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ज्ञान अखंड एक सीताबर

यः पृथिवीभरवारणाय दिविजैः सम्प्रार्थितश्चिन्मयः

       सञ्जातः पृथिवीतले रविकुले मायामनुष्योऽव्ययः ।

निश्चक्रं हतराक्षसः पुनरगाद् ब्रह्मत्वमाद्यं स्थिरां

       कीर्तिं पापहरां विधाय जगतां तं जानकीशं भजे ॥ अध्यात्मरामायण 1.1॥

“जिन चिन्मय अविनाशी प्रभु ने देवताओं से प्रार्थित हो पृथ्वी का भार उतारने के लिए मायामनुष्य रूप से, सूर्यवंश में जन्म लिया, और जो राक्षसों के समूहको मारकर,संसार में अपनी पाप हरने वाली स्थिर कीर्ति को स्थापित कर अपने ब्रह्मस्वरूप में लीन होगये उन सीतापति को मैं भजता हूँ।”

भगवान की प्रभुता किसी की वाणी का विषय नहीं है तथापि सभी भक्त अपनी अपनी मति अनुसार उसका वर्णन करते हैं।  भगवान स्वयं भी अपना वर्णन पूरा पूरा नहीं कर सकते। यदि कर सकते तब तो उनके गुण गणना का विषय होजाएंगे। यदि ऐसा हो सके तो भगवान भगवान ही कहाँ रह गये। भगवान अखंड ज्ञानस्वरूप हैं। सभी दृशय गुणों से रहित अनंत और अनादि हैं। ज्ञानी लोग उनका परमार्थ रूप से चिंतन करते हैं। वेद भी उनके विषय में किसी निष्कर्ष पर नहीं  पहुंचते। उनकी कोई उपमा नहीं। वे तो सभी उपाधियों से रहित सत्ता मात्र आनंद हैं। जिनके अंश  से कोटि कोटि ब्रह्मा, विष्णु, शिव ,कोटि कोटि ब्रह्मांडों सहित प्रकट होते रहते हैं, वही भगवान भक्तों के वशीभूत हो लीला से अनेक  शरीर धारण करते हैं।

अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी।।

नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा।।संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना।।

ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई।।

अब प्रश्न उठता है कि सर्वशक्तिमान भगवान को कोई कार्य करने हेतु  शरीर धारण करने की क्या आवश्यकता  है। यदि धर्म स्थापन ही उद्देश्य है तो वे तो संकल्प मात्र से ही सब कर सकते हैं। तो एक रूप विशेष का प्रयोजन क्या है?

जैसा की आरंभ में कहा गया की भगवान अपनी निर्मल कीर्ति को स्थापित करने के लिए ही भिन्न भिन्न रूपों से प्रकट होते हैं। उस कीर्ति का श्रवण, मनन, भजन करने से समस्त तापों और पापों का नाश हो जाता है। अंतःकरण में तत्वज्ञान प्राप्त करने की क्षमता आजाती है-

अतः अपने प्रबोध सुधाकर नामक ग्रंथ में श्रीशंकराचार्य कहते हैं-

चित्ते सत्तवोत्पत्तौ तडिदिव बोधोदयो भवति।

तह्येर्व स स्थिरः स्याद्यदि चित्तं शुद्धिमुपायति।।

शुद्धयति हि नान्तरात्मा कृष्णपदाम्भोजभक्तिमृते।

वसनमिव क्षारौदैर्भक्तया प्रक्षाल्यते चेतः।।

“सत्वगुण के उदय होने पर चित्त में ज्ञान बिजली के समान उदय होता है। परंतु वह स्थिर तभी रह सकता है जब चित्त शुद्ध हो।।

परंतु  श्रीकृष्णके चरणरकमलोंकी  भक्तिके बिना अंतःकरण कभी शुद्ध नहीं होसकता। जैसे वस्त्र को खारयुक्त जल से शुद्ध किया जाता है उसी प्रकार चित्त को भक्ति से निर्मल किया जाता है।।”

गोस्वामी तुलसीदास भी यही बात लोक भाषा में कहते हैं-

रघुपति भगति बारि छालित चित, बिनु प्रयास ही सूझै।

तुलसिदास कह चिदबिलास जग बूझत बूझत बूझै॥

तो यह तो सिद्ध हुआ की बिना भक्ति के कुछ हाथ नहीं आना है। पर भक्ति हो तो किसकी? जो अपना आपा ही है अर्थात अपने आत्म रूप से स्थित है, उसकी भक्ति कैसे हो? उसे मनकी वृत्तियों का विषय कैसे बनाया जाए? वह तो स्वयं सभी वृत्तियों का प्रकाशक है। अंधकार युक्त कमरे में दीपक वस्तुओं को प्रकाशित करता है। कमरे की वस्तुएं दीपक को प्रकाशित नहीं करती। इसी समस्या का समाधान करने के लिए भगवान अपने अमूर्त रूप से भिन्न  एक मूर्त  रूप धारण करते हैं और श्रुति वचन- अजायमानो बहुधा विजायते- यजुर्वेद-31.19 को सत्य करते हैंं। इस मूर्त रूप को ही भक्तगण हृदय में धारण करते हैं।इसके सहारे ही अपने अंतःकरण को तत्वज्ञानके योग्य बनाते हैं।

