आखिरकार मैंने डॉ मनीष श्रीवास्तव की पुस्तक शृंखला ‘क्रांतिदूत’ का भाग-1 पढ़ ही लिया लेकिन बीरबल की खिंचड़ी के पकने में भी इसमें कम ही समय लगा होगा। पढ़कर ‘दो शब्द’ कहना आवश्यक था लेकिन मैं एक दुविधा से घिर गया। लेखन क्षेत्र के खुर्राटों का कहना है कि एक लेखक को अपने किसी समकालीन लेखक के बारे में मत देने से बचना चाहिए। शायद इसलिए कि यदि लेखक ने अपने समकालीन लेखक पर मत देते हुए देसावर टान दिया तो उसमें प्रतिद्वंद्विता और जलन के तत्व देखे जा सकते हैं और यदि उसने देसावर ठेल दिया तो लोग यह आरोप लगा सकते हैं कि यह परस्पर प्रशंसा के लिए किया गया नेवता है। लिहाजा मैंने देसावर को मुँहदेखल नहीं रखकर लिखने का निर्णय किया। इसमें एक छोटा सा स्वार्थ यह भी है कि यदि अपने ‘हमकालीन’ डॉक्टर साहब के लिए हम न लिखें तो हम पर लिखने के लिए भला कौन सा ‘तुमकालीन’ आने वाला है। लेखक को डॉक्टर साहब कहते हुए हम सहित लेखक के उन सभी ‘हमकालीन’ लेखकों के साथ हमें सहानुभूति हो रही है जो अब भी रोग के लक्षणों में ही उलझे हुए हैं और मनीष जी समाज को विविध उपचार देने हेतु आगे आ गये।
आरम्भ में मुझे यह कयास लगाने दीजिए कि ‘क्रांतिदूत’ क्यों लिखी गयी होगी। मेरा मानना है कि स्वतंत्रता संग्राम और उसके सेनानियों पर जितना कुछ लिखा गया है, उससे कहीं अधिक लिखा जाना शेष हैय़ ऐसे हजारों अनाम सेनानी हैं जिन्होंने अपना जीवन इस संग्राम में खपा दिया। ऐसे किसी एक सेनानी का पाठकों तक पहुँच जाना भी एक उपलब्धि होगी। ‘क्रांतिदूत’ क्रांति के लिए समर्पित थे लेकिन ये लोग भी हम जैसे हाड़-मांस के ही मानव थे। देश के लिए संघर्ष करते हुए इनका अपना निजी जीवन भी रहा होगा और इसकी झलक भी लोगों के सामने आनी चाहिए।
चन्द्रशेखर आजाद का हांडी से खिंचड़ी लेकर खाना और उस पर उनकी भाभी (मास्टर रूद्रनारायण की पत्नी) से उनकी चुहल और इस चुहल पर मास्टर रूद्रनारायण के पिता की प्रतिक्रिया में वैसी ही एक झलक मिलती है। पुस्तक के भाग-1 में ऐसे कई प्रसंग हैं जिन्हें यहाँ रखकर मैं भावी पाठकों का कौतूहल कम नहीं करना चाहता।
‘क्रांतिदूत’ की सबसे अच्छी बात पर थोड़ी बात कर लेते हैं। लेखक के रूप में मनीष जी मूलत: कथाकार हैं और क्रांतिदूत का कथ्य ऐतिहासिक है। क्रांतिदूत लिखते हुए लेखक ने अपनी कथाकारिता का त्याग नहीं किया और उनकी कथा शैली ने ऐतिहासिक विवरण को नीरस होने से बचाया है। छोटी-छोटी कथाओं में लिखी यह पुस्तक संभवत: इसकी सबसे बड़ी यूएसपी है। शायद बहुतों को यह बात अच्छी नहीं लगे पर मेरा यह मानना है कि इतिहास लिखने में या ऐतिहासिक विषय वस्तु के पोषण में कथ्य के नीरस हो जाने का खतरा सदैव रहता है। मनीष जी का पोषण कई जगह हल्का-फुल्का और चुटीला है। चन्द्रशेखर आजाद मास्टर रूद्रनारायण के घर में रहते हैं। उनकी खोज खबर लेने के लिए घर के बाहर सिपाही तैनात हैं और मास्टर रूद्रनारायण उन सिपाहियों के साथ पंजा लड़ाकर उन्हें क्वालिटी टाइमपास प्रदान करते हैं। हद तब होती है जब एक दिन चन्द्रशेखर आजाद का भी इन सिपाहियों से सामना हो जाता है और वह भी उन सिपाहियों से पंजा लड़ाकर ही उनसे कट लेते हैं।
