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भोग और मोक्ष के निकष पर अक्षय तृतीया (भाग २)

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यों तो ‘हुतं च दत्तं च तथैव तिष्ठति’, अर्थात् हवन एवं दान हमेशा अक्षय फल दायक होते हैं, परन्तु अक्षय तृतीया को पवित्र नदियों, समुद्र व तीर्थों में स्नान, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, व्रत और दान का महत्त्व अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक है। ‘महाभारत’ तो सार रूप में स्नान, हवन, जप, दान को अनन्त फलदायक मानता ही है-‘स्नात्वा हुत्वा च दत्त्वा च जप्त्वानन्त फलं लभेत्’। ‘भविष्य’ पुराण भी इसका यशोगान करते कहता है कि इस दिन कम या ज्यादा जो भी दान दिया जाता है, वह कभी नष्ट नहीं होता, इसीलिए इसका नाम अक्षया है-

‘यत्किंचित् दीयते दानं स्वल्पं वा यदि वा बहु।

तत्सर्वमक्षयं यस्मात् तेनेयम् अक्षया स्मृता’।।

इस दिन देवताओं एवं पितरों की प्रीति के लिए अलग-अलग धर्मघट का दान बताया गया है। ‘भविष्य’ पुराण का कथन है-

‘उदकुम्भान् सकनकान् सान्नान् सर्वरसैः सह।

यवगोधूमचणकान्सक्तुदध्योदनं तथा।

ग्रैष्मिकं सर्वमेवात्र सत्यं दाने प्रशस्यते’।।

अर्थात् इस दिन जलपूर्ण घट, सोना, अन्न, सत्तू, जौ, गेहूँ, चना, दही-भात एवं ग्रीष्म ऋतु के लिए आवश्यक अन्य वस्तुएँ भी दान करें।

शायद गरमी से बचाव करने लिए ही ‘स्कन्द’ पुराण महीन कपड़े और पुष्पगृह-जैसे विशिष्ट दान बताता है।  अन्य मुख्य देय वस्तुओं में अन्न और जल से पूर्ण घड़ा, सत्तू, दही, चना, गुड़, ईख, खाँड़, सुवर्ण, छाता, जूता-चप्पल व खड़ाऊँ आदि के दान का विधान है। इनमें भी मुख्य जलपूर्ण घट, सत्तू और गुड़ है। सत्तू और गुड़ गरमी के मौसम के लिए उत्तम खाद्य हैं, फिर घड़े का ठंडा जल मिले तो क्या कहना! गरमी में यों भी कुछ लोग सत्तू गुड़ तथा घी मिलाकर लड्डू-जैसा बनाकर (घेवड़ा) खाते हैं, जिसकी प्रशंसा में कहा भी गया है – ‘शक्तवः शर्करासर्पिःशक्ता ग्रीष्मेऽतिपूजिताः’।

आयुर्वेद में जौ, चना आदि के सत्तू के लाभप्रद गुणों का खूब वर्णन है। तदनुसार सत्तू रुचिकर, तृप्तिकारक, शीतल, सुपाच्य, बलप्रद, कफ-पित्त को दूर करनेवाला तथा थकान को भी शान्त करता है। सम्भव है, इसी कारण वैशाख में इसके दान और सेवन को जन-जन तक पहुँचाने के लिए धार्मिक कृत्य के रूप में भी स्थान दिया गया हो। शायद इसीलिए अक्षय तृतीया को विष्णुमन्दिरों में भी भगवान को सत्तू का भोग लगाया जाता है।

इस दिन पितरों की तृप्ति के लिए पूर्वाह्ण में अपिण्डक (पिण्डरहित) श्राद्ध विहित है। श्राद्ध न कर पाने पर तिलतर्पण अवश्य करना चाहिए। हाँ, इस दिन उपवास केवल दिनभर ही करना चाहिए, क्योंकि रात्रि में वर्जित है।

