यह बात तो संभवतः हर व्यक्ति भली-भाँति जानता है कि जीव चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद.मनुष्य का जन्म पाता है।.ऐसे में.यह हमारा परम कर्तव्य है कि सांसारिक क्रिया कर्तव्यों में हम इतना न डूबें कि परम लक्ष्य ही भूल बैठें। कीट-पतंगों, पशु-पक्षियों, वृक्ष-विषाणुओं, सभी से ऊंचा है मानव जन्म क्योंकि इसी में हम सूझबूझ से कर्म करते हुए इसे सफल बना सकते हैं। सच ही कहा है-
बड़े भाग्य मानुष तन पावा।
अब प्रश्न उठता है कि अगर हमने ऐसा करने का निश्चय कर लिया तो करना क्या होगा? माध्यम क्या होगा? इन प्रश्नों का उत्तर सदैव से ही ‘धर्म एवं धर्मग्रंथों से जुड़ाव, पठन-पाठन तथा इनका अनुसरण’ रहा है। किसी आडंबर, ढोंग, छल आदि से बचकर श्रेष्ठ ज्ञान अर्जित करने के लिए हमारे धार्मिक ग्रंथ जैसे श्री रामचरितमानस, श्रीमद्भगवत गीता आदि पढ़ने, सुनने व पालन करने से आसान व वास्तविक मार्ग दूसरा कोई नहीं।.जीवन की कोई ऐसी समस्या नहीं, ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहां पर गीता का महत्व धूमिल हुआ हो।.चिरकाल से आज के ‘मॉडर्न’ युग तक, हर स्थान पर इस महाग्रंथ ने अपनी धाक जमाई है।
गीता से व्यक्ति को अधर्म के सामने साहस न खोने अपितु धर्म की रक्षा के लिए आवश्यकता पड़ने पर अपनों से भी निडर होकर लड़ने की सीख मिलती है।.ध्यान पूर्वक गीता पाठ व श्रवण करने वाले व्यक्ति का जीवन एक शरीर मात्र ही नहीं अपितु ‘आत्मा’ के स्तर पर रहने वाला हो जाता है।
आज के युग में लोग एक शास्त्र, एक ईश्वर, एक धर्म, तथा एक वृत्ति के लिए अत्यंत उत्सुक हैं। आतएव सारे विश्व के लिए एक शास्त्र भगवद्गीता है।
एकम् शास्त्रं देवकी पुत्र गीतम।
एको देवो देवकी पुत्र एव।।
व्यक्ति को कर्म का महत्व समझा कर निष्काम बनाने की महान सीख जो गीता से मिलती है, वह सर्वविदित है। ‘फल की चिंता न करो’, केवल अपना कर्म करो यह बात लिखने पढ़ने में तो सरल है लेकिन इसे जीवन में उतार पाना एक कठिन तपस्या है। जिसने यह तपस्या पूरी कर ली वह निश्चित ही साधारण मनुष्य नहीं रह जाता और इस प्रकार व दूसरों के लिए भी प्रेरणास्रोत बन जाता है।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफल हेतुर्भूमा ते संगोस्त्वकर्मणि॥
हम अक्सर देखते हैं कि बड़े-बड़े लोग जो किसी से नहीं डरते, मृत्यु जैसे अटल सत्य से प्रतिपल डरते रहते हैं। उन्हें यह डर हर क्षण सताता रहता है कि यदि हम मर गए तो? कभी जिम्मेदारियों का पूरा ना हो पाना डराता है तो कभी जीवन भर का संचित धन। मृत्यु उपरांत पीछे छूट जाने वाले इस जगत के बने क्षणिक संबंध, प्रेमी जनों से बिछड़ने का दुख, अर्जित प्रतिष्ठा, मान सम्मान, धन से मिल रहे सुख का भोग ना कर पाने की चिंतामात्र और इससे जनित दुख या वास्तव में कहें तो यह भय इतना भयंकर बन जाता है कि चैन से मरना तो दूर कई लोग तो चैन से जी भी नहीं पाते। वहीं गीता का आधार अगर हम लें तो यह पाएंगे कि इससे हमें यह सीख मिलती है कि मृत्यु तो अवश्यंभावी है, एक मात्र सत्य है और मृत्यु शरीर की होती है आत्मा कि नहीं।आत्मा अजर, अमर, अविनाशी है। इस सत्य से व्यक्ति को अवगत कराने और शरीर से ऊपर उठकर जीवन को उत्सव जैसे जीने और निर्भीक होकर किसी भी क्षण मृत्यु के लिए तैयार रहने की शिक्षा गीता से ही मिलती है।
जो गंगाजल पीता है वह मुक्ति प्राप्त करता है। गीता महाभारत का अमृत है और इसे भगवान कृष्ण ने स्वयं सुनाया है। उसके लिए क्या कहें जो भगवद्गीता का अमृत पार करता हो। गीता स्वयं भगवान के मुख से निकली और गंगा उनके शुभ चरणों से। यह कहना कदापि गलत नहीं होगा कि गीता गंगाजल की अपेक्षा अधिक पावन व महत्वपूर्ण है।