जो इन्द्रियों, मन और बुद्धि का अविषय है, उस ही को इनका विषय बनाने के लिए भगवान सगुण साकार रूप धारण करते हैं।

अतः श्री रामानुजाचार्य अपने गीता भाष्य में  श्लोक 4.5 की व्याख्या में अवतार का हेतु इस प्रकार बताते हैं-

 मत्स्वरूपचेष्टितावलोकनालापादिदानेन तेषां परित्राणाय तद्विपरीतानां विनाशाय च क्षीणस्य वैदिकधर्मस्य मदाराधनरूपस्य आराध्यस्वरूपप्रदर्शनेन तस्य स्थापनाय च देवमनुष्यादिरूपेण युगे युगे संभवामि।

“भक्तों को अपने स्वरूप और लीलाओंका दर्शन तथा अपने साथ बातचीत आदि सुअवसर देकर उनका विरह से परित्राण करने और उनके विरोधी दुष्टों का विनाश करने तथा क्षीण हुए मेरे आराधन रूप वैदिक धर्मकी, मुझ आराध्यस्वरूपके दर्शन द्वारा संस्थापना करने के लिए मैं युग युग में प्रकट होता हूँ।”

यद्यपि बात ऐसे है तथापि भगवान के अवतार में एकमात्र यही कारण है यह भी नहीं कहा जा सकता।

हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई।।

जो भगवान स्वयं अनंत हैं उनके गुण भी अनंत ही होंगे। और वे सभी गुण एक ही बुद्धि में कभी नहीं समा सकते। इसलिए उन एक ही भगवान के अनेक गुणों को भिन्न भिन्न बुद्धियां भिन्न भिन्न प्रकार से ग्रहण करती हैं। तदनुसार उनका वर्णन भी भिन्न भिन्न प्रकार से होता है।

जब  भगवान साकार होकर हम सबके बीच विचरण करते हैं  तब उन्हें पहचानने  में और उनका ठीक ठीक वर्णन करने में  बड़े बड़े बुद्धिमानों की बुद्धि भी  चकरा जाती है- मुह्यन्ति यत्सूरय:- भागवत- 1.1.1

इसलिए ऐसे भगवान की लीला में अनेक रहस्य छिपे रहते हैं। कोई उनकी नरलीला को प्रेरणास्रोत की भांति देखता है। कोई उसके द्वारा अपना भजन दृढ़  करता है। कोई इतिहास की प्रधानता से उसका अनुसंधान करता है। तो कोई उसमें वेदार्थ का विस्तार देखता है।

वस्तुतः जो भगवान को जैसे भजता है, भगवान भी उसे वैसे ही भजते हैं।

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।। गीता-4.11।।

 हे पार्थ! जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकारसे मेरे मार्गका अनुकरण करते हैं।

इस सिद्धांत से ही संबंधित एक बड़ा मनोरम प्रसंग आनंद रामायण में मिलता है।  भगवती सीता ने लोक पर अनुग्रह करने के लिए भगवान राम से उनके तत्व के विषय में प्रश्न किया-

राम राम महाबाहो किंचिदुपदिशस्व माम्।।

येन माम् तव संज्ञानं भवेच्चैव महोज्जवलम्।।

(आनंद रामायण, विलासकाण्ड, सर्ग 3)

“हे महाबाहो राम! मुझे कोई ऐसा उपदेश दें जिससे मैं आपको अच्छी तरह समझ सकूं।”

इसके उत्तर में भगवान राम ने एक अद्भुत कथा सुनाई। जिसको संक्षिप्त रूप से यहाँ हिन्दी में उद्धृत किया जा रहा है। ये आनंद रामायण के विलासकाण्ड के तृतीय सर्ग के 7-21 श्लोकों का अनुवाद है-

भगवान राम ने कहा-

“सत् चित् आनंद रूप एक समुद्र है। उसकी इच्छा रूपी तरंग से एक परम पवित्र आत्मांश निकला।

उसका नाम था आत्मा, उसकी माता बुद्धि हुई और शुद्ध सत्वमय अंतःकरण पिता हुआ।

उस आत्मा के 4 भाई हैं। एक का नाम जाग्रत है, एक स्वप्न है, एक सुषुप्ति है और एक इन सबसे श्रेष्ठ तुरीय है।

हृदयाकाश में इनसबका निवास है। मनोवेग के द्वारा  कभी कभी ये बाहर आजाते हैं।

मन की दुर्वृत्तियों का खण्डन, मन के आवेग पर आघात और माया के योग से पूर्व संस्कार का दमन होता है।

