कुछ लोग कहते हैं वैदिक धर्म और आधुनिक विज्ञान दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं और कुछ तो सारा श्रम यह सिद्ध करने में लगा देते हैं कि वैदिक धर्म हि आधुनिक विज्ञान है। परन्तु यह दोनों मत उचित नहीं है। एक ओर है आधुनिक विज्ञान जहां दृश्य वस्तु पर सतत अनुसंधान चलता रहता है। नित्य प्रति नये परिणाम नये नये तथ्य सामने आते हैं। वहीं दूसरी ओर है वैदिक दर्शन जहां दृश्य वस्तु का नहीं अपितु जिसमें दृश्य वस्तु भासमान होती है उस द्रष्टा का अनुसंधान होता है।
प्रत्येक विषय को आत्मसात करने की एक प्रणाली होती है। यदि तदनुसार आप नहीं चले तो विषय का कुछ भाग आप ग्रहण अवश्य कर लेते हैं पर विषय को लेकर आपकी समग्र दृष्टि नहीं होती। ऐसे दृष्टि के बिना तद्विषयक वक्तव्य का भी अधिक आदर नहीं हो सकता।
तो पहले समझते हैं कि सनातन वैदिक धर्म का स्वरूप क्या है और ध्येय क्या है। जितना भी भारतीय आस्तिक वांग्मय है उसका मूल है वेद। वेदोऽखिलो धर्ममूलं । हमारे ४ वेदों से सब परिचित हैं। वेद शब्द का अर्थ है ज्ञान। आपस्तम्ब मुनि के अनुसार मन्त्र और ब्राह्मण को वेद नाम से जानना चाहिए- मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्। प्रत्येक वेद की शब्द राशि के २ विभाग है। एक मंत्र संहिता और दूसरा ब्राह्मण। मंत्र में विभिन्न देवताओं की स्तुति से युक्त सूक्त हैं जिनका प्रयोग यज्ञों में होता है। और ब्राह्मण में यज्ञ कैसे होना चाहिए इसका विधान है। ब्राह्मण भाग के और २ विभाग हो जाते हैं – आरण्यक और उपनिषद। कर्म और उपासना के निरूपण के बाद त्याग वैराग्य और ज्ञान की वार्ता आरंभ होती है जिसका परयवसान उपनिषद में होता है जिन्हें वेदांत भी कहते हैं।
वेदाध्ययन पूरा होता है जब इनके साथ ६ वेदांगों का अध्ययन हो- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष,छन्द, निरुक्त।
इन्हीं वेद वेदांगों को जन जन के जीवन का भाग बनाने हेतु इतिहास पुराण की रचना हुई। इसका मुख्य उद्देश्य था वेदार्थ का विस्तार – वेदोपबृंहणार्थाय तौ अग्राहयत प्रभुः वाल्मीकि रामायण- (1:4:6)
इतिहासपुराणाभ्यां वेदार्थ्मुपबृंहयेत् (महाभारत १।१।२६७)
अत: याज्ञवल्क्य ने विद्या के १४ स्थान बताये हैं। -पुराणन्यायमीमांसा धर्मशास्त्राङ्गमिश्रिताः ।
वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश।।
इतना भी वास्तव में हमारे वांग्मय का पूरा विस्तार नहीं है। उसकी चर्चा एक अलग विषय है। पर अब देखना यह है कि इतना विस्तार किस लिए है। और यह वेदार्थ क्या है जिसके लिए इतना पठन-पाठन हुआ है।
इसपर भागवतकार कहते हैं –
वेदा ब्रह्मात्मविषयास्त्रिकाण्डविषया इमे
भागवत-11.21.35
ब्रह्म और आत्मा को विषय करने वाले वेद तीन काण्डों का प्रतिपादन करते हैं- कर्म, उपासना, ज्ञान।
यहीं शिवपुराण कहता है –
वेदो मंत्राक्षरमय: साक्षात्सूक्तमयो भृशम्।
सूक्ते प्रतिष्ठितो ह्यात्मा सर्वेशामपि देहिनाम्।।
वेद मंत्रों अक्षरों और सूक्तों से युक्त है। प्रत्येक सूक्त में सभी जीवों का आत्मा ही प्रतिष्ठित है। तो इससे सिद्ध है वेद का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है आत्मा व ब्रह्म।
अब आत्मा का स्वरूप क्या? तो इस पर स्वयं श्रुति क्या कहती है –
केनेषितं पतति प्रेषितं मनः केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः ।
केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षुः श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति ।।
किसके द्वारा प्रेषित यह मन बाणवत् अपने लक्ष्य पर जाकर गिरता है? किसके द्वारा नियुक्त प्रथम प्राण अपने पथ पर आगे बढ़ता है? किसके द्वारा प्रेरित है यह वाणी जिसे मनुष्य बोलते हैं? कौन है वह देव जिसने चक्षु और कर्ण को उनकी क्रियाओं में नियुक्त कर दिया है?