अक्षय तृतीया की सांस्कृतिक मूल्यवत्ता के कारण ही बद्रीनारायणजी का दर्शनलाभ होता है। परम्परा के अनुसार वृन्दावन में विहारीजी के भी इसी दिन दर्शन होते हैं। नवान्न-ग्रहण के लिए भी इसे शुभ माना गया है। इसे प्यार से व भाषाई मुख-सुख से लोग आखा तीज  कहते हैं। विविधा से भरे हमारे देश में लोग क्षेत्रविशेष के मुताबिक भी  भाव, भाषा एवं भौमिक सुगन्ध से इसे उत्सवी रंग देकर इसका और महत्त्व बढ़ा देते हैं।

हमारे पुराणों की सबसे बड़ी विशेषता है कि ये सरलता और प्रभावी ढंग से अपने तथ्य एवं कथ्य को प्रस्तुत करते हैं। आवश्यकता के अनुसार कथाओं का भी सहारा लेकर दूध में बतासा घोलकर और स्वादिष्ट बना देते हैं। इसी तरह अक्षय तृतीया के प्रसंग में ‘भविष्य’ पुराण में एक कथा आई है।

शाकल नगर (स्यालकोट, पाकिस्तान) में एक वैश्य था। वह सात्त्विक, धर्माचारी, सत्यवादी एवं अपनी वृत्ति में भी दक्ष था। एक दिन उसे अक्षय तृतीया का माहात्म्य ज्ञात हुआ। जैसे ईश्वर के साक्षात् दर्शन, नया ज्ञान, नई खोज, नई सम्पत्ति व सन्तान-प्राप्ति का सुख होता है, वैसे ही वह बहुत आह्लादित हुआ। उसने अपने पुण्य की वृद्धि के लिए पहले गंगा-स्नान किया, पितरों का तर्पण किया और घर आकर सत्तू, चना, गेहूँ, दही, गुड़, ईख,खाँड़ और सुवर्ण  के साथ जलपूर्ण घड़ा इकट्ठा कर दान किया। उसकी पत्नी को यह अच्छा नहीं लगा कि घर के काम आनेवाली इतनी चीजें व इतने खर्चे दान में जाएँ। उसने रोकने की बड़ी कोशिश की, पर धर्मवीर वणिक् ने उसकी एक भी नहीं सुनी। उसने अक्षय तृतीया की यह विधि ऐसी अपनाई कि आजीवन पालन करता रहा।

जन्मान्तर में वह कुशावती (सम्भवतः रायपुर, विलासपुर का क्षेत्र) का राजा हुआ। अक्षय दान के फल से उसके यहाँ इस जन्म में भी किसी चीज की कमी नहीं रही। इस जन्म में भी वह दानधर्म से बिलग नहीं हुआ।

इसी कथा-प्रसंग में भगवान श्रीकृष्ण युधिष्ठिर जी से कहते हैं कि इस दिन सभी तरह के रसीले पदार्थ, अन्न, शहद, विविध फल, जलपूर्ण घट एवं ग्रहीता को गरमी में विशेष काम आनेवाली चीजें; जैसे जूता, छाता आदि दान करें ही गौ, सुवर्ण एवं भूमि का दान अतिशय अक्षयकारक होता है।

जैसे एक ही विषय-वस्तु की प्रस्तुति अनेक व्यक्तियों को करनी हो तो भिन्न शैलियों के कारण सारतः एक ही बात आएगी, पर प्रसारतः अन्तर दिखेगा ही। वैसे ही विभिन्न सन्दर्भों में कही गई अक्षय तृतीया को किए गए स्नान, पूजन, दान कर्ता को इस लोक और परलोक में अनन्त सुख देनेवाले हैं। इसका यह भी अर्थग्रहण करना चाहिए के इस दिन किए गए पाप भी वज्रलेप की तरह अमिट होते हैं- करम गति टरै नाहिं टरै।

Feature Image Credit: istockphoto.com

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