मुंशी प्रेमचंद ने लिखा था बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन होता है। स्वतंत्र भारत इस १५ अगस्त को अपना ७४वां जन्मदिन मना कर वरिष्ठ नागरिक हो गया है। हम पिछले ७३ वर्षों से एक ही प्रकार से स्वतंत्रता दिवस मनाते रहे हैं- नेहरू-गाँधी -कांग्रेस को साधुवाद देते हुए, बिना खड्ग बिना ढाल का गीत गाते हुए हम बूंदी खाते हुए घरों को लौट जाते हैं, पृष्ठभूमि में कर्मा फिल्म का गीत बजता रहता है। इतिहास के कुछ पक्षों को जनसामान्य की दृष्टि से दूर रखना वर्तमान पीढ़ी के साथ ही अन्याय नहीं है वरन उन राष्ट्रभक्तों की स्मृति के साथ भी अन्याय है जिन्हें हमने सिर्फ इसलिए
हाशिये पर धकेल दिया क्योंकि उनकी बौद्धिक विशालता, व्यक्तिगत सामर्थ्य एवं राष्ट्रभक्ति की भावना के समक्ष बाद के उन नेताओं का कद कम हो जाने की संभावना थी जिन्हें हमें देवतुल्य बना कर स्वतंत्र भारत का ज़मींदार बनाना था। संविधान के लेखक डॉ भीमराव अम्बेदकर ने नेहरू काल के इसी व्यक्तिपूजन से आगाह किया था। क्यों न आज एक बुजर्ग की जिज्ञासी बाल आँखों से हम स्वतंत्रता संग्राम को देखें?
क्या भारतीय स्वतंत्रता का इतिहास कांग्रेस से प्रारम्भ और कांग्रेस पर ही अंत होता है? क्या वामपंथियों का स्वतंत्रता संग्राम में वह स्थान था जिसके आधार पर वे कांग्रेस के अतिक्रमण के बाद बचे खुचे श्रेय को अपनी ओर खींचने का प्रयास करते हैं? दक्षिणपंथियों का क्या स्वतंत्रता संग्राम में वाकई कोई स्थान नहीं है? सत्य के अन्वेषण के लिए समय उचित है परन्तु स्थान सीमित। क्या भारत अफ्रीका के वकील साहब की प्रतीक्षा में ही बैठा रहा कि वे कब भारत आ कर चरखा काटना प्रारम्भ करें और हमें स्वतंत्रता का प्रसाद प्राप्त हो? आइये देखें।
१७वीं सदी के अंत तक भारत पर ब्रिटिश साम्राज्य के पैर जम चुके थे। मुग़ल साम्राज्य अपनी धार्मिक मतान्धता की नीति के बोझ तले वहाँ तक सिमट चुका था जहाँ सत्ता में जनता का विश्वास समाप्तप्राय था। मुग़ल अपने खर्च के लिए जगत सेठ से उधार लेते थे और जिस उत्साह से उन्होंने भारत की रियासतों का अधिकार अंग्रेज़ों को सौंपा उससे यही सिद्ध होता है कि तमाम लीपापोती के बावजूद स्वयं को भारत की संप्रभु सत्ता के स्थान पर विदेशी सिपहसालार के रूप में ही देखते थे।
कुछ हद तक मुग़ल काल के अंतिम दिनों की अराजकता से भारत की बहुसंख्यक जनता को ब्रिटिश शासन ने एक व्यवस्थागत प्रश्रय ही दिया था। परन्तु ईश के नाम पर पर चलने वाली ईस्ट इंडिया कंपनी से जब भारत ईसाई ब्रितानवी सम्राट का भाग बना तो उसे समझ में आने लगा कि उसकी स्थिति नए शासन में भी मुग़ल शासन से बेहतर नहीं हो रही थी।
१८५७ में भारत की पहली क्रान्ति हुई, जिसे अंग्रेज़ों ने ग़दर और भारतीय राष्ट्रवादियों जैसे सावरकर ने प्राथन स्वतंत्रता संग्राम का नाम दिया। यह क्रान्ति तो दबा दी गयी परन्तु भारतीय समाज का असंतोष कहीं नहीं गया। विदेशी साम्राज्य के विरुद्ध साझा सनातनी स्वर इसके बाद भी उभरते रहे। ब्रह्मो समाज के केशवचन्द्र सेन के मृत्यु पर १८८४ को जब भाषा एवं क्षेत्र से इतर दुःख में डूबा भारत दिखा तो देखने वालों ने विष्णु पुराण के उस सत्य का भान कर लिया जो कहता था –
उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्ष तद्भारतं नाम भारती यत्र संतति॥
(जो समुद्र के उत्तर में है, और हिमालय के दक्षिण में, उसी राष्ट्र का नाम भारत है एवं उसकी संतानों का नाम भारतीय है।) – ११०० ई पू