कई स्थानों पर लेखक की शैली से प्रभावित हुए बिना मैं नहीं रह सका। भगत सिंह के आधा दर्जन छद्म नाम थे। यह लिखकर छद्म नामों का खुलासा कर देने से वह माहौल नहीं बनता जो माहौल लेखक ने इस प्रकरण पर एक भरा-पूरा अनुच्छेद लिखकर बनाया है।
गाँधी जी के ‘अहिंसा परमो धर्म:’ पर मास्टर रूद्रनारायण का आग्रह ‘अहिंसासाधुहिंसेति श्रेयान् धर्मपरिग्रह:’ तार्किक है और इसे अत्यंत ही सूक्ष्मता से पिरोया गया है। यह एक पात्र का आग्रह है और इसे निश्चित रूप से लेखक का भी विचार नहीं माना जा सकता।
हमारे क्रांतिदूत आर्थिक कठिनाईयों का सामना कर रहे थे। यह पुस्तक में कई जगह बताया गया है। इन कठिनाईयों से निजात पाने के लिए वे लोग सदैव संघर्ष करते थे। सिर्फ अपने को अंग्रेजों से बचाने के लिए ही वे बहुरूपिया नहीं बनते थे बल्कि क्रांति के लिए धन की प्राप्ति के लिए भी वे कई रूप धरते थे। ऐसा करते हुए भी उनके अपने मूल्य हुआ करते थे। चन्द्रशेखर आजाद के साथ एक युवती का प्रसंग अत्यंत मार्मिक है और उन मूल्यों की पुष्टि करता है। क्या ही लोग थे वे!
पुस्तक शृंखला ‘क्रांतिदूत’ भाग-1 की भाषा का सबसे सशक्त पहलू है उसमें प्रयुक्त बुंदेलखंडी संवाद। लेखक स्वयं यह मानते हैं कि उनका वाक्य विन्यास उनके लेखन की एक कमजोर कड़ी है तथा भाग-1 में अनेक अशुद्धियाँ उनके संज्ञान में लायी गयी हैं। लेखक का कहना है कि आगे की कड़ियों में अनुशासित संपादन की घोर आवश्यकता है और आने वाली कड़ियों में यह सब ठीक कर लिया जाएगा। पुस्तक का आवरण चित्र बढ़िया है और कथ्य को प्रतिविंबित करता है। मुद्रण की सबसे अच्छी बात यह है कि इसका फॉन्ट पाठकों का काम आसान करता है। जिल्दसाजी पर इससे अधिक कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं है कि पृष्ठ 17 से 24 तक की पहली किश्त पुस्तक से अलग हो गयी है और ऐसे अन्य बँटवारों की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता। आप चाहें तो पुस्तक के यूँ क्षत-विक्षत होने के लिए मुझे ‘वानर के हाथ में नारियल’ का ताना दे सकते हैं। अंतिम अध्याय में मास्टर रूद्रनारायण के परिवार का फोटो देने के लिए लेखक को कुछ अतिरिक्त अंक दिए जाने चाहिए। पुस्तक के आवरण पर #jhansi_files का अंकित होना लोगों को कश्मीर फाइल्स का सफलता से प्रेरित लग सकता है लेकिन तथ्य यह है कि यह निर्णय कश्मीर फाइल्स से पहले का है। अंदर की बात बता दूँ कि हैशटैग लगाकर लेखक स्वयं यह पुष्टि करना चाहते हैं कि वह सोशल मीडिया के लेखक हैं।
लेखक ने बड़े परिश्रम और शोध से लिखा है, प्रकाशकों से प्रकाशित कर दिया है। इससे पहले एक पुस्तक पर दो शब्द कहते हुए मैंने आशंका जतायी थी कि इसके बाद कोई दिलेर प्रकाशक और जाँबाज लेखक ही मुझसे अपनी पुस्तक की समीक्षा लिखवाएगा। मनीष जी जाँबाज निकले। परिणामस्वरूप मैंने भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार दो शब्द कह दिए हैं। आशा है कि मनीष जी को पोसाई पड़ेगा और वह इसे कहीं छपवाएँगे। छप गया तो आपसे यह अनुरोध रहेगा कि इस पुस्तक शृंखला को अवश्य पढ़ें। पुस्तक शृंखला ‘क्रांतिदूत’ सर्वथा पठनीय है।
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