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भोग और मोक्ष के निकष पर अक्षय तृतीया (भाग १)

वैदिक मन्त्र है : भद्रं कर्णेभिःशृणुयाम देवा भद्रं पश्येम अक्षभिः यजत्राः….।

अर्थात्, हे देवताओ ! हम सुखद, कल्याणमय बातें सुनें और ऐसी ही चीजें देखें भी।

यह मन्त्रांश स्पष्ट करता है कि कोई व्यक्ति बदहाली पसन्द नहीं करता। कोई भी जिन्दगी में दुःख का दिन देखना नहीं चाहता। गरीब से गरीब आदमी भी सुख के सपने देखता है। रोगी से रोगी भी स्वास्थ्य-लाभ की आशा पाले जीता है। नहीं तो निराशा शीघ्र ही अपना कलेवा बना लेगी। आस पर उपवास सकारात्मकता की ही पहल है। भक्ति-भावना एवं धार्मिक क्रियाओं का लक्ष्य भी मानव को निराशा से दूर रखना तथा जिजीविषा को प्रौढ करना है।

क्षय और अक्षय का द्वन्द्व भी नश्वरता के बीच अनश्वरता को तलाशना ही है।  ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ अर्थात् ईश्वर ही सत्य है, शाश्वत है, नित्य है व अनश्वर है और संसार की सभी वस्तुएँ असत्य, क्षण-भंगुर, अनित्य व नश्वर हैं, यह भी सन्मार्ग के मन्थन की ही विचारणा है। चिन्तन-मननशील हमारे पूर्वजों ने अविनाशी ईश्वर के विशिष्ट दिव्य अंशों से युक्त कुछ कालाविधियों का भी इस लोक में साक्षात्कार किया है, जिनमें प्रमुख हैं किसी माह के रविवार को सप्तमी, मंगलवार को चतुर्थी, बुधवार को अष्टमी तथा सोमवार को अमावस्या तिथि का होना अक्षय कारक माना गया है। ऐसे योग साल में कई हो सकते हैं, परन्तु मन्वादि और युगादि तिथियाँ साल में एक ही बार आती हैं, इसलिए अपेक्षाकृत इनका मूल्य और अधिक है। इनमें भी अक्षयसंज्ञक होने से कार्तिक शुक्ल नवमी (अक्षय नवमी ) एवं वैशाख शुक्ल तृतीया ( अक्षय तृतीया) का विशिष्ट स्थान है।

अक्षय नवमी जहाँ त्रेता युग की जन्मतिथि है तो अक्षय तृतीया आदियुग सत्ययुग की जन्मतिथि है। ये दोनों प्रमुख तिथियाँ हैं। ये दोनों अक्षय संज्ञक होने से हमारे सत्कर्मों को सर्वाधिक उदारतापूर्वक पुरस्कृत करनेवाली हैं। इसीलिए इस दिन अपनी सांस्कृतिक परम्परा से हम शास्त्रनिर्देशों के अनुसार अधिक से अधिक से विहित विधियों के पालन में तत्पर रहते हैं। इनसे जुड़ी माहात्म्य-कथाएँ भी हमारे पुण्य कार्यों में बल भरती हैं।

यों तो कार्तिक, माघ और वैशाख, इन तीनों महीनों को वैष्णव स्वरूप प्राप्त है। फिर भी ‘माधव’ शब्द विष्णु एवं वैशाख दोनों का वाचक होने से यह और मूल्यवान हो जाता है। इसीलिए ‘स्कन्द’ पुराण कहता है- ‘न माधव-समो मासो न कृतेन समं युगम्’। अर्थात् वैशाख के समान कोई महीना नहीं और न सत्ययुग के समान कोई युग ही है। अक्षय तृतीया वैशाख में ही होती है और आदियुग इसी दिन प्रारम्भ हुआ था, इसलिए पुण्यप्रद तिथियों में सर्वोपरि है। इसे स्वयंसिद्ध मुहूर्तों में भी स्थान प्राप्त है। आशय यह कि किसी शुभ कार्य के सम्पादन में पंचांगों की शुद्धि देखने की आवश्यकता नहीं। इसीलिए लोग इस दिन विवाह, गृहप्रवेश आदि को शुभ मानते हैं।  ‘मत्स्य’ पुराण के अनुसार कृत्तिका नक्षत्र से युक्त तृतीया विशेष फलदायी है तो ‘नारद’ पुराण के अनुसार इस दिन  रोहिणी नक्षत्र के साथ-साथ बुधवार का होना दुर्लभ संयोग व महापुण्य प्रद है।  दोनों मतों को जोड़कर देखें तो स्पष्ट है कि उक्त दोनों में कोई नक्षत्र हो तो उत्तम ही है। फिर भी द्वितीया विद्धा तृतीया अग्राह्य कही गई है। तृतीया में चतुर्थी का योग गौरी-विनायक योग के रूप में ग्राह्य है। सर्वाधिक पुण्यदायक, सुखदायक है।