यद्वाचाऽनभ्युदितं येन वागभ्युद्यते ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।
वह’ जो वाणी के द्वारा अभिव्यक्त नहीं हो पाता, जिसके द्वारा वाणी अभिव्यक्त होती है, ‘उसे’ तुम ‘ब्रह्म’ जानो, न कि इसे जिसकी मनुष्य यहाँ उपासना करते हैं
यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।
वह’ जो मन के द्वारा मनन नहीं करता,१ ‘वह’ जिसके द्वारा मन स्वयं मनन का विषय बन जाता है, ‘उसे’ ही तुम ‘ब्रह्म’ जानो, न कि इसे जिसकी मनुष्य यहां उपासना करते।
- केनोपनिषद
वहीं इसके विषय में यह भी कहा गया है –
जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।
Kathopanishad- 1.2.18
इस आत्मा का न जन्म होता है न मरण; न यह कहीं से आया है, न यह कोई व्यक्ति-विशेष है; यह अज है, नित्य है, शाश्वत है, पुराण है, शरीर का हनन होने पर इसका हनन नहीं होता
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।। गीता २.१८।।
अविनाशी, अप्रमेय और नित्य रहनेवाले इस शरीरी के ये देह अन्तवाले कहे गये हैं। इसलिये हे अर्जुन! तुम युद्ध करो।
तो जिसका वर्णन मन, वाणी , नेत्रादि इन्द्रियों से नहीं हो सकता, क्योंकि उसकी सत्ता से ही मनादि की सत्ता है, वह अप्रमेय वस्तु वेदादि शास्त्र की ध्येय वस्तु है। माने ऐसी अप्रमेय वस्तु के वेदादि शास्त्र प्रमाण हैं। प्रमाण कहते उस साधन को जिससे जो वस्तु जैसी है उसका वैसा ही ज्ञान हो। प्रमाण और प्रमेय का मेल होने पर बुद्धि में एक वृत्ति उदय होती है जो वस्तु का यथार्थ ज्ञान करवाती है ।उदाहरणार्थ रूप का प्रमाण है नेत्र, ध्वनि में प्रमाण है श्रोत्र। ऐसे ही विभिन्न वस्तुओं के परिज्ञान हेतु विभिन्न प्रमाण भारतीय दर्शन में स्वीकार हुए हैं। और इनकी प्रबलता का तारतम्य भी निर्धारित किया गया है। अब एक क्रांतिकारी बात देखिए कि जो वस्तु अन्य प्रमाणों से जानी जाए यदि वेदादि शास्त्र उसका ही प्रतिपादन करें तो वे उस वस्तु के प्रमाण नहीं अपितु उस अन्य प्रमाण से मिले यथार्थ ज्ञान के अनुवादक मात्र होंगें। इसीलिए वेद भाष्यकार सायणाचार्य कहते हैं –
प्रत्य्क्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न बुध्यते।
एनं विदन्ति वेदेन तस्माद वेदस्य वेदता॥
जो वस्तु प्रत्यक्ष अनुमान आदि प्रमाणों से न जानी जाए यदि उसको वेद बतादें तो उनकी वेदता सिद्ध है।
और यदि वेद प्रत्यक्ष अनुमान इत्यादि के विरुद्ध कुछ बतायें तो?
