हजारों सूर्य के बराबर प्रकाश से भर चुके कक्ष के अंदर चतुर्भज स्वरूप में समक्ष खड़े जगत पिता के स्वरूप के आगे नतमस्तक कौशल्या को कुछ याद आया, उन्होंने मुस्कुरा कर कहा- मैं माँ हूँ प्रभु! मुझे आपके इस विराट स्वरूप से क्या काम!स्वरूप बदलिए और मेरा पुत्र बनिये। आपकी शक्ति, सामर्थ्य और ज्ञान का लाभ सम्पूर्ण जगत उठाता रहे, मुझे बस आपकी किलकारी देखनी है।
प्रभु मुस्कुराए! माँ ने फिर कहा- जगत कल्याण के हेतु आये नारायण अपना समस्त जीवन संसार को सौंप देंगे, इतना बिन बताए भी समझ रही हूँ। इसमें हमारा हिस्सा तो बस आपका बालपन ही है न, सो हमें हमारा अधिकार दीजिये।
कहते कहते माँ की पलकें झपकीं, और जब उठीं तो उन्होंने देखा- सांवले रंग का नन्हा बालक जिसकी आँखों में करुणा का सागर बह रहा है, उनकी गोद में पड़ा बस रोने ही वाला है। उन्होंने सोचा- वह किसी का हिस्सा नहीं मारता! माँ हँस पड़ीं और उसी क्षण बालक रो पड़ा… माँ….
माँ ने मन ही मन कहा, ऐसा क्यों? उत्तर उन्ही के मन में उपजा, “मैं ईश्वर की माँ बनी हूँ सो मेरे हिस्से में हँसी आयी, और ईश्वर दुखों के महासागर संसार में उतरा है, सो उसके हिस्से में रुदन आया…” उन्होंने कहा- रो लो पुत्र! पुरूष से पुरुषोत्तम होने की यात्रा में अश्रुओं के असंख्य सागर पड़ते हैं। तुम्हे तो सब लांघने होंगे…”
थोड़ी ही दूर अपने कक्ष में गुरु के चरणों में बैठे महाराज दशरथ ने चौंक कर देखा गुरु की ओर, उन्होंने आकाश की ओर हाथ जोड़ कर प्रणाम करते हुए कहा- बधाई हो राजन! राम आ गए…
महाराज दशरथ गदगद हो गए। पिता होने की अनुभूति कठोर व्यक्ति को भी करुण बना देती है। चक्रवर्ती सम्राट दशरथ बालक से हो गए थे। उसी चंचलता के साथ पूछा- इसका जीवन कैसा रहेगा गुरुदेव? तनिक विचारिये तो, सुखी तो रहेगा न मेरा राम?
इस बालक का भाग्य हम क्या विचारेंगे महाराज, यह स्वयं हमारे सौभाग्य का सूर्य बन कर उदित हुआ है। पर समस्त संसार के सुखों की चिन्ता करने वाला अपने सुख की नहीं सोचता! और ना ही उसे सुख प्राप्त होता है। संसार के हित के लिए अपने सुखों को बार बार त्यागने का अर्थ ही राम होना है… उसकी न सोचिये, आप अपनी सोचिये! आप इस युग के महानायक के पिता बने हैं।
दशरथ का उल्लास बढ़ता जा रहा था। उन्होंने फिर पूछा- यह संसार मे अपना महत्वपूर्ण स्थान बना तो लेगा न गुरुदेव?