जब बुद्धि दूषित होती है तो संसार रूप घोर वन में भ्रमण होता है और दंभ का निग्रह करते ही पंचभूतात्मक पर्णकुटि स्थिर होती है।

उस कुटि में ही वास्तविक शांति है अन्यत्र सर्वत्र क्लेश ही क्लेश है।

उस कुटि में काम, क्रोध, लोभ, आशा और मोह की भी पहुंच नहीं है।

वहाँ शुद्ध  सत्वमयी माया  का आश्रय है। रजोगुणी माया वहीं  जठरानल रूप से  स्थित  है। वहीं तमोगुणी माया का वियोग होता है।

पहले सुखका आभाव और क्लेश होता है पर शीघ्र ही शोकभंग की अवस्थ आती है।

तब भक्ति का उद्रेक होता है, विवेक का आश्रय लिया जाता है। उत्साह के साथ समागम होता है।

तब अज्ञान से तरने का उपाय होता है और तीन गण के आश्रय लिंगशरीर का निग्रह होता है।

पहले मद का निग्रह होता है ,फिर मत्सर का अंततः अहंकार का।

इस प्रकार लिंग शरीर का निग्रह करने से माया दृष्टि गोचर होती है। तब सात्विकी माया ग्रहण की जाती है।  हृदयाकाश मे पुनः आगमन होता है और आनंद की प्राप्ति होती है।

ततपश्चात हृदयाकाश से सत् चित् आनंद संज्ञक महाकाश में प्रयाण होता है। उस महासागर मे कूदकर आत्मा की मुक्ति होती है। ”

भगवान के इस उत्तर से देवी तुरंत समझ गई की उन्होंने परोक्ष रूप से रामायण ही सुनाई है। उचित भी है। यदि राम को जानना हो तो  यह जानना पड़ेगा की राम हैं कहाँ। और जहाँ राम हैं वहाँ  शास्त्र  और सद्गुरु के अनुग्रह से उनकी पहचान होती है। राम के ऐसे अयन को ही रामायण कहते हैं। समष्टि (ब्रह्मांड) और व्यष्टी(पिण्ड)  रूपी गृह के गृहस्थ राम ही तो हैं। ऐसे अपने तत्व के जिज्ञासु साधकों का मार्गदर्शन करने  लिए यहाँ भगवान रामने अपनी ही लीला का एक रहस्य प्रकट किया है। इस लीला के अधिभौतिक और अधिदैविक रहस्य से भिन्न  आध्यात्मिक रहस्य  की  भगवान ने व्याख्या की है। इसके द्वारा उन्होंने जनमानस केलिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया।

तत्वज्ञान अथवा भगवद्प्राप्ति में ही समस्त शास्त्रों का परम तात्पर्य है। जिस ज्ञान से हृदय की सभी ग्रंथियां छिन्न भिन्न हो जाएं, जिससे समस्त कर्म क्षीण हो जाएं, जिससे सत्य ज्यों का त्यों जानने में आजाए, उस ज्ञान की ही प्रधानता से भगवान ने रामायण का ऐसा वर्णन किया। भगवती सीता इस रहस्यमयी कथा की प्रत्येक घटना को  श्लोक 37-65 तक, रामायण में  स्थित बतलाती हैं। रामायण की अमुक घटना को उपर्युक्त  कथा के अमुक भाग में स्थित बताने का बहुत ही महत्वपूर्ण कारण हैं। इसे मात्र रचनात्मक प्रस्तुति ही नहीं जानना चाहिए। इस अध्याय में वेदोक्त ज्ञान का प्रतिपादन हुआ है।

आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः।।

बृहदारण्यक उपनिषद- 2.4.5

आत्मा का ही श्रवण, मनन, निदिध्यासन और दर्शन करना चाहिए।

यह कथा भगवान ने मुमुक्षु साधकों केलिए ही कही है।

यह रामायण किस प्रकार वेदोक्त ज्ञानकाण्ड से संबंधित है, उसकी व्याख्या करने का प्रयास  यहाँ किया जा रहा है-

व्याख्या आरंभ

यह सत् चित् आनंद का सिंधु ही अखंड अद्वय ज्ञान है, जिसमें भिन्न भिन्न  वृत्तिज्ञान रूप नदियों का भेद विलीन होजाता है।

यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय।

तथा विद्वान्‌ नामरूपाद् विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम्‌।।

(मुण्डकोपनिषद्)

“जिस प्रकार प्रवाहित होती हुई नदियां अपने धाम, समुद्र में पहुँच जाती हैं और अपने नाम तथा रूप को छोड़ देती हैं, उसी प्रकार विद्वान नाम तथा रूप से मुक्त होकर ‘परात्पर’ ‘परम दिव्यपुरुष’ को प्राप्त हो जाता है।”

