बारिन दा को भी आज़ाद की तरह बहुत जल्दी थी और इस के चलते 1905 में अरबिंदो घोष और बारिन घोष ने भवानी मंदिर, वर्तमान रणनीति, सांध्य और युगान्तर नाम के समाचार पत्र और किताबें निकाल कर क्रांतिकारी आन्दोलन को बढ़ावा देना शुरू कर दिया था। इन समाचार पत्रों और किताबों के माध्यम से अंग्रेज़ विरोधी विचार फैलाये जाने लगे थे और भारतीय सैनिकों से क्रांतिकारियों को हथियार देने का भी आग्रह किया जाने लगा था।
कुछ दिनों बाद विचारों के मतभेद के चलते पुलिन से अलग होकर भूपेंद्रनाथ दत्त आदि सहयोगियों ने अनुशीलन समिति से हटकर अपना एक नया दल बना लिया। उसी दल का नाम था युगांतर।
इन्हीं भूपेन्द्र दत्त को लोग विवेकानंद के छोटे भाई के नाम से भी जानते हैं।
यह वो समय था जब पुलिन और बारिन अपने-अपने दलों के साथ अंग्रेज़ों की जान आफ़त में डाले हुए थे। 1907 तक आते-आते बारिन घोष के युगांतर ने अपना कमाल दिखाना शुरू कर दिया था। यह ऐसा समय था जब बारिन के नेतृत्व में उनके साथियों ने ब्रिटिश प्रशासनिक अधिकारियों, उनके परिवारों, संगठनों पर धावे बोलने शुरू कर दिये थे। बारिन और जतिन ने जल्द ही मानिकतला समूह का गठन किया जहाँ उन्होंने बम बनाना शुरू किया। इस समूह का ठिकाना था मुरारीपुकुर का गार्डन हाउस जहाँ दल का हथियार और गोला-बारूद एकत्र किया जाता था। आम के घने बाग से घिरे हुये इस घर के सामने के हिस्से में दिन भर भजन कीर्तन चलता रहता था जबकि घर के पिछले हिस्से का उपयोग बम बनाने के लिए किया जाता था।
असल में बारिन दा अपने बड़े भाई द्वारा, जैसा भवानी मंदिर में लिखा था,उसी की तर्ज पर क्रांतिकारियों को तैयार करने के लिए यह आश्रम खोल दिया था।
किन्तु शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ़ लड़ना आसान नहीं था। उस विशाल और समृद्ध साम्राज्य का विरोध करने के लिए भारतीय क्रांतिकारियों को हमेशा पैसे की जरूरत पड़ती रहती थी। अपना घर-बार त्याग, नौकरी-पेशा को लात मार कर, ऐशो-आराम की ज़िन्दगी छोड़ कर दल में शामिल हुए लोगों का पेट तो भरना ही होता था। साथ ही अंग्रेज़ों के खिलाफ़ युद्ध के लिए गुप्त स्रोतों से पाये हुए हथियारों और गोला-बारूद, जो आम कीमत से दुगुनी-तिगनी कीमत पर मिलते थे, के लिए धन की आवश्यकता होती थी।
बम बनाना अभी भी आसान नहीं था। ऐसे समय पर प्रेसीडेंसी कॉलेज के एक नामचीन प्रोफेसर और सिस्टर निवेदिता की मदद से प्रेसीडेंसी कॉलेज की प्रयोगशाला में लड़कों को बम बनाने का फॉर्मूला सीखने की अनुमति मिल गयी। बम तो बन गये थे लेकिन अभी यह नहीं पता था कि समय आने पर वो कितने कारगर साबित होने वाले हैं। तय हुआ कि बमों की पहली खेप का देवघर के एक पहाड़ पर परीक्षण किया जायेगा। इन बमों की पहली खेप को उल्लास्कर दत्त ने बनाया था।
उल्लासकर कॉलेज छोड़ चुके थे और बारिन दा के साथ अनुशीलन समिति में शामिल हो गये थे। उल्लासकर के दल में शामिल होने से बारिन दा की एक बड़ी समस्या का हल हो गया था। उल्लास के पिता शिबपुर के सिविल इंजीनियरिंग कॉलेज में फैकल्टी मेंबर थे। उल्लास्कर ने तय किया कि बम बनाने की सारी तैयारियाँ अब पिताजी की प्रयोगशाला में की जायेंगी।
अफ़सोस यह कि पहले बम का परीक्षण असफल हो चुका था। लेकिन क्रांतिकारियों ने फेल होना सीखा था लेकिन हार मानना नहीं आज़ाद। असफल होने का अर्थ सिर्फ यही है कि कार्य में कहीं कमी रह गयी है। इसके अलावा कुछ और नहीं सोचना है। दोबारा से जुट जाना है और तब तक जुटे जाना है जब तक सफलता हासिल ना हो जाये। बारिन और उनके साथियों ने महसूस किया कि बम बनाने के लिए तकनीकी जानकारी होना बेहद आवश्यक है। तय हुआ कि इस के लिए किसी को यूरोप भेजा जाये। सामने नाम आया था हेमचन्द्र कानूनगो का…
