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सूर्य और सप्तमी तिथि

भगवान भुवन-भास्कर  समस्त जड़-चेतन जगत् के  नियन्ता हैं।  सृष्टि से एकमात्र इन्हें हटाकर देखा जाए तो कुछ नहीं बचेगा।  इसीलिए वैदिक ऋषि इनकी स्तुति में कहते हैं –‘सूर्य आत्मा जगतः तस्थुषश्च’।  सम्भवतः आदि अवस्था में मानव ने जब अपनी चेतन आँखें खोली होंगी तो इन्हीं की दिव्यता दिखी होगी। इसलिए पहले इन्हीं की देवरूप में प्रतिष्ठा हुई होगी। ये प्रत्यक्षदेव कहे भी जाते हैं।

यों तो पूरे कालचक्र के ये नियामक हैं, परऩ्तु भारतीय आस्था ने सप्तमी तिथि के स्वामी के रूप में इन्हें देखा है। ये अनादि, अनन्त हैं, परन्तु आप्तवाक के अनुसार सप्तमी इनकी जन्मतिथि है।

यों तो यह तिथि कृष्ण और शुक्ल के भेद से दो है, परन्तु चन्द्रमा को वृद्धिक्रम प्राप्त होने से शुक्लपक्षीय सप्तमी को वरीयता प्राप्त है। इसीलिए सम्भवतः सूर्याराधन के विशेष पर्व प्रायः शुक्ल पक्ष के ही हैं।

सर्वकर्ता देव दिवाकर की कोई क्या पूजा करेगा, फिर भी श्रद्धा-भक्ति अर्पित करने व कामना की सिद्धि के लिए शास्त्र के अनुसार नित्यकर्म के रूप में सन्ध्योपासन निर्धारित है। पुनः प्रत्येक मास में अलग-अलग नाम-रूप से भी आराधना निर्दिष्ट है। इसके अतिरिक्त सप्तमी को मनाए जानेवाले विशेष पुण्यदायक व्रतोत्सव भी हैं। उदाहरणार्थ मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी को नन्दा सप्तमी, माघकृष्ण सप्तमी को सूर्याप्ति सप्तमी, माघ शुक्ल सप्तमी को अचला सप्तमी, भानुसप्तमी, रथसप्तमी एवं जयन्ती सप्तमी, फाल्गुन शुक्ल सप्तमी को त्रिवर्ग तथा कामदा सप्तमी, चैत्र शुक्ल सप्तमी को रहस्य तथा सिद्धार्थ सप्तमी,  श्रावण शुक्ल सप्तमी को अव्यंग सप्तमी, भद्रपद शुक्ल सप्तमी को फल एवं अनन्त सप्तमी और कार्तिक शुक्ल सप्तमी को शाक सप्तमी के साथ-साथ पापनाशिनी सप्तमी मनाने का विशेष विधान है।

रविवार व्रत का प्रचलन तो बाद में हुआ, पर रविवार तथा सप्तमी तिथि का योग किसी माह में होने से अतिपुण्यदायक माना गया। इसी तरह हस्त नक्षत्र और सप्तमी के योग को भद्रा सप्तमी एवं सप्तमी को सूर्य-संक्रान्ति होने पर महाजया सप्तमी के नाम से महत्त्व दिया गया।

सूर्य के साथ सप्तमी का इतना लगाव क्यों? इसका उत्तर कई तरह से प्राप्त होते हैं। भविष्य पुराण से ज्ञात होता है कि इसी तिथि को इनका आविर्भाव हुआ था और इसी तिथि को उत्तरकुरु में अपनी छाया को छोड़कर चली गई असली पत्नी संज्ञा पुनः यथावत् रूप में प्राप्त हुई थी। इतना ही नहीं, इसी तिथि को उन्हें सन्तान-प्राप्ति भी हुई थी।

तपती तथा यमुना—इन दो पुत्रियों को जोड़कर सूर्य की नौ सन्तानों में सात पुत्र (सावर्णि मनु, यम, शनि, अश्विनी-कुमार (जुड़वे), वैवस्वत मनु और रेवन्त- ये साथ सात पुत्र बताए गए हैं।  पुनः सात से इनका लगाव दिखाते हुए एक नाम सप्ताश्व या सप्तसप्ति भी बताया गया है, जिसका अर्थ सात घोड़ोंवाला है। यह भी बताया गया है कि इनके रथ में एक ही पहिया है और सारथि अरुण लँगड़ा है।

यहाँ विचारणीय है कि जब घोड़े सात जुते हैं तो एक ही पहिए से कैसे गतिशीलता है? खैर, कोई-न-कोई टेक्नॊलोजी तो काम करती ही होगी। कुछ नहीं तो दैवी क्रिया अवश्य कही जाएगी। परन्तु अश्व एक है कि सात, यह सन्देह के घेरे में आ गया है। इसका कारण है कि वेद में ही दुमुखी बात आई है।  ऋग्वेद (1.50.8) में ‘सप्त अश्वा हरितो रथे वहन्ति देव सूर्य’ कहा गया है तो इसी वेद (1.164.2) में ‘एको अश्वो वहति सप्तनामा’  कहा गया है। स्पष्ट है सप्त अश्व का अर्थ सात घोड़े तो एको अश्वः का अर्थ एक घोड़ा है। न तो सात एक हो सकते हैं और न एक सात; तो फिर ? सप्तनामा ही सही संकेत है। यहाँ रूपक मान कुछ लोग सात दिनों को सात घोड़ों का उपमान ग्रहण करते हैं तो कुछ लोग बैगनी, नीला, आसमानी, हरा, पीला, नारंगी, लाल— इन सात रंगों का। चूँकि वैदिक काल में दिनों का प्रचलन नहीं था, इसलिए रंगों का प्रतीक मानना उपयुक्त है। स्पष्ट है कि सूर्य से निकलनेवाली सात तरह की किरणों का ही निर्देश किया गया है।

Feature Image Credit: istockphoto.com

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