदूर के क्षेत्रों में फैलाया (महाभारत, ऋग्वेद और भागवत में इसके अलावा किसी अन्य इतने बड़े राज्य का कोई अन्य अभिलेख नहीं है)।
- ऋग्वेद की औपचारिक संकलन की शुरुआत उनके शासनकाल के दौरान हुई। ऋग्वेद के महान देवियों में से एक भारती हैं।
- उनका शासनकाल न्यायपूर्ण था। उन्होंने राज्य के लिए एक योग्य उत्तराधिकारी चुना, न कि अपने पुत्र को, बल्कि ऋषि भारद्वाज के पुत्र। इस भव्य बलिदान ने राजवंश की संस्कृति का निर्माण किया।
खैर, उपरोक्त पुष्टि करने के लिए कोई अन्य साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। लेकिन तब से हमारी सभ्यता को भारतवर्ष के रूप में जाना जाता है और यह आज तक जारी है। कई शिलालेख भारतवंश, भारतमंडल, या भारतखंड के बड़े क्षेत्र को संदर्भित करते हैं। इस तरह से ही ही हमने चक्रवर्ती सम्राट भरत की स्मृति को बनाए रखा है ।
महाभारत में भारतमंडल – राज्य, स्थान और नदियों का उल्लेख
अक्सर, यह कहा जाता है और हमें पढ़ाया गया है कि अंग्रेजों के कदम रखने के बाद ही भारत एक राजनीतिक रूप से एकीकृत भू-क्षेत्र बन पाया। यह तर्क मूल रूप से, भू क्षेत्र के रूप में हमारे देश की अतीत की सभ्यता को किसी भी स्थिति से अस्वीकार करने का प्रयत्न करता है।अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि भारतवर्ष में एक सांस्कृतिक एकता भले रही हो लेकिन राजनीतिक एकता कभी नहीं रही। ऐसी धारणा को थोपना भी उन्हीं सब विद्वानों के स्वार्थ की देन है जो हमारी सभ्यता की श्रेष्ठता को नकारते हैं।
खैर, इन विद्वानों के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है कि महाभारत इस धारणा को पूरी तरह से ध्वस्त कर देता है। महाभारत में भारतवर्ष के रूप में वर्णित देश आज के राजनीतिक भारत का बहुत बड़ा हिस्सा है। और क्या, महाभारत में आज के राजनीतिक भारत से बाहर के क्षेत्रों का भी उल्लेख किया गया है। दक्षिण भारतीय राज्यों ने कुरुक्षेत्र युद्ध में भाग लिया था। भारतवर्ष / भारत निश्चित रूप से उस समय से हमारी चेतना का भाग रहा है।
यहाँ सभी राज्यों, स्थानों, नदियों का प्रतिनिधित्व महाभारत में भारतवर्ष के हिस्से के रूप में किया गया है। (एंशीयंटवोईसस – वेद, इतिहास, पुराणों के लिए समर्पित दुनिया का पहला विकी प्लेटफ़ॉर्म – हमारे अतीत से शाश्वत कथाओं को दर्शाता है)।
महाभारत में उल्लेखित कुछ सामाजिक वर्णन
महाभारत में महिलाओं का वर्णन एक उल्लेख के योग्य है। महाभारत में उल्लेखित सभी महिलाओं के बारे में सोचिए। उनमें से कोई भी पुरुषों के अधीन नहीं है। सभी महिलाएँ एक सशक्त व्यक्तित्व और चरित्र की धनी हैं। वे निर्णय लेने में सक्षम हैं। अपने व्यक्तित्व के माध्यम से, वे विशिष्ट दिशाओं में स्थितियों को प्रभावित करने की क्षमता को बनाए रखती हैं।
महाभारत में उल्लेखित महिलाएँ राजनीति और राज्य निर्माण से सम्बंधित निर्णय लेने में भाग लेती हैं, वे भली भाँति शिक्षित हैं। उन्हें कुछ स्थितियों में शासकों के रूप में भी स्थापित भी किया जा सकता है (श्री व्यास ने स्पष्ट रूप से शांति पर्व में इसका उल्लेख किया है)। वे अपने जीवनसाथी, पिता और भाइयों के निर्णयों पर प्रश्न भी उठाती हैं।
सत्यवती, कुंती, गांधारी, द्रौपदी, रुक्मिणी – सभी असाधारण रूप से उत्कीर्ण चरित्र हैं। सावित्री का एक विशेष उल्लेख होना चाहिए जो अपने स्वयं के लिए एक वर की तलाश में जाती है और एक को चुनती भी है। हस्तिनापुर के भरे दरबार में शकुंतला का राजा दुष्यंत को संबोधन हर समय प्रेरणा का केंद्र बना रहना चाहिए।
एक विशेष उल्लेख समाज के सभी वर्गों के लिए सम्मान का भी होना चाहिए। राजा शांतनु मछुआरे पर अपने निर्णय को थोपने का कोई प्रयत्न नहीं करते हैं। निषादराज अपनी बेटी से शादी करने के राजा के प्रस्ताव को अस्वीकार करने का अधिकार रखता है। एक ब्राह्मण, कौशिक, धर्मव्याध से धर्म सीखते हैं।