तरंग उस ज्ञानस्वरूप चेतन का लीला का संकल्प है जिसकी वास्तवमें कोई अलग  सत्ता नहीं है। अपितु उपाधि से ही वह जल से भिन्न तरंग नाम की वस्तु है।

वही चेतन जब शरीरमें स्थित होता है तो आत्मा कहलाता है। और देहके आश्रय से  उसके चार भेद हो जाते हैं-

सर्वं ह्येतद् ब्रह्मायमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्पात्

(माण्डूक्योपनिषद्- 2)

यह सब ब्रह्म है। आत्मा ब्रह्म है। इसके 4 पाद हैं।

जागरितस्थानो बहिष्प्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः

स्थूलभुग्वैश्वानरः प्रथमः पादः  (3)

बाहर की ओर ज्ञान वाला जाग्रत अवस्था में स्थित सात अंग और उन्नीस मुखों वाला पहला पाद वैश्वानर है।

स्वप्नस्थानोऽन्तःप्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः

प्रविविक्तभुक्तैजसो द्वितीयः पादः (4)

स्वप्नावस्था में स्थित अंदर की ओर ज्ञान वाला सात अंग और उन्नीस मुखों वाला दूसरा पाद तैजस है।

यत्र सुप्तो न कञ्चन कामं कामयते न कञ्चन स्वप्नं

पश्यति तत् सुषुप्तम् । सुषुप्तस्थान एकीभूतः प्रज्ञानघन।

एवानन्दमयो ह्यानन्दभुक् चेतोमुखः प्राज्ञस्तृतीयः पादः ।। (5)

जो सोया है। न कोई इच्छा करता है न स्वप्न देखता है। वह एकीभूत हुआ विज्ञानघन आनन्दमय है, प्रकाश ही जिसका मुख है, वह तीसरा पाद प्राज्ञ है।

नान्तःप्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं न प्रज्ञानघनं

न प्रज्ञं नाप्रज्ञम् । अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणं

अचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं

शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः।। (7)

जो न भीतर की ओर ज्ञान वाला न बाहर की ओर ज्ञान वाला, न ही दोनो ओर प्रज्ञा वाला , न ही विज्ञानघन, न जाननेवाले, न न जाननेवाला। जो देखा नहीं जाता, जो व्यवहार में नहीं लाया जा सकता , आत्मसत्ता जिसका सार है, जिसमें प्रपंच का अभाव है, ऐसा, शांत, कल्याणरूप चौथा (तुरीय) पाद आत्मा है ।

यह चार भेद हैं-

  1. जाग्रत अवस्था का अभिमानी- वैश्वानर
  2. स्वपनाभिमानी- तैजस
  3. सुषुप्ति अभिमानी- प्राज्ञ
  4. तुरीय- इन सभी अवस्थाओं का साक्षी।

जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तीनों की सत्ता तुरीय के आश्रय से है।

भगवान राम तुरीय ब्रह्म हैं। लक्ष्मणजी वैश्वानर हैं। शत्रुघ्नजी तैजस हैं और भरत जी प्राज्ञ।

सौमित्रिर्विश्वभावनः, शत्रुघ्नस्तैजसात्मकः

प्राज्ञात्मकस्तु भरतो, रामो ब्रह्मानन्दैकविग्रहः -रामोत्तरतापिन्युपनिषत् ।।2. 1-2।।

अंतःकरण रूप आवरण की छत्रछाया   में यह आत्मा रहता है अतः बुद्धि की वृत्तियां इन  चार भाईयों की माता है।  सत्वमय अंतःकरण ही राजा दशरथ है। क्योंकि पञ्चभूत के सत्वांश से   अंतःकरण और ज्ञानेन्द्रीयां बनी है- पैंगलोपनिषद्-1.9 । ज्ञानेन्द्रीय ही वृत्ति ज्ञान के द्वारा पदार्थ का अंतःकरण में  ज्ञान करवाती है। अतः वृत्तियों को रानियां और सत्तवयुक्त अंतःकरण  को दशरथ कहागया, मानो वृत्तियां अंंतःकरण की सहधर्मिणी हो।  शुद्धवृत्ति  युक्त बुद्धि ही आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जानती  है, अतः वह कौसल्या है। अध्यात्मरामायण के बालकाण्ड के तृतीय सर्ग  में कौसल्या का भगवान की वास्तविकता को जानने का उल्लेख है। अतः यह युक्तिसंगत बात है।हृदयाकाश ही अवधपुरी है।

अब  भगवान अपनी लीला द्वारा साधक के लिए मार्ग प्रशस्त करते हुए  मनोवेग से इन अवस्थाओं के बाहर आने की बात करते  हैं। चंद्रवंश में उत्पन्न हुए विश्वामित्र ही मनोवेग हैं। वेद, पुराण और उपनिषदों में चंद्र को मन का देवता कहा गया है – “चंद्रमा मनसो जातः” समष्टि के चंद्र देेेवता ही व्यष्टी के मन हैं- (भगवान  3.6.23-26, सूत संहिता- 4.4.26-27)

