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पंडित मदन मोहन मालवीय

“पृथ्वी मण्डल पर जो वस्तु मुझको सबसे अधिक प्यारी है, वह धर्म है और वह धर्म सनातन धर्म है”।

 –  श्री मदन मोहन मालवीय

मालवीय जी के अध्यात्म और धर्म सम्बन्धी लेखों को पढ़ने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि प्राचीन साहित्य और सनातन धर्म में में मालवीय जी की अमिट आस्था थी। मालवीय जी के विचारों को पढ़ कर यह प्रतीत होता है कि भागवतमय हो गये थे। भागवत ओर महाभारत, इन दो ग्रन्थों का जन्म भर वे पारायण करते रहे।

न त्वहं कामये राज्यम् न स्वर्ग न पुनर्भवम्।

कामये दुःख तप्तानां, प्राणिनायर्तिनाशनम् ।। 

यह श्लोक उन्हें अतिप्रिय था और वह सदैव इसका भावार्थ सहित व्याख्या करते हुए नहीं अघाते थे-

“मैं राज्य की कामना नहीं करता, मुझे स्वर्ग और मोक्ष नहीं चाहिए।  दु:ख से पीड़ित प्राणियों के दु:ख दूर करने में सहायक हो सकूं, यही मेरी कामना है।”

महाप्रयाण से लगभग एक सप्ताह पूर्व अपने मित्रों को उन्होंने बुलाकर कहा था,

“मुझे मुत्यु के समय काशी नहीं ले जाना।  मैं अभी मोक्ष प्राप्त करना नहीं चाहता। मेरी इच्छा है कि मैं एक और जन्म लेकर मानवों की सेवा कर सकूँ।”

कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि हिन्दू विश्वविद्यालय मालवीय जी का विशालतम एवम् उत्कृष्ट रचना है। किन्तु स्वयं मालवीय जी के विचार पृथक थे। उनके हृदय में सदैव भारतीय संस्कृति ओर भारतीय महाप्रजा ही बसते थे जिनके लिये वे अनेकों हिन्दू विश्वविद्यालयों का त्याग कर सकते थे।

मालवीय जी के अनुसार हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना इस कारण हुई थी कि वह देश, संस्कृति और प्रजाओं की सेवा का एक साधन बने। वो कहते थे कि कोई भी व्यक्ति जो इस विश्वविद्यालय से सम्बन्धित हे, वह उच्च आदर्शों पर चलते हुए भारत को विश्वगुरु बना सकता है अन्यथा ज्ञान का व्यापार करने वाले तो हर स्थान पर पाए जाते हैं।

अपने “सनातन धर्म” लेख में मालवीय जी ने पहले ही श्लोक में“धर्म” शब्द की वह परिभाषा देते हैं जो सर्वमान्य है। इस परिभाषा के दो सूत्र हैं—

प्रथम- “धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा”

अर्थात धर्म सारे जगत की प्रतिष्ठा (आधार) है

द्वितीय – “तस्माद्धर्म परमं वदन्ति”

धर्म ही प्रजाओं के जीवन में सर्वोपरि तत्त्व है।

हम सभी जानते हैं कि “धर्म” शब्द की उत्पत्ति “धारण” शब्द से हुई है। (अर्थात् जिसे धारण किया जा सके वही धर्म है) यह धर्म ही है जिसने समाज को धारण किया हुआ है। अतः यदि किसी वस्तु में धारण करने की क्षमता है तो निस्सन्देह वह धर्म है।

धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मो धारयत प्रजाः।

धारणात्मक नियमों का समादर ही धर्म है । व्यास जी की यह परिभाषा मारूवीय जी को मान्य थी और वस्तुतः “सनातन धर्म” इस नाम पीछे भी यही अर्थ अभिप्रेत है। भागवत में जो तीस लक्षणों वाला धर्म बताया गया है और मनु ने जिसे दस लक्षणों वाला धर्म बताया है, वही तो मनुष्य मात्र के लिए  सनातन धर्म है-

सनातनस्य धर्मस्य मूलमेतत्‌ सनातनम्‌ ।

मालवीय जी जिस धर्म के मानने वाले थे, उसका मूल ईश्वर है। हिन्दू धर्म के समस्त शास्त्र इसी मूल सिद्धांत की पुष्टि करते हैं। ईश्वर आनंदमय है तथा उसके दर्शन विछक्षण रसानुभूति हैं। मालवीय जी के ईश्वर लेख में आप देख सकते हैं कि वो यही कह रहे हैं।

ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी।

 सत चेतन घन आनँद रासी।।

ब्रह्म एक ही है जो कि व्यापक, अविनाशी, सत्य, चेतन और परमआनन्द प्रदान करने वाले हैं। ईश्वर स्वयं सिद्ध हैं तथा उसके लिये तर्क की आवश्यता नहीं है। सनातनधम की दृष्टि से ईश्वर के लिये श्रुति-स्मृतियों का प्रमाण तथा आप्तों के वाक्य ही पर्याप्त हैं। आलोकित हृदय द्वारा एवम प्रसन्नचित्त मन द्वारा ईश्वर के गुणों का श्रद्धापूर्वक वर्णनमात्र ही किया जा सकता है।

