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रासबिहारी बोस

बात 1911 की है!

चंद्रनगर गाँव दिनों बंगाल क्रन्तिकारी आन्दोलन का मुख्य क्षेत्र बना हुआ था। उसी गाँव के कुछ देश पर मर मिटने वाले क्रांतिकारियों ने भारत के क्रन्तिकारी इतिहास की सबसे रोमांचक घटना को अंजाम देने की योजना बनायी। इस योजना का उद्देश्य भारत में ब्रिटिश नौकरशाहों के दिल में आतंक फैलाकर उनका मनोबल गिराना था। वो दिन आ ही गया था जिस दिन अंग्रेज़ों को यह एहसास कराना था कि अब दिल्ली भी क्रांतिकारियों के पंजों से दूर नहीं है। अंग्रेज़ों को लगा था कि कलकत्ता से निकलकर वो बचे रहेंगे लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था।

23 दिसंबर 1912 का दिन आ चुका था।

वायसराय और उनकी पत्नी हाथी की पीठ पर एक शानदार हौदे पर सवार थे। सभी क्रांतिकारी साथी अपनी-अपनी जगह पर मुस्तैद थे। योजना यह थी कि अगर पहले और दूसरे क्रांतिकारी बम फेकने में असफल हुए तो तो अंत में दल के नेता बम से हमला कर देंगे। तभी एक ज़ोर के धमाके से भीड़ दहल जाती है। आवाज़ की तरफ लोगों की निगाह गयी तो पाया कि हाथी के हौदे पर से धुआँ निकल रहा है। वो छतरी जिस को वायसराय की शान में लगाया गया था, ज़मीन पर पड़ी धूल चाट रही है। समारोह स्थल पर भगदड़ मच चुकी थी। क्रांतिकारियों ने अपना काम भली भांति निभा दिया था। उन्होंने हाथी के ठीक सामने आकर वाइसराय पर अपनी जान दांव पर लगाते हुए बम से हमला कर दिया था।

इस दिल दहलाने वाली घटना को अंजाम देने वाले मास्टर माइंड थे रास बिहारी बोस!

25 मई 1886 को पश्चिम बंगाल के पूर्व बर्धमान जिले के सुबलदहा गांव में एक बंगाली कायस्थ परिवार में जन्म लेने वाले रस बिहारी बोस को बचपन से ही लाठी भांजना पसंद था।

उनके शिक्षक चारुचंद्र द्वारा जब उनको आनंद मठ पढने को मिली तो बिशे, जो अब तक रासबिहारी बन चुके थे, के सोचने की दिशा ही बदल गयी। सुरेंद्रनाथ बनर्जी और स्वामी विवेकानंद के राष्ट्रवादी भाषण पढ़कर उनको अब यह समझ आने लगा था कि मात्र लाठी भांजने से देश को आज़ादी नहीं मिलने वाली है।

कुछ दिनों बाद वो अपनी नौकरी के कारण अपनी असली मंजिल देहरादून आ पहुंचते हैं।

देहरादून में अब रास बिहारी के दो ही काम थे। पहला, अपने कार्यालय की प्रयोगशाला से गुप्त रूप से बमों के लिए एसिड चुराना, और दूसरा, सेवानिवृत्त गोरखा अधिकारियों से सेकेंड हैंड रिवॉल्वर हासिल करना । कुछ दिनों बाद लाला हरदयाल और जितेंद्र मोहन के भारत से जाने के बाद, रास बिहारी बोस पंजाब के क्रांतिकारियों की केंद्रीय कमान चुके थे और उनका देहरादून निवास गुप्त राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बन चुका था।

दिल्ली बम कांड के बाद हुई गिरफ्तारियों से बचते हुए रास बिहारी शिरीष चन्द्र के घर चन्द्रनगर पहुँच चुके थे। वहाँ जिस कमरे में रासबिहारी रहते थे उसपर दिन भर बाहर से ताला लगा रहता था। पुलिस को सूचना मिली थी कि रास बिहारी बोस वहां एक घर में छिपे हुए हैं। लेकिन जब वे घर पर छापा मारने आए, तो अंदर कोई नहीं मिला। अचरज की बात यह थी कि रास बिहारी को भागते हुए नहीं देखा गया था। अचानक अधिकारी को याद आया कि कुछ देर पहले ही एक सफाईकर्मी हाथ में बाल्टी लेकर घर से बहार निकला था।

रास बिहारी बोस एक बार फिर सफाई से गायब हो चुके थे।

चंद्रनगर में कुछ सप्ताह छिपकर बिताने के बाद, उन्होंने अंततः बंगाल छोड़ दिया और बनारस में अपना नया मुख्यालय बना लिया। दिन के समय वह आम तौर पर दरवाजे से बाहर नहीं निकलते थे लेकिन शाम को अपने साथियों से मिलने के लिए वो गंगा किनारे पहुँच जाते थे। बनारस में भी एक रोज़ पुलिस के छापा  मारने के बाद रास बिहारी लाश के रूप अर्थी पर लेट कर अपने बाकी चार साथियों के साथ “राम नाम सत्य है” कहते हुए पुलिस की आँख में की धूल झोंक कर जा चुके थे।