इस चंद्रकुल का उत्थान  करने वाले गाधी तनय   विश्वामित्र ही मनोवेग हैं। यही मनोवेग जब दुर्वृत्तियों से क्लेश पाता है तो भगवान का आश्रय ग्रहण करता है। अपने व्यवहार में भगवान को एक महत्वपूर्ण स्थान देता है। इसलिए विश्वामित्र रूप मनोवेग तुरीय ब्रह्म राम और जाग्रत अभिमानी लक्ष्मण  को साथ लेकर ताड़का, सुबाहु रूप दुवृत्तियों का शमन करता है। शिव धनुष का टूटना ही मन के आवेग का शांत होना है। और जब मन शांत होता है तो योग की प्राप्ति होती है- योगः चित्त वृत्ति निरोधः- योगसूत्र।  तब द्रष्टा  समस्त  प्रपंच को अपने मेें स्थित देेेेखता है। इसी को उपर्युक्त कथा में सभी भाईयों का अपनी माया से योग के रूप में बताया। योग साधना से  आत्मा में कल्पित  पूर्व संस्कारों का  दमन होता है। यही आत्म रूप राम  द्वारा परशुराम का दमन है।

परंतु मात्र योग साधना ही पर्याप्त नहीं है। वास्तविक तत्व तो ज्ञान से ही जानने में आता है और तभी कैवल्यमुक्ती की प्राप्ति होती है-

अतः सर्वेषां कैवल्यमुक्तिर्ज्ञानमात्रेणोक्ता न कर्मसांख्ययोगोपासनादिभिरित्युपनिषत्।।

(मुक्तिकोपनिषत्)

अतः सबके लिए  कैवल्य मुक्ति ज्ञान के द्वारा ही कही गई है, कर्म, सांख्य, योग, उपासनादि द्वारा नहीं। यह उपनिषद है।

यदि बुद्धि क्लिष्ट वृत्तियों से युक्त हो जाए तो योग से भी पतन होजाता है। बुद्धि में  रागद्वेष की अधिकता  होने से आत्मा को  संसार रूपी घोर वन में भ्रमण करना पड़ता है। यह दोषयुक्त बुद्धि ही कैकेयी है। इससे ही जाग्रतादि अभिमानीयों में , और अंतःकरणमें दुख उत्पन्न होता है। यही राम का वनगमन है। तुरीय ब्रह्म राम में तो न सुख है न दुख, वह तो वनवास भी आनंद से स्वीकार करते हैं क्योंकि उनमें वन-नगर का द्वंद्व  है ही नहीं , और मायारूप सीता उनका ही अनुगमन करती है। परन्तु भरत, शत्रुघ्न, लक्षमण, दशरथ, रानियां इत्यादि, रामके  वनगमन से दुखी होते हैं। कहने का अर्थ है आत्मा में सुख-दुख इत्यादि अध्यारोप से हैं। शीतोष्ण सुख दुख  का भेद शुद्ध चैतन्य में नहीं है, अपितु जाग्रतादि अवस्थाओं के अभिमानियों और अंतःकरण में है।

इसलिए राम सबकुछ करते हुए भी वास्तव में कुछ नहीं करते।

रामो न गच्छति न तिष्ठति नानुशोचत्याकाङ्क्षते त्यजति नो न करोति किञ्चित् ।

आनन्दमूर्तिरचलः परिणामहीनो मायागुणाननुगतो हि तथा विभाति ।।

राम न गमन करते हैं न ठहरते हैं, न शोक करते हैं न इच्छा करते हैं,न त्याग करते हैं न ही कुछ करते हैं। वे तो आनंदमूर्ति हैं। अचल परिणामहीन हैं। माया के गुणों से ही सब कुछ करते हुए प्रतीत होते हैं।

नाहो न रात्रिः सवितुर्यथा भवेत्

प्रकाशरूपाव्यभिचारतः क्वचित्।

ज्ञानं तथाज्ञानमिदं द्वयं हरौ

रामे कथं स्थास्यति शुद्धचिद्घने।।

सूर्य में रात दिन का भेद नहीं होता (वो तो हमें प्रतीत होता है)।वैसे ही शुद्ध चेतनघन राम में ज्ञान और अज्ञान दोनों कैसे रह सकते हैं।

(अध्यात्म रामायण-1.1)

यही राम की वनगमन की लीला है। अब ध्यान देने की बात यह है कि जिस चराचरात्मक संसार का हम अनुभव करते हैं वह जाग्रत अवस्था में ही जानने में आता है। अतः जाग्रताभामिनी के आधार पर दृश्य जगत् टिका है।  तभी तुरीय आत्मा राम के आश्रय में जाग्रत अभिमानी लक्ष्मण  संसार रूपी वनवास  का अनुभव करते हैं।