यों तो प्रत्येक पक्ष की प्रत्येक तिथि के अलग-अलग  स्वामी बताए गए हैं, जिनमें तृतीया की स्वामिनी गौरीजी हैं। परन्तु अक्षय तृतीया के साथ शाक्त, वैष्णव, शैव के अलावे सौर भावना भी जुड़ी है। यही कारण है कि इस दिन विविध पौराणिक सन्दर्भों में भगवती गौरी, भगवान विष्णु, भगवान शिव एवं भगवान सूर्य की उपासना पर विशेष बल दिया गया है।  सम्भवतः इसीलिए वैशाख शुक्ल तृतीया की इतनी महत्ता है कि इसे ‘गीर्व्वाणैरपि वन्दिता’(देवता भी जिसकी वन्दना करते हैं) कहा गया है। अतः यदि तीर्थस्नान न भी हो सके तो सूर्योदय से पूर्व स्नान कर देवपूजन, पितृतर्पण कर य़थाशक्ति दान कर उपवासपूर्वक इष्ट मन्त्रों का जप करें। इस दिन सत्तू दान अवश्य करें, क्योंकि ‘देवीभागवत’ के अनुसार सत्तू के एक कण के दान से भी शिवलोक की प्राप्ति होती है- ‘वैशाखे सक्तुदानं च यः करोति द्विजातये। सक्तु-रेणु-प्रमाणाद् हि मोदते शिवमन्दिरे’।।

‘मत्स्य’ पुराण की मान्यता है कि इस दिन दान, हवन, जप तथा उपवास अक्षयकारक हैं, अर्थात् इस दिन का किया पुण्य कभी क्षीण नहीं होता, जन्म-जन्मान्तर तक बना रहता है-

‘————————- तृतीयां सर्वकामदाम्।

यस्यां दत्तं हुतं जप्तं सर्वं भवति चाक्षयम्।।

वैशाख- शुक्लपक्षे तु तृतीया यैरुपोषिता।

अक्षयं फलमाप्नोति सर्वस्य सुकृतस्य च’।।  (अध्याय:65)

यों तो विष्णु का पूजन अक्षत (चावल) से न करना शास्त्रसम्मत है- ‘नाक्षतैरर्चयेद् विष्णुम्’,प रन्तु इस दिन अक्षत से विष्णुपूजन निषिद्ध नहीं; विहित है। इस दिन अक्षत से पूजन के महत्त्व के कारण भी इसका नाम अक्षया या अक्षय तृतीया माना गया है— ‘अक्षतैः पूज्यते विष्णुः तेन साक्षया स्मृता’।

‘विष्णु-धर्मोत्तर’ पुराण के अनुसार इस दिन चन्दन से विभूषित श्रीकृष्ण के दर्शन वैकुण्ठ दायक हैं। ‘नारद’ पुराण इस दिन लक्ष्मी सहित नारायण की गंगाजल से स्नान, चन्दन, पुष्प, धूप आदि से पूजा पर बल देता है तो ‘स्कन्द’ पुराण भी मनोहर गन्ध आदि से अर्चन की बात करता है। वहीं ‘ब्रह्म’ पुराण ने जौ से ही हवन, विष्णुपूजन जौ का दान एवं प्राशन को महत्त्व दिया है-

‘तस्यां कार्य्यो यवैर्होमो यवैर्विष्णुं समर्च्चयेत्।

यवान् दद्यात् द्विजातिभ्यः प्रयतः प्राशयेद् यवान्’।।

इस दिन शंकर, गंगा, कैलास, हिमालय एवं भगीरथ की पूजा का भी निर्देश  है-

‘भगीरथं च नृपतिं सागराणां सुखावहम्।

पूजयेत् शंकरं गंगां कैलासं च हिमालयम्’।।

Feature Image Credit: istockphoto.com

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