इसकी कीर्ति इसके आगे आगे चलेगी राजन! इसकी यात्रा युग-युगांतर की सीमाएं तोड़ देगी। संसार सृष्टि के अंत तक राम से सीखेगा कि जीवन जीते कैसे हैं। जगत को राम का समुद्र सुखा देने वाला क्रोध भी स्मरण रहेगा और अपनों के प्रेम में बहाए गए राम के अश्रु भी… यह संसार को दुर्जनों को दंड देना भी सिखाएगा, और सज्जनों पर दया करना भी।
महाराज दशरथ की आँखे भरी हुई थीं। वे विह्वल होकर दौड़े महारानी कौशल्या के कक्ष की ओर… इधर महर्षि वशिष्ठ ने मन ही मन कहा, “राम के प्रति तुम्हारा मोह बना रहे सम्राट! यही छोह तुम्हे अमरता प्रदान करेगा।”
माँ कौशल्या के आंगन में एक प्रकाश पुंज उभरा, और कुछ ही समय मे पूरी अयोध्या उसके अद्भुत प्रकाश में नहा उठी… बाबा ने लिखा, “भए प्रगट कृपाला दीन दयाला कौशल्या हितकारी…”
उधर सुदूर दक्षिण के वन में जाने क्यों खिलखिला कर हँसने लगी भीलनी सबरी… पड़ोसियों ने कहा, “बुढ़िया सनक तो नहीं गयी?” बुढ़िया ने मन ही मन सोचा, “वे आ गए क्या…”
नदी के तट पर उस परित्यक्त कुटिया में पत्थर की तरह भावनाशून्य हो कर जीवन काटती अहिल्या के सूखे अधरों पर युगों बाद अनायास ही एक मुस्कान तैर उठी। पत्थर हृदय ने जैसे धीरे से कहा, “उद्धारक आ गया…”
युगों से राक्षसी अत्याचारों से त्रस्त उस क्षत्रिय ऋषि विश्वामित्र की भुजाएँ अचानक ही फड़क उठीं। हवनकुण्ड से निकलती लपटों में निहार ली उन्होंने वह मनोहर छवि, मन के किसी शान्त कोने ने कहा, “रक्षक आ गया…”
जाने क्यों एकाएक जनकपुर राजमहल की पुष्पवाटिका में सुगन्धित वायु बहने लगी। अपने कक्ष में अन्यमनस्क पड़ी माता सुनयना का मन हुआ कि सोहर गायें। उन्होंने दासी से कहा, “क्यों सखी! तनिक सोहर कढ़ा तो, देखूँ गला सधा हुआ है या बैठ गया।” दासी ने झूम कर उठाया, “गउरी गनेस महादेव चरन मनाइलें हो… ललना अंगना में खेलस कुमार त मन मोर बिंहसित हो…” महल की दीवारें बिंहस उठीं। कहा, “बेटा आ गया…”
उधर समुद्र पार की स्वर्णिम नगरी में भाई के दुष्कर्मों से दुखी विभीषण ने अनायास ही पत्नी को पुकारा, “आज कुटिया को दीप मालिकाओं से सजा दो प्रिये! लगता है कोई मित्र आ रहा है।”
इधर अयोध्या के राजमहल में महाराज दशरथ से कुलगुरु वशिष्ठ ने कहा, “युगों की तपस्या पूर्ण हुई राजन! तुम्हारे कुल के समस्त महान पूर्वजों की सेवा फलीभूत हुई! अयोध्या के हर दरिद्र का आँचल अन्न-धन से भरवा दो, नगर को फूलों से सजवा दो, जगत का तारणहार आया है! राम आया है…”
खुशी से भावुक हो उठे उस प्रौढ़ सम्राट ने पूछा, ” गुरदेव! मेरा राम?”
गुरु ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, “नहीं! इस सृष्टि का राम… जाने कितनी माताओं के साथ-साथ स्वयं समय की प्रतीक्षा पूर्ण हुई है। राम एक व्यक्ति, एक परिवार या एक देश के लिए नहीं आते, राम समूची सृष्टि के लिए आते हैं, राम युग-युगांतर के लिए आते हैं…”
सच कहा था उस महान ब्राह्मण ने! शहस्त्राब्दियां बीत गयीं, हजारों संस्कृतियां उपजीं और समाप्त हो गईं, असँख्य सम्प्रदाय बने और उजड़ गए, हजारों धर्म बने और समाप्त हो गए, पर कोई सम्प्रदाय न राम जैसा पुत्र दे सका, न राम या राम के भाइयों जैसा भाई दे सका, न राम के जैसा मित्र दे सका, न ही राम के जैसा राजा दे सका…
आधुनिक युग में भारत के विभाजन का स्वप्न देखने वाले इकबाल ने कभी ऊब कर एक प्रश्न छोड़ा था, “यूनान मिश्र रोम सब मिट गए जहां से, लेकिन अभी भी बाकी नामों निशाँ हमारा…”
मैं होता तो उत्तर देता, “हाँ! क्योंकि यहाँ राम आये थे। हम राम के बेटे हैं, कभी समाप्त नहीं होंगे… कभी भी नहीं।”
मानस के अंतिम दोहे में बाबा कहते हैं, “कामिहि नारि पिआरि जिमि,लोभिहि प्रिय जिमि दाम! तिमि रघुनाथ निरन्तर प्रिय लागहु मोहि राम!! जैसे कामी को स्त्री प्रिय लगती है, लोभी को धन प्रिय लगता है, वैसे ही हे राम! आप सदैव हमें प्रिय रहें…
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