११वीं सदी ईसा पूर्व के एक भारत के जिस राजनैतिक तथ्य के उद्घोष विष्णु पुराण करता है वही सत्य स्वतंत्रता संग्राम के इस काल में पुनः परिभाषित हो रहा था। भारत एक था और कांग्रेस का बनाया हुआ नहीं था, उतना ही सनातन था जितना भारत का बोध, भारत का धर्म एवं भारत की संस्कृति। लगभग इसी काल में श्री राजनारायण बोस के अनुगामी श्री नबागोपाल मित्र ने बंगाल में हिन्दू मेला की स्थापना की। १८५१ में, ५७ की क्रांति से भी पूर्व, भारत के प्रशासन में भारतीयों का दखल जताने के उद्देश्य से डॉ राजेन्द्रलाल मित्र और श्री रामगोपाल घोष ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन की स्थापना करते हैं। इसी समिति के सौजन्य से एवं रानी स्वर्णमयी के समर्थन से श्री लालमोहन घोष भारत के प्रथम प्रतिनधि के रूप में १८७९ में ब्रिटिश संसद भेजे जाते हैं।
इससे दो वर्ष पूर्व ही १८७७ में मल्लिका विक्टोरिया भारत की साम्राज्ञी घोषित हुई थीं और भारत आधिकारिक रूप से ईस्ट इंडिया कारपोरेशन के हाथों से निकल कर आधिकारिक ब्रिटिश उपनिवेश हो गया था। लिट्टन एक्ट में भारतीयों के लिए हथियारों को रखना अवैध घोषित कर दिया गया था। भारत की आर्थिक स्थिति लम्बी शासकीय उदासीनता के कारण बहुत बुरी थी। विदेशी शासकों के अधीन भारत लगभग आठ सौ वर्ष के दमन का बोझ सह रहा था। यह भारत की अन्तर्निहित क्षमता ही थी कि इस्लामिक शासन के पूर्व बनाये गए तालाब,बावड़ी, नहर जैसे कृषिप्रधान राष्ट्र के लिए आवश्यक निर्माण कुछ हद तक आठ सौ वर्षों के बाद भी भारतवासियों की रक्षा कर रहे थे। भले ही मुग़ल शासन अपने आप में विश्व का सर्वाधिक धनि साम्राज्य था, भारत की प्रतिव्यक्ति आय १९३२ में भी वही थी जो १६०१ में अकबर के काल में थी।
भारतीय असंतोष कांग्रेस की प्रतीक्षा में मूक नहीं बैठा था। २६ अगस्त १८५२ को बॉम्बे एसोसिएशन की स्थापना हुई, और जगन्नाथ शंकर शेठ उसके पहले अध्यक्ष बने। २ अप्रैल १८७० को पुणे सार्वजनिक सभा की स्थापना हुई। श्री गणेश वासुदेव जोशी, महादेव गोविन्द रानाडे और भारतीय स्वतंत्र संग्राम के सबसे बड़े सूर्य लोकमान्य बाल गंगाधर
तिलक इसी संगठन ने भारत को दिए। उधर वर्तमान तमिलनाडु में, १८४९ में मद्रास नेटिव एसोसिएशन की स्थापना गजुलू लक्ष्मीनारासु चेट्टी करते हैं १८४१ में। मई १८८४ में यह मार्ग प्रशस्त करती है मद्रास महाजन सभा की स्थापना का, जिसके अध्यक्ष होते हैं श्री पी रंगैय्या नायडू। कालांतर में बॉम्बे एसोसिएशन और इंडियन एसोसिएशन के साथ मिलकर यह एक भारतीय प्रतिनिधित्व ब्रिटिश संसद में भेजते हैं।
उधर वर्तमान तमिलनाडु में, १८४९ में मद्रास नेटिव एसोसिएशन की स्थापना गजुलू लक्ष्मीनारासु चेट्टी करते हैं १८४१ में। मई १८८४ में यह मार्ग प्रशस्त करती है मद्रास महाजन सभा की स्थापना का, जिसके अध्यक्ष होते हैं श्री पी रंगैय्या नायडू। कालांतर में बॉम्बे एसोसिएशन और इंडियन एसोसिएशन के साथ मिलकर यह एक भारतीय प्रतिनिधित्व ब्रिटिश संसद में भेजते हैं।
वापस आते हैं बंगाल। १८८३ में एक अँगरेज़ जज हिन्दू देवता को अदालत में उपस्थित होने का आदेश देता है। इसका विरोध करने पर श्री सुरेंद्र नाथ बनर्जी गिरफ्तार किये जाते हैं,और भारत एक राष्ट्र के रूप में १८ मई १८८३ को सडकों पर उतर जाता है। इंडियन नेशनल एसोसिएशन की नींव पड़ती है। १८८३ दिसंबर में और १८८५ में इंडियन नेशनल एसोसिएशन का अधिवेशन होता है जिसका स्वरुप राष्ट्रव्यापी होता है और जो पार्टियों से इतर होता है।