तो इसका समाधान आदि शंकराचार्य अपने गीता भाष्य में १८.६६ पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं –
न हि श्रुतिशतम् अपि शीत: अग्नि: अप्रकाशो वा इति ब्रुवत् प्रामाण्यं उपैति। ब्रूयात् शीतोऽग्निरप्रकाशो वा इति? तथापि अर्थान्तरं श्रुतेः विवक्षितं,कल्प्यम् प्रामाण्यान्यथानुपपत्तेः न तु प्रमाणान्तरविरुद्धं स्ववचनविरुद्धं वा।
अग्नि ठण्डा है या अप्रकाशक है ऐसा कहनेवाली सैकड़ों श्रुतियाँ भी प्रमाणरूप नहीं मानी जा सकतीं। यदि श्रुति ऐसा कहे कि अग्नि ठण्डा है अथवा अप्रकाशक है तो ऐसा मान लेना चाहिये कि श्रुतिको कोई और ही अर्थ अभीष्ट है। क्योंकि अन्य प्रकारसे उसकी प्रामाणिकता सिद्ध नहीं हो सकती। परंतु प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाणोंके विरुद्ध या श्रुतिके अपने वचनोंके विरुद्ध श्रुतिके अर्थकी कल्पना करना उचित नहीं।
तो इससे सिद्ध है कि वेदादि शास्त्र की ध्येय वस्तु आत्मा या ब्रह्म ही है।
और आधुनिक विज्ञान में तो प्रत्यक्ष हि प्रमाण है। तो अब उपयुक्त विवेचन से दोनों बातें सिद्ध हुई कि वेदादि शास्त्र न तो आधुनिक विज्ञान के विरोधी हैं न हि आधुनिक विज्ञान की ध्येय वस्तु का प्रतिपादन करते हैं। ये तो एक स्वतंत्र विद्या है जिसका एक मात्र उद्देश्य है आत्मसाक्षात्कार द्वारा दुःख की आत्यांतिक निवृत्ति।
अब यह भी प्रश्न उठता है कि अप्रमेय आत्मा के प्रमाण यह कैसे हैं। और जो इतनी विस्तार युक्त सृष्टि स्थिति इत्यादि के बातें हैं वो क्या निर्थक हैं?
तो पहले प्रश्न का समाधान भी आदि शंकराचार्य ने गीता २.१८ के भाष्य में किया-
“जब कि शास्त्रद्वारा आत्माका स्वरूप निश्चित किया जाता है तब प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे उसका जान लेना तो पहले ही सिद्ध हो चुका ( फिर वह अप्रमेय कैसे है ) ।
यह कहना ठीक नहीं क्योंकि आत्मा स्वतः सिद्ध है। प्रमातारूप आत्माके सिद्ध होनेके बाद ही जिज्ञासुकी प्रमाणविषयक खोज ( शुरू ) होती है।
क्योंकि मै अमुक हूँ इस प्रकार पहले अपनेको बिना जाने ही अन्य जाननेयोग्य पदार्थको जाननेके लिये कोई प्रवृत्त नहीं होता। तथा अपना आपा किसीसे भी अप्रत्यक्ष ( अज्ञात ) नहीं होता है।
शास्त्र जो कि अन्तिम प्रमाण है वह आत्मामें किये हुए अनात्मपदार्थोंके अध्यारोपको दूर करनेमात्रसे ही आत्माके विषयमें प्रमाणरूप होता है अज्ञात वस्तुका ज्ञान करवानेके निमित्तसे नहीं।“
वास्तव में स्वत: सिद्ध निर्गुण निर्विशेष अकर्ता आत्मा में, हमारी बहिर्मुखता के दृढ़ संस्कार द्वारा हि ,कर्तापन सहित अपार सृष्टि प्रपंच आरोपित है। अतः सुख दुःख रूप कर्म बन्धन है। हमारा सहज स्वरूप तो नित्य बुद्ध शुद्ध मुक्त है। मुक्ति कोई आगंतुक वस्तु नहीं है। बल्कि आरोपित वस्तु का निषेध करने से सिद्ध है।