स्वपनाभिमानी शत्रुघ्न हृदयाकाश के जगत् का अनुभव करते हुए अयोध्या रूपी हृदय में ही रहते हैं। इन सबसे अलग नंदीग्राम में भरत जी का रहना, सुषुप्ति अभिमानी प्राज्ञ की विलक्षणता है।  यद्यपि तुरीय ब्रह्म राम इन सभी अवस्थाओं के संचालक है, तथापि अपनी मायाके आश्रय से एक सुंदर रूप धारणकर वह संसार में भ्रमण करते हैं। इन्हें ही वृत्यारूढ़ सगुण ब्रह्म जानना चाहिए।

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।।4.6।।

अजन्मा और अविनाशी-स्वरूप होते हुए भी तथा सम्पूर्ण प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ।

अतः ब्रह्म राम, माया सीता और जाग्रत अभिमानी लक्ष्मण ही संसार रूप अरण्य को जाते हैं।

धनुर्गुणेन संयोज्य शरानपि करे दधत्।।

अग्रे यास्याम्यहं पश्चात्त्वमन्वेहि धनुर्रधरः।

आवयोर्मध्यगा सीता मायेवात्मपरात्मनो:।। अध्यात्म रामायण 3.1.12-13।।

धनुष बाण धारण करके मैं आगे चलूँगा। हे धनुर्रधर लक्ष्मण ! तुम पीछे रहना। हम दोनों के बीच सीता ब्रह्म और जीव के बीच माया समान स्थित रहे।

आगे रामु लखनु बने पाछें। तापस बेष बिराजत काछें।।

उभय बीच सिय सोहति कैसे। ब्रह्म जीव बिच माया जैसे।।

संसाररूप वन में भ्रमण करते हुए लोगों के लिए परमशांति का मार्ग प्रशस्त करते हुए भगवान कथा को आगे बढ़ाते हैं और कहते कि पंचभूतात्मक पर्णकुटि तब स्थिरता को प्राप्त होती है जब दंभ का निग्रह होता है।

यदि कलुषित बुद्धि द्वारा संसार में भटकता जीव शांति चाहता हो पहले मिथ्याचार का दमन करे। यह दंभ ही विराध है। दंभ का निग्रह है मन से इन्द्रियों का नियंत्रण करना, न की हठपूर्वक।

तभी तो गीता में भी कहा गया-

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।

इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।3.6।।

जो कर्मेन्द्रियों- (सम्पूर्ण इन्द्रियों-) को हठपूर्वक रोककर मनसे इन्द्रियोंके विषयोंका चिन्तन करता रहता है, वह मूढ़ बुद्धिवाला मनुष्य मिथ्याचारी (मिथ्या आचरण करनेवाला) कहा जाता है।

 यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।

कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।3.7।

अर्जुन! जो मनुष्य मनसे इन्द्रियोंपर नियन्त्रण करके आसक्तिरहित होकर (निष्काम भावसे) समस्त इन्द्रियोंके द्वारा कर्मयोगका आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।

संसार रूप वनमें उपाधि से भटकता हुआ आत्मा जब लीला से दंभ रूपी विराध का वध करता है तब परम शांति के मार्ग पर चलने लगता है। या यूं कहें कि वृत्ति पर अपने गुण गान से  आरूढ़ हुए भगवान जब दंभ रूपी विराध का दमन करते हैं तब परम शांति का मार्ग प्रशस्त होता है।

पंचवटी ही पंचभूतात्मक पर्णकुटि है। भगवान का यह कहना कि “उस कुटि में ही शांति है अन्यत्र क्लेश है” इस बात को बताता है की पंचकोश के आवरण में स्थित आत्मा में ही परम शांति है। तैत्तिरीयोपनिषद में आए, अन्नमय, प्राणमय, मनोमय,विज्ञानमय और आनंदमय संज्ञक कोश ही पंचकोश हैं। इनके आवरण में आत्मा स्थित है।

उस परमशांति का वर्णन फिर इस प्रकार करते हैं- उस कुटि में काम, क्रोध, लोभ, आशा और मोह की भी पहुंच नहीं है” ।

जब पंचभूतात्मक शरीर में रहने वाला जाग्रताभिमानी आशा  रूपी शूर्पणखा का तिरस्कार करता है तब काम, क्रोध, लोभ, मोह के नाश का मार्ग निकलता है।

खर, दूषण, त्रिशिरा ही क्रमशः काम क्रोध और लोभ हैं। शुद्ध  चैतन्य में इन  सबकी दाल नहीं गलती।  यही आत्मरूप राम द्वारा इनका और इनके 14,000 अन्य  प्रभेदों का नाश है। न ही यहाँ मारीच रूप मोह ही जीवित रह सकता है।

इस पर्णकुटि ही के वर्णन में कहते हैं- यहाँ शुद्ध सत्वमयी माया है। रजोगुणरूपी माया जठरानल में स्थित है। और तमोगुण रूपी माया का वियोग होता है।