“उपनिषत्‌ प्रमाण” में मालवीय जी कहते हैं-

“ईश्वर को कोई आँखों से नहीं देख सकता, किन्तु तप से व्यापक मन को पवित्र कर विमल बुद्धि से ईश्वर को देखा जा सकता है।

ईश्वर की अद्वितीय सत्ता को, जिसे बह्म भी कहा गया है, स्वीकार करते हुए सनातन की दूसरी विशेषता त्रिदेवों की कल्पना है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश – ये तीनों सृष्टि की रचना,पालन ओर संहार की शक्तियाँ हैं, जो एक ही मूल शक्ति के त्रेधा विभाग हैं।

इन त्रिदेवों में कोई छोटा-बड़ा नहीं हैं। जिन्हें पुराणों में उपासना के लिये त्रिदेव कहते हैं, वे ही दर्शन की परिभाषा में विश्व के तारतम्य की व्याख्या करने के लिये सतत्व, रज ओर तम गुण कहलाते हैं। पुरातन वेदों ने उन्हें ही अव्यक्त, अक्षर और क्षर पुरुष कहा गया है। मालवीय जी के अनुसार यही त्रिकवाद सनातन धर्म ओर भारतीय तत्त्वज्ञान की दृढ़ नींव है। मालवीय जी ने अपने “ईश्वर” लेख में प्रमाणों सहित से एक ब्रह्म ओर उसके त्रिरूपों की अत्यंत रसपूर्ण विवेचन की है।

“कृष्णस्तु भगवान्‌ स्वयं”, “भगवान्‌ कृष्ण की महिमा”, कृष्ण शरणः सताम” तथा “भगवान श्री कृष्ण के जीवन के कुछ उपदेश” ऐसे लेख हैं जिनमें आप मालवीय जी कृष्ण भक्ति के दर्शन कर सकते हैं।

सनातन धर्म के अनुसार भगवान्‌ , परमात्मा, अव्यय, अद्वेत तत्व और कृष्ण इन सभी के अर्थ अमन ही हैं। ईश्वर के नामों की सूची सहस्त्रों नामों तक जा पहुँचती है जहाँ शब्दों में तो भेद हैं किन्तु अर्था में गूढ़ एकता पायी जाती  है। मात्र हमारी भाषा ही नहीं आपितु विश्व  की जितनी भी भाषायें हैं उनमें ईश्वर के जो भी नाम हैं, सनातन धर्म ने सबको स्वीकार किया है।

मालवीय जी के अनुसार यही इस धर्म की महती विजय है और इसमें किसी भी प्रकार मतभेद सम्भव नहीं है। राम और कृष्ण एक ओर परब्रह्म के वाचक हैं तो दूसरी ओर नर रूप में नारायण के अवतार हैं जो अपने चरित्रों से मानव के लिए सदैव परम आदर्श स्थापित करते हैं।

“अन्त्यजोद्धार विधि” लेख में मालवीय जी अपना नवीन दृष्टिकोण लोगों के सामने लाये थे। यह उन सभी को चौंका देने के लिए पर्याप्त था जो उनको प्राचीनतावादी समझते थे। मालवीय जी वस्तुतः प्रचीनतावादी ही थे किन्तु धर्म की प्राचीन पद्धति की रक्षा करते हुए वह नवयुग की आवश्यकताओं से विमुख नहीं होते थे।

सामाजिक वर्णधर्म और आश्रमधर्म के आचार-विहार का पालन करते हुए समाज की कल्पना को  मालवीय  जी ब्रह्मा जी के अंग की भांति अविभाज्य मानते थे। उनका मानना था कि “सम्पूर्ण  शरीर का स्वास्थ्य तभी सम्भव है जब प्रत्येक अंग स्वस्थ हो।”

जब उन्होंने गंगा के तट पर चतुर्थ वर्ण को दीक्षा देने के मन बनाया तो लोगों ने यही विचार किया कि मालवीय जी सामाजिक क्रान्ति ला रहे हैं। किन्तु मालवीय जीके अनुसार वह कुछ भी नया नहीं कर रहे थे। वे तो श्रुति, स्मृति, महाभारत, मनु एवं राम ओर कृष्ण की परम्परा का पालन मात्र कर रहे थे।

मालवीय जी का व्यक्तित्व एक ऐसे आदर्श का केंद्र था जो जनसमूह की प्रगति को देश की प्रगति समझता था। वह सदैव जनमानस को अपने साथ लेकर ही आगे बढ़ते थे। जहाँ शास्त्रों और आचारों का पालन ही उनकी एक मात्र चाह थी। आत्महित और परहित के समन्वय का एकमात्र अर्थ उनके लिए शास्त्र और आचार की रक्षा थी।

सन्दर्भ-

सुभाषित, अखंड ज्योति, महानारायणोपनिषद्, महामना श्री पण्डित मदनमोहन जी मालवीय के लेख ओर भाषण

Feature Image Credit: wikipedia.org

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