राजाओं के निर्णयों और विचारों पर उनके सलाहकार प्रश्न उठाते हैं, जो जरूरी नहीं कि ब्राह्मण या साधु हों। विदुर और युयुत्स, दासीपुत्र होने के बाद अधिकार में उच्च पद पाते हैं और उस समय के समाज में सभी उनका सम्मान करते हैं। महाभारत का महाकाव्य ऐसी कहानियों से भरा पड़ा है।
अब, फिर से वही विद्वान ये तर्क दे सकते हैं कि ये सब कहानी के भीतर के चरित्र और कथ्य हैं। उनके अस्तित्व का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। यह सच या झूठ हो सकता है। इसके बावजूद भी , अगर उस समय के रचनाकारों, महान वेदव्यास और अन्य ने इस तरह के पात्रों के बारे में सोचा तो फिर या तो वे वास्तव में अस्तित्व में थे या समाज ऐसे व्यक्तित्वों की उपस्थिति के लिए आकांक्षी था।पहली स्थिति के होने की सम्भावना अधिक है।
किसी भी विचार से, जो हमारे वर्तमान इतिहास की पुस्तकों से हमें सौंप और पढ़ा दिया गया है, उसकी तुलना में भारतीय समाज पूरी तरह से अलग था और अलग है। यही समय है कि इस सुधार को लाया जाए।
अतीत की धारणा
महाभारत की सबसे बड़ी महानता है कि यह हमें एक निरंतरता में हमारा अतीत प्रस्तुत करता है। इस महान अतीत के प्रवाह में, वर्तमान को समझा जा सकता है और भविष्य की कल्पना भी की जा सकती है। यह इतिहास के एक निश्चित अर्थ के साथ एक अतीत है, लेकिन वह अर्थ उस अतीत में खोता नहीं है किंतु और उभर कर बाहर आता है। यह एक रूपक और परिप्रेक्ष्य में ऐतिहासिक जानकारी का संश्लेषण है। महाभारत का वर्तमान भी एक कुरुक्षेत्र युद्ध है।
महाभारत के कई पात्रों में उनके अतीत की भावना और अनुभव का चित्रण है। इस अतीत को कहानियों के रूप में उनके वर्तमान में लाया जाता है। उनके अतीत के कथन में, हमारे लिए एक संदेश छिपा है। हमें स्वयं को इतिहास में खोना नहीं है, लेकिन इसे परिष्कृत किया जाना चाहिए और वर्तमान में एक ऐसे रूप में लाया जाना चाहिए जो हमें वर्तमान की व्याख्या करने और भविष्य बनाने में मदद करे।
एक तरह से, यह भावना हाल के दिनों तक भारत की चेतना की प्रमुख संवेदनशीलता रही है। पिछले 200 वर्षों में, हमने पश्चिम के एक सुनियोजित ऐतिहासिक आक्रमण का सामना किया है। इसका हम पर दोहरा असर पड़ा। एक ओर, इसने हमारे मानस में हमारी सभ्यता के प्रति झूठी हीनभावना पैदा कर दी है कि हमारे पास कभी पर्याप्त ऐतिहासिक निधि नहीं थी। उसी हताशा में हम अपने लिए एक इतिहास बनाने में खो जाते हैं। दूसरी ओर, ’अतीत’ की यह भावना जिसे हमारे पूर्वजों ने सावधानीपूर्वक निर्मित किया और हमें सौंप दिया, वह कमजोर पड़ रही है। यह एक स्पष्ट दोहरी मार है। हमारी पुरातन संस्कृति का छाप का धीरे धीरे हमारे मन से हल्का होते जाना हमारा ही दुर्भाग्य है।
महाभारत के द्वारा हमारे आत्मविश्वास को वापस लाने का समय आ गया है। हमें अपने अतीत की भावना को बनाए रखना चाहिए। हम इतिहास में खो नहीं सकते। उसी समय, हमें हमारे इतिहास के पुनर्निर्माण की भी आवश्यकता है। हमारे शास्त्रीय ग्रंथ दोनों के स्रोत हैं। हमें अपने स्वयं के तरीकों का निर्माण करने की आवश्यकता हो सकती है। हो सकता है डॉ कोनराड एल्स्ट, डॉ मीनाक्षी जैन, डॉ मिशेल डैनिनो, डॉ विश्व अदलूरी जैसे लोगों के कार्य इसमें हमारी सहायता कर पाएँ।
संक्षेप में, महाभारत हमारी सभ्यता का प्रवाह का रूप है जो उसकी सभी नदियों, सहायक नदियों और जलधारों के रूप में है। “आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम्” महाभारत आख्यानों का एक ऐसा सागर है – जो उन सभी नदियों, झीलों और तालाबों से मिलकर बना है जो वर्षा के पानी से बनते हैं और अंत में सागर में जाकर मिल ही जाते हैं । हम इस शाश्वत प्रवाह का एक भाग हैं और इस प्रवाह के साथ बहने में ही हमारी नियति है।
(यह लेख शिव कुमार द्वारा लिखित पहले आंग्ल भाषा में प्रस्तुत किया गया है)
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