इंडियन नेशनल एसोसिएशन ब्रिटिश प्रभाव से मुक्त अखिल भारतीय संगठन के रूप में उभरता है। ऐसे में इसके समानांतर ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति प्रतिबद्ध संगठन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का प्रस्ताव श्री ए ओ ह्यूम ने लार्ड डफ़रिन के निर्देश पर १८८५ में किया। इसका उद्देश्य एक अराजनैतिक संगठन बनाना था जो ब्रिटिश नीतियों का मूल निवासियों के मध्य प्रसार कर सके और उनके विरोध के विषय में सरकार को सूचित कर सके। कांग्रेस अंग्रेजी साम्राज्य के प्रति समर्पित भारतीयों के संगठन के रूप में प्रस्तावित किया गया था।
जैसे जैसे कांग्रेस राजनैतिक दलों के अधिवेशन के आयोजक से स्वयं एक राजनैतिक दल के रूप में स्वयं को परिभाषित करने लगी, लोग इससे हटने लगे। गाँधी के आने के बाद यह उनके स्वामित्व वाला डेरा बनता गया। कांग्रेस के प्रारंभिक स्थापक एवं वैचारिक धुरी यानि लाल -बाल पाल बिखरने लगी। गाँधी जी ने एक असंभव वचन
एक वर्ष में स्वराज्य का प्रलोभन दिया और पहला असहयोग आंदोलन प्रारम्भ किया। तिलक को किनारे करने का सूरत अधिवेशन के अलावा लखनऊ अधिवेशन का प्रसंग है जिस पर प्रसिद्द क्रन्तिकारी रामप्रसाद बिस्मिल ने प्रत्यक्षदर्शी के रूप में विस्तार से लिखा है। लाला लाजपत राय चौरी चौरा के बाद कांग्रेस छोड़ गए और बिपिन चंद्र पाल १९२० म
कांग्रेस स्थापना के पश्चात वर्षों तक निष्ठावान ब्रिटिश नागरिक होने और बने रहने की प्रतिज्ञा करती रही। तिलक की १८९७ में गिरफ्तारी का विरोध भी कांग्रेस ने ब्रिटिश नागरिक के रूप में किया और स्वयं के लिए ब्रिटिश संविधान में उल्लिखित अधिकारों से अधिक नहीं माँगा। जिस स्वदेशी आंदोलन को कांग्रेस का माना जाता है उसे भी १९०५ के
बंगाल विभाजन के बाद काशी अधिवेशन में कांग्रेस ने प्रत्यक्ष समर्थन नहीं दिया (पट्टाभि सीतारमैया – कांग्रेस का इतिहास, खंड -१) और उसका जिक्र भर किया।
वहीं बंगाल में अनुशीलन समिति और जुगांधर पार्टी जैसे क्रन्तिकारी दलों की नींव पद रही थी। स्वामी प्रज्ञानंद सरस्वती, जो एक प्रकांड वैदिक पंडित थे, क्रांतिकारी आंदोलन के संरक्षक हुए। स्वामी जी ने हरिद्वार के स्वामी भोलानंद के साथ मिल कर उत्तर भारत में और स्वामी गम्भीरानन्द के संरक्षण में दक्षिण भारत में आंदोलन का साथ दिया। कालांतर में स्वामी
जी डिफेन्स ऑफ़ इंडिया एक्ट में गिरफ्तार हुए और जनवरी १९२१ में सैंतीस वर्ष की आयु में परलोक सिधारे।
१८७९ में महाराष्ट्र में बासुदेव बलवंत फड़के जी के नेतृत्व में सशस्त्र क्रान्ति का प्रयास हुआ। श्री फड़के नवंबर १८७९ में गिरफ्तार हुए और अदन की जेल में मातृभूमि से दूर भेज दिए गए। १८८३ में उनकी अदन में ही मृत्यु हो गयी।
लंदन में इंडिया हाउस की स्थापना हुई। यही इंडिया हाउस आगे कांग्रेस का विदेशी प्रचार का मार्ग बनेगा। इसकी
प्रारंभिक संस्थापकों में श्यामजी कृष्णा वर्मा थे। श्यामजी कृष्ण वर्मा आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती के शिष्य एवं संस्कृत तथा हिन्दू धर्म के प्रकांड पंडित थे। उन्होंने १८७७ में काशी के पंडितों के द्वारा पंडित की उपाधि प्राप्त की थी।मैडम भीकाजी कामा ने इंडिया हाउस की मदद से सावरकर की प्रतिबंधित पुस्तक ‘१८