जैसे जैसे साधक अपने पथ पर अग्रसर होता जाता है वैसे ही वह रजोगुण और तमोगुण से उपर उठकर सत्वगुण में स्थित होता है।

आनंदरामायण के सारकाण्ड में यह प्रकरण आता है कि राम की लीला के विस्तार के लिए सीता ने अपने को तीन रूपों में प्रकट किया। रजोगुणी रूप से वह पंचवटी में अग्नि में स्थित हुई और अग्निगर्भा कहलायी। तमोगुणी रूप से वह रावण द्वारा अपहृत हुई। और उनका सत्वगुणी रूप ही राम के चिदानंमय देह के रूप में स्थित था।

तमोमयी सीता का हरण तमोगुण का वियोग है। रजोमयी सीता अग्नि में स्थित है। शुद्ध सत्वमयी सीता निरंतर राम के साथ है।

कहने का तात्पर्य है कि सत्वगुण में स्थित होकर ही साधक अपने लक्ष्य की ओर बढ़ सकता है।

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।

निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।। गीता-2.45।।

हे अर्जुन! वेदों का विषय तीन गुणों से सम्बन्धित (संसार से) है तुम त्रिगुणातीत निर्द्वन्द्व नित्य सत्त्व (शुद्धता) में स्थित योगक्षेम से रहित और आत्मवान् बनो।।

यद्यपि इसमें आरंभ में बहुत क्लेश का अनुभव होता है। पर यदि साधन और निश्चय दृढ़ रहे, तो  धीरे धीरे दुख भंग होजाता है और साधक उचित दिशा में चलता जाता है।

अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति।।18.36।

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।

तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्।।18.37।।

जिसमें अभ्याससे रमण होता है और जिससे दुःखोंका अन्त हो जाता है, ऐसा वह परमात्मविषयक बुद्धिकी प्रसन्नतासे पैदा होनेवाला जो सुख (सांसारिक आसक्तिके कारण) आरम्भमें विषकी तरह और परिणाममें अमृतकी तरह होता है, वह सुख सात्त्विक कहा गया है।

(भगवद्गीता)

यह दुख भंग होना ही राम लक्ष्मण द्वारा कबंध का वध है। इससे ही विवेक रूपी सुग्रीव तक का मार्ग प्रशस्त होता है। इस मार्ग पर बढ़ते हुए भक्ति  के उद्रेक से  ही विवेक की प्राप्ति शीघ्र होती है। यह भक्ति का वेग ही वायुपुत्र हनुमान जी हैं। विवेक और भक्ति के मिलन से अज्ञान के अंश रूप वाली का राम वध करते हैं। ततपश्चात उत्साह रूप विभीषण से मैत्री होती है।

इस साधन सम्पत्ति ये युक्त होकर अज्ञान रूप समुद्र  से तरने के लिए सेतु बनता है।

कबंध वध से लेकर सेतु बंधन तक जिस साधन सामग्री की बात हुई  उसका वर्णन गीता के अध्याय में भी ऐसा ही वर्णन है-

बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्याऽऽत्मानं नियम्य च।

शब्दादीन् विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च।। 51।।

विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।

ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः ।। 52।।

अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।

विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।।53।।

जो विशुद्ध (सात्त्विकी) बुद्धिसे युक्त, वैराग्यके आश्रित, एकान्तका सेवन करनेवाला और नियमित भोजन करनेवाला साधक धैर्यपूर्वक इन्द्रियोंका नियमन करके, शरीर-वाणी-मनको वशमें करके, शब्दादि विषयोंका त्याग करके और राग-द्वेषको छोड़कर निरन्तर ध्यानयोगके परायण हो जाता है, वह अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रहका त्याग करके एवं निर्मम तथा शान्त होकर ब्रह्मप्राप्तिका पात्र हो जाता है।( 51-53)

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।

समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।। 54।।

वह ब्रह्मभूत-अवस्थाको प्राप्त प्रसन्न मनवाला साधक न तो किसीके लिये शोक करता है और न किसीकी इच्छा करता है। ऐसा सम्पूर्ण प्राणियोंमें समभाववाला साधक मेरी पराभक्तिको प्राप्त हो जाता है।

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।

ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।55।।

उस पराभक्तिसे मेरेको, मैं जितना हूँ और जो हूँ  इसको तत्त्वसे जान लेता है तथा मेरेको तत्त्वसे जानकर फिर तत्काल मेरेमें प्रविष्ट हो जाता है।

उस सेतु पर चलकर त्रिगुणमय लिंग शरीर के विध्वंस होने का क्रम आरंभ होता है। त्रिकूट गिरी के मध्य में स्थित लंका ही त्रिगुण का आश्रय लिंगशरीर है। इस लिंगशरीर से ही संसार में आवागमन होता है। अतः इसके विध्वंस में ही कल्याण है।