भारतामृत सर्वस्वं विष्णोर्वक्चाद्विनिःसृतम्।
गीता गंगोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते॥
भगवद्गीता से ही हमें भगवान के सर्वशक्तिमान, सभी कारणों का कारण होने की बात और इसमें विश्वास के कई कारण पता चलते हैं। जिस प्रकार मानव ने प्रगति की है, अब कोई भी कार्य उसके लिए असंभव या विस्मयपूर्ण नहीं लगता। चाँद पर कदम रखना या ऊँचे-ऊँचे पर्वत शिखरों पर चढ़कर अपनी विजय पताका लहराना, एक कोशिका से पूरा जीव बना कर खड़ा कर देना, इतनी प्रगति प्राप्त करने पर अहंकार हो जाना तो स्वाभाविक है। यह कहना कदाचित् गलत नहीं होगा कि अपने दोषों के सामने घुटने टेककर एक समय ऐसा आता जब मनुष्य स्वयं को ही सृष्टि का रचयिता तथा पालनहार मान बैठता। इस आधुनिक काल में ऐसा होते देखना तो आम बात हो गयी है की लोग विज्ञान का हवाला देकर अध्यात्म से दूर तथा नास्तिक होते जा रहे हैं। विशेष रूप से युवा वर्ग। कदाचित् ये वर्ग ये नहीं जानता कि नास्तिकतावाद सनातन धर्म के सिद्धों द्वारा प्रतिपादित किया गया है। इन्हें तो अपनी संस्कृति, सभ्यता, अध्यात्म शर्मनाक और रूढ़िवादी विचार लगते हैं।
इन दोनों स्थितियों में जब धर्म का सम्मान कहीं धूमिल होने के कगार पर होता है तो वह स्वयं ही रक्षित होता है ‘गीता’ जैसे ग्रंथों से। विज्ञान चाहे जितनी भी प्रगति कर ले, कुछ स्थानों पर हार ही जाता है। कुछ प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं होता, वहाँ तर्क नहीं चलता, वहाँ आस्था और विश्वास साथ देता है। इसीलिए बड़े से बड़ा नास्तिक व्यक्ति भी जीवन में कम से कम एक बार तो ये अवश्य मानता है कि सबकुछ उसके हाथ में नहीं। उससे परे एक महाशक्तिशाली सत्ता अखिल विश्व में हर जीव, कण, पत्ता-पत्ता चला रही है। हो सकता है कि अपनी झूठी शान में यह बात कभी मानी न जाए लेकिन ईश्वरीय सत्ता के समक्ष समर्पण और दृढ़ विश्वास ही इस निर्मम् जगत में कट रही हमारी कठिन यात्रा थोड़ी आसान बना सकता है। बुद्धिमान जन गीता से लिए इस महान श्लोक में विश्वास रखते हैं-
ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्द विग्रहः।
अनादिरादि गोविन्दः सर्वकारण कारणम्॥
आध्यात्मिक महत्त्व से इतर, भगवद्गीता का महात्म्य दैनिक, व्यक्तिगत, विद्यार्थी, प्रत्येक क्षेत्र में देखने को मिलता है। ऐसी कोई समस्या ही नहीं जिसमें यह महा ग्रंथ सहायक ना सिद्ध हो। स्वयं भगवान की बातों को, उनके उपदेशों की इस दिव्य मणि का गुणगान कर पाना अथवा यह बता पाने की कोशिश भी कर पाना कि यह कितना पावन है, यह न संभव ही है ना कोई भी जीवित इतना पावन ही। अभी तक जितनी भी महिमा संसार जान पाया है, वह भी निश्चय ही समुद्र से निकाले अंजलि भर जल के समान ही है। व्यक्ति स्वयं को जल से स्नान कर शुद्ध कर सकता है लेकिन अगर कोई एक बार भी श्रीमद्भगवद्गीता रूपी गंगाजल से स्नान कर ले, तो उसके सांसारिक जीवन के सभी दोष एकसाथ ही धुल जाते हैं।
मलनिर्मोचनं पुंसां जलस्नानं दिने दिने।
सकृतद्गीताम्भसि स्नानं संसारमलनाशनम्॥
(Editor’s Note: Srimad Bhagavad Gita, the nectar of knowledge for mankind, spanning over 18 Parvas and 700 verses which are conversations between Bhagawan Srikrishna and Arjuna at the beginning of the Kurukshetra war, is an ultimate repository of spiritual wisdom. On the occasion of Gita Jayanti, we celebrate this ‘Divine Song of Bhagawan’ as even today it continues to inspire us and guide us with its relevance. With this, we are publishing the best articles that we received as part of our Gita Jayanti Competition.)
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