कलकत्ता में अपना घर बेच कर 1906 के अंत में हेमचन्द्र फ्रांस पहुँचकर स्विट्जरलैंड, फ्रांस और इंग्लैंड के क्रांतिकारियों से संपर्क साधने में जुट जाते हैं। आखिरकार जुलाई, 1907 में, पेरिस में रसायन शास्त्र का अध्ययन करने के दौरान उनकी और उनके मित्र पांडुरंग बापट, जो ग़दर के सिपाही हैं, का परिचय जोसेफ अल्बर्ट, निकोलस और शायद एम्मा गोल्डमैन से हो जाता है। उनको रास्ता मिल जाता है और वो एक ऐसी रहस्यमय रूसी के नेतृत्व वाली पार्टी में शामिल हो जाते हैं गया, जिसे पीएचडी के रूप में जाना जाता है। जैसे ही उनको लगता है कि वो अब रासयनिक बम बना सकते हैं वो भारत वापिस आ जाते हैं। यह शायद 1907 के उत्तरार्ध की बात होगी। साथ में हेमचन्द्र अपने विदेशी साथियों से लेकर आते हैं बम बनाने पर एक मोटा सा मैनुअल, जिसका रूसी से अनुवाद किया गया था।
अब उल्लास को कानूनगो के रूप में अपना नया साथी मिल चुका था। दत्त के बनाये बमों की प्रभावशीलता तो साबित हो ही चुकी थी। उनको अब बमों को बेहतर बनाते हुए अपना निशाना साधना था। उनका पहला निशाना बना बंगाल का गवर्नर एंड्रयू फ्रेजर।
गवर्नर पर दो बार वार किया गया लेकिन दोनों बार किसी न किसी करम असफलता ही हाथ लगी थी।
क्रांतिकारियों ने भी हार ना मानने की कसम खायी हुई थी। उनको ना मानना था और ना वो माने। तीसरा प्रयास छह दिसंबर, 1907 को किया गया। फ्रेजर के खड़गपुर में निर्धारित एक दौरे के बारे में एक रेलकर्मी से जानकारी मिली। इस बार बारिन, विभूति सरकार और प्रफुल्ल चाकी खड़गपुर पहुँच गये। इस बार उल्लास साथ नहीं थे। लेकिन उनके बनाये गये कुछ बड़े ख़ास बम सदस्य लेकर गये थे। इस बार लैंड माइन जैसा विस्फोटक तैयार किया गया था। एक लोहे के खोल में डायनामाइट भरा गया जिसमें पिकरिक एसिड और पोटाश से बना फ्यूज लगा हुआ था। गवर्नर की ट्रेन पहुँचने से पहले तीनों नारायणगढ़ पहुँच चुके थे। लैंड माइन को रेलवे ट्रैक के नीचे रख बारिन घोष कलकत्ता लौट गये जबकि विभूति सरकार और प्रफुल्ल चाकी वहीं रुक गये। ट्रेन के आने से कुछ समय पहले विभूति और प्रफुल्ल ने फ्यूज को जोड़ा और इंतज़ार करने लगे। इस बार निशाना सही था,ट्रेन के आते ही विस्फोट हो गया।
किस्मत के धनी फ्रेजर की जान तीसरी बार भी बच गयी थी।
पहली मई 1908 को खुदीराम और चाकी के बम विस्फोटों की खबर कलकत्ता तक पहुँच चुकी थी। शाम के सात बजे तक, कलकत्ता और मानिकतला उपनगरों में आठ स्थानों पर तलाशी लेने के लिए वारंट प्राप्त हो चुके थे। यह खबर लगते ही घोष बाबू और उनके समूह ने हथियार, गोला-बारूद और बम छिपाना शुरू कर दिया। काफी मात्रा में आपत्तिजनक कागजात भी थे जिन्हें समूह ने जलाने का प्रयास किया था। दो मई 1908 को पुलिस ने कुछ संदिग्धों को गिरफ्तार कर लिया जिनमे घोष बाबू भी थे। इस बीच, सात अतिरिक्त पुलिस टीमों ने उत्तरी कलकत्ता में घोष बंधुओं से जुड़ी संपत्तियों पर छापा मारा, जिसमें स्कॉट स्ट्रीट और हैरिसन रोड में आवास शामिल थे। इस दूसरे स्थान की तलाशी में उल्लास द्वारा छोड़े गये विस्फोटकों, बमों और रसायनों की बड़ी मात्रा का पता चला। इस बीच, बारिन और बाकी साथियों को मानिकतला परिसर की छापेमारी में गिरफ्तार कर लिया गया था।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम एक ऐसे ही कुछ गुमनाम क्रांतिकारियों की गाथाएं आप क्रांतिदूत श्रुंखला में पढ़ सकते हैं जो डॉ. मनीष श्रीवास्तव द्वारा लिखी गयी हैं।
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