सर्वप्रथम मद रूपी कुम्भकर्ण का अंत होता है, तदोपरान्त मत्सर रूप इन्द्रजीत का। अंततः सगुण ब्रह्म की अनुकंपा से अहंकार रूपी रावण का वध होता है। यह अहंकार रूप दशानन ही 10 इन्द्रिय भोग रूप संसार का मूल है। सेतुरूप वृत्ति पर आरूढ़ हुए ब्रह्म राम ही इसका अंत करते हैं। इसका अंत होते ही लिंगशरीर भंग होजाता है। माया का रहस्य समझ में आजाता है।

तमोमयी सीता का अग्नि परीक्षा द्वारा आग में जाना और अग्नि से रजोगुणी सीता का प्रकट होना और सत्वमयी सीता से युक्त राम से मिलना ही माया का दृष्टिगोचर होना है।

इस उद्योग के उपरांत हृदयाकाश में आनंदोत्सव  होता है। यही राम का पुनः आगमन और राज्याभिषेक है। इस प्रकार पूर्णतः शांत और स्थिर  आत्म रूप राम  अपने भाईयों सहित गुरुजनों का समागम करते है। यही सद्गुरु के समीप जाकर ज्ञान प्राप्त करना है। राम तो स्वयं ज्ञानस्वरूप है। यह अगस्त्यादि गुरुजनों का समागम जाग्रतादि अवस्थाओं का अपने में पूर्णतः लय  करने  के  क्रम का आरंभ है। गुरू के समागम से ही गुणमयी माया का त्याग होता है। यही सीता का त्याग है। वास्तव में यह त्याग भी उपचार मात्र है। क्योंकि ब्रह्म और माया का संबंध सूर्य और प्रभा जैसा होता है। जल उसकी तरंग जैसा होता है। ये भिन्न भी नहीं है अभिन्न भी नहीं है।

गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।

बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न।।

जो वाणी और उसके अर्थ तथा जल और जल की लहर के समान कहने में अलग-अलग हैं, परन्तु वास्तव में अभिन्न (एक) हैं, उन श्री सीतारामजी के चरणों की मैं वंदना करता हूँ, जिन्हें दीन-दुःखी बहुत ही प्रिय हैं।

अतः यह त्याग भी लीलमात्र है।

और अंततः माया के त्याग से  राम रूप का त्यागकर अपने सभी भाईयों सहित  अपने उपाधि रहित  ब्रह्म रूप में स्थित होजाना ही   राम का महाप्रयाण है।

ब्रह्म रूप में स्थित होनेपर सारी अवस्थाओंका भेद विलीन होजाता है। ज्ञाता और ज्ञेय के भेद से रहित अखंड अद्वितीय ज्ञान ही बचा रहता है। यही मुक्ति है यही भगवद्प्राप्ति है। यही ब्रह्मज्ञान है।

वदंति तत्वविदस्तत्वं यज्ज्ञानमद्वयम्।

ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानीती शब्द्यते।। 1.2.11- भागवत

तत्वज्ञानी ज्ञाता और ज्ञेय के भेद से रहित अद्वय ज्ञान को ही तत्व कहते हैं। उसे ही ब्रह्म, भगवान परमात्मा कहा गया है।

यद्यपि भगवान राम नित्य मुक्त हैं, मायारहित हैं  तथापि लीला से रावणादि अघरूप दुष्टों का वध करते हैं और बहुत से उद्योग करते हुए से दिखते हैं । इसी प्रकार जीव भी चेतन अमल और नित्ययमुक्त है। बस अज्ञान से अपने को कर्ता भोक्ता मानकर बद्ध होगया है।

ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी।।

सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाई।।

यद्यपि बंंधन मिथ्या है

तथापि  बिना ज्ञान के उसकी निवृत्ति नहीं होती । बिना शास्त्रोक्त साधन  के ज्ञान दुर्लभ है।

परबस जीव स्वबस भगवंता। जीव अनेक एक श्रीकंता॥

मुधा भेद जद्यपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया॥

जीव  परतंत्र है, भगवान्‌ स्वतंत्र हैं, जीव अनेक हैं, श्री पति भगवान्‌ एक हैं। यद्यपि माया का किया हुआ यह भेद असत्‌ है तथापि वह भगवान्‌ के भजन बिना करोड़ों उपाय करने पर भी नहीं जा सकता।

इसी मिथ्या बंधन से मुक्तिका मार्ग प्रशस्त करने के लिए भगवान लीला से नाम रूप धारण करके लोक में विचरते हैं।

इस प्रकार भगवान राम ने अपनी कथा का आध्यात्मिक रहस्य सभी मुमुक्षु जनों के लिए प्रकट किया। जो ज्ञान वेदों का विषय है उसे जन जन तक पहुँचा दिया। प्रभु की लीला के असंख्य रहस्यों में से एक यह आध्यात्मिक रहस्य था, जिसकी चर्चा यहाँ की गई।

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