संसार में सबकी वासनाएं भिन्न-भिन्न हैं , सबका अंत:करण भिन्न है अतः सबका आज्ञान / बन्धन भी भिन्न है। कोई बिल्कुल निकम्मा है तो शास्त्र उसे कर्म में नियुक्त करता है। जो कर्मों में रत है उससे निषिद्ध कर्म का त्याग और विहित कर्म का आचरण करवाता है। विधि निषेध का पालन करने वाले साकाम व्यक्तियों को निष्काम कर्म करने में नियुक्त करता है। और निष्काम कर्म करने वालों के कर्तापने पर प्रहार करता है भगवान की शरणागति के द्वारा।
इसी से कहा गया है –
परोक्षवादो वेदोऽयं बालानामनुशासनम् ।
कर्ममोक्षाय कर्माणि विधत्ते ह्यगदं यथा ॥
नाचरेद् यस्तु वेदोक्तं स्वयमज्ञोऽजितेन्द्रिय: ।
विकर्मणा ह्यधर्मेण मृत्योर्मृत्युमुपैति स।।
वेदोक्तमेव कुर्वाणो नि:सङ्गोऽर्पितमीश्वरे ।
नैष्कर्म्यां लभते सिद्धिं रोचनार्था फलश्रुति: ।।
भागवत ११.३.४४-४७.
यह वेद परोक्षवादात्मक है। यह कर्मोंकी निवृत्तिके लिये कर्मका विधान करता है, जैसे बालकको मिठाई आदिका लालच देकर औषध खिलाते हैं वैसे ही यह अनभिज्ञोंको स्वर्ग आदिका प्रलोभन देकर श्रेष्ठ कर्ममें प्रवृत्त करता है ।
जिसका अज्ञान निवृत्त नहीं हुआ जिसने इन्द्रियों को वश में नहीं किया है, वह यदि मनमाने ढंग से वेदोक्त कर्मों का त्याग करता है , तो वह निश्चय ही पापमय तथा अधार्मिक कार्यों में लिप्त रहेगा। इस तरह उसको बारम्बार जन्म-मृत्यु भोगना पड़ेगा।
इसलिए फल की आशा को छोड़कर और विश्वात्मा भगवान को समर्पित कर जो वेदोक्त कर्म करता है वह कर्म बन्धन की निवृत्ति रूप सिद्धी -ज्ञान प्राप्त करता है । जो वेदों में स्वर्गादि का वर्णन है वह फल की सत्यता से नहीं अपितु कर्मों में रुचि उत्पन्न करने के लिए है।
तो अब देखें कि वेद सृष्टि रचना आदि की कथा वार्ता है वह भी ईश्वर को सृष्टि स्थिति इत्यादि का कर्ता बताने के लिए नहीं अपितु कर्तापन भोक्ता पन के संस्कार के युक्त जीवों को तत्व का वास्तविक स्वरूप बतलाने के लिए अध्यारोप मात्र है
नास्य कर्मणि जन्मादौ परस्यानुविधीयते ।
कर्तृत्वप्रतिषेधार्थं माययारोपितं हि तत् ।।
सृष्टिकी रचना आदि कर्मोंका निरूपण करके पूर्ण परमात्मासे कर्म या कर्तापनका सम्बन्ध नहीं जोड़ा गया है। वह तो मायासे आरोपित होनेके कारण कर्तृत्वका निषेध करनेके लिये ही है।।
भागवत 2.10.45
तो अब जरा आराम से विचार करें कि आधुनिक विज्ञान और वैदिक धर्म कैसे एक दूसरे के विरोधी या पर्याय हुए
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