रास बिहारी के जीवन की अगली महत्वपूर्ण घटना अंग्रेजी पत्र, लिबर्टी का प्रकाशन भी था।

लेकिन अब बारी थी भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की महानतम योजना को अंजाम देने की और वो थी-

“बंगाल, पंजाब और उत्तर प्रदेश के क्रांतिकारियों द्वारा संयुक्त रूप से भारत में एक सशस्त्रक्रांति”

रासबिहारी 1857 के संग्राम की तर्ज पर इस बार ग़दर के लिए ग्रामीणों की एक ऐसी फ़ौज तैयार कर रहे थे जो लाहौर, फिरोजपुर और रावलपिंडी की छावनियों में एक साथ हमला करने वाली थी। 1914 में अमेरिका, कनाडा, जर्मनी के भारतीय क्रांतिकारियों ने भारत भर में और यहाँ तक कि सिंगापुर में कई सेना इकाइयों से संपर्क करना शुरू कर दिया था। जब रास बिहारी के अनुरोध पर मोती लाल रॉय सशस्त्र विद्रोह के लिए श्री अरबिंदो का आशीर्वाद प्राप्त करके लौटे तो रासबिहारी ग़दर की तैयारी के उद्देश्य से बनारस, दिल्ली और लाहौर का दौरा करने के लिए दोबारा निकल पड़े।

लाहौर में 21 फरवरी, 1915 को ग़दर की शुरुआत की तारीख निर्धारित की गई थी।

निडर बोस ने 19 फरवरी को विद्रोह की शुरुआत की लेकिन गद्दार किरपाल सिंह की मुखबिरी की वजह से इस गदर को दबा दिया गया। कई क्रांतिकारियों को मार डाला गया, कैद किया गया और काला पानी भेज दिया गया।

अपने अज्ञातवास के समय उस एक रोज़, उस घर को जहाँ रास बिहारी छुपे हुए थे, पुलिस बल ने चारों ओर से घेर लिया था। पुलिसकर्मी रास बिहारी को ढूंढते हुए जैसे ही अन्दर आये वो एक उड़िया पुजारी से टकरा गए। हमेशा की तरह उसे न केवल उस कमरे में, बल्कि उस पूरे भवन में कोई नहीं मिला था। मिलता भी कैसे?

उड़िया पुजारी कोई और नहीं बल्कि खुद रास बिहारी थे। जब तक अधिकारी को यह समझ में आया तब तक पुजारी पुलिस की नजरों से ओझल हो चुका था।

इसी प्रकार जब एक बार कलकत्ता पुलिस को इस बात की सूचना मिली थी कि रास बिहारी कोलकाता के सियालदह में डाकघर के पास कहीं छिपे है तो धर्मतला से शुरू होकर पूरे सियालदह को सील कर दिया गया। हमेशा की तरह रासबिहारी का कहीं पता नहीं चला था।

पुलिस को एक पल के लिए भी संदेह नहीं हुआ कि सियालदह डाकघर की दूसरी मंजिल पर अपने वायलिन पर मधुर धुन बजाने वाला एंग्लो-इंडियन कोई और नहीं वही था जिसकी खोज में पूरी पुलिस नाका बंदी किये बैठी थी।

भारत में बदती गतिविधियों को देखते हुए वो आखिरकार पी.एन.टैगोर के रूप में भेष बदल कर जापान जा पहुँचते हैं। जापान के अपने अज्ञातवास में नाकामुराया बेकरी में एक पत्रकार और लेखक के रूप में उनकी क्रांति की तैयारी शुरू हो चुकी थी। उन्ही दिनों की बात है जब जापान में भारतीय शैली की करी को पेश करने के लिए “नाकामुराया के बोस” का नाम मिला था। जब बेकरी के मालिक आइज़ो सोमा ने रासबिहारी के सामने अपनी बेटी तोशिको से शादी करने का प्रस्ताव रखा तो वो ना नहीं कर पाए और जुलाई 1918 में बोस और तोशिको ने शादी कर ली।

कुछ ही समय बाद तोशिको बोस के साथ रहकर भारतीय रंग में ढलते हुए  बंगाली बोलना और साड़ी पहनना सीख चुकी थी। जहाँ 1923 में बोस को जापानी नागरिकता तो मिल गयी  किन्तु साल भर बाद उनकी जीवनसंगिनी उनका साथ छोड़ का चल बसीं।

1938 में हिंदू महासभा, भारत के अध्यक्ष विनायक दामोदर सावरकर की प्रेरणा से रासबिहारी बोस ने हिंदू महासभा की जापानी शाखा की स्थापना कर डाली। कुछ ही दिन बाद सावरकर ने सुभाष चन्द्र बोस को ब्रिटिश भारत के खिलाफ सशस्त्र हमले के आयोजन के लिए रास बिहारी बोस के साथ मिलकर काम करने का विचार सुझाया।

मार्च और अप्रैल 1939 में एक जापानी पत्रिका में उन्होंने लिखा, “सावरकर वीरता, वीरता, साहसिक और देशभक्ति के प्रतीक हैं और उनकी स्तुति करना बलिदान की भावना की स्तुति करना है।सावरकर वह हैं जिन्होंने हमेशा भारत की क्रांति अग्नि को उज्जवलित रखा है। वह एक ऐसे देशभक्त हैं जिन्होंने 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने जीवन को जोखिम में डाल दिया है।”

बहुत से लोग यह नहीं जानते हैं कि इंडियन नेशनल आर्मी  इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की ही देन है, जिसकी स्थापना रास बिहारी बोस ने की थी। 22 जून 1942 को बैंकॉक में लीग के दूसरे सम्मेलन में सुभाष चंद्र बोस को लीग में शामिल होने और इसके अध्यक्ष के रूप में इसकी कमान संभालने के लिए आमंत्रित किया गया था।

रासबिहारी बोस जिनको वामपंथी इतिहासकारों द्वारा हमेशा उपेक्षा का शिकार होना पड़ा है, ने ही आजाद हिंद आंदोलन के लिए ध्वज का चयन कर सुभाष चंद्र बोस को ध्वज सौंपा था। जहाँ रास बिहारी बोस, अंतिम समय तक सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में INA के सर्वोच्च सलाहकार बने रहे वहीं विनायक दामोदर सावरकर सुभाष चंद्र बोस और रास बिहारी बोस के बीच अंतिम समय तक एक महत्वपूर्ण कड़ी बने रहे।

1943 के वर्ष में, जापानी सरकार ने उन्हें एक विदेशी को दी गई सर्वोच्च उपाधि- द सेकेंड ऑर्डर ऑफ मेरिट ऑफ द राइजिंग सन से सम्मानित कर उन्हें भारत में ही नहीं जापान में भी अमर कर दिया।

एक उच्च शिक्षित व्यक्ति, रास बिहारी जो एक स्वीपर, एक साधारण उड़िया पुजारी, एक एंग्लो-इंडियन वायलिन वादक, या यहाँ तक कि एक लाश का वेश बनाकर अंग्रेजों की आँख में धूल झोंकते रहे। वो अपनी बहुमुखी प्रतिभा का उपयोग एक शानदार जीवन जीने के लिए कर सकते थे लेकिन  इसके बजाय उन्होंने अपने जीवन को अपनी मातृभूमि को समर्पित करने का फैसला किया।

एक व्यक्ति जिसने 30 साल से भी कम उम्र में कई भारतीय भाषाओं और उनकी बोलियों में महारत हासिल की, एक अभिनेता था यह शख्स जो बिना किसी पूर्वाभ्यास के अचानक आन पड़ी विपदा में कई तरह भेष बना सकता था जिसका नाम था-

रास बिहारी बोस!!

वो रास बिहारी जो कभी श्यामलाल बंगाली तो कभी गणपत सिंह पंजाबी और कभी फैट बाबु के रूप में अंग्रेजी सरकार की आँखों में जिंदगी भर किरकिरी बने रहे,

वो रास बिहारी बोस जिनको अंग्रेज़ कभी हाथ भी न लगा सके, २१ जनवरी १९४५ को भारत की आज़ादी देखे बिना ही अपने बिछुड़े हुए साथियों से मिलने हम सब से विदा ले गए।

“लंबा कद, स्वाभाव से अक्खड़, बड़ी-बड़ी आँखें, मूंछ-मुंडा, हाथ की तीसरी ऊँगली जख्मी, और उम्र करीब 30 बरस। यह शख्स कभी पंजाबी तो कभी बंगाली कपड़े पहने और कभी सन्यासी के वेश में रावलपिंडी, मुल्तान, अंबाला, शिमला, अमृतसर, गुरदासपुर, फिरोजपुर, झेलम और लाहौर के आसपास पाया जा सकता है।”

पश्चिम बंगाल सरकार के आईबी रिकॉर्ड्स में जिस शख्स का यह हुलिया दिया गया था उसका नाम था-

रास बिहारी बोस”

भारत के स्वतंत्रता संग्राम एक ऐसे ही कुछ गुमनाम क्रांतिकारियों की गाथाएं आप क्रांतिदूत श्रुंखला में पढ़ सकते हैं जो डॉ. मनीष श्रीवास्तव द्वारा लिखी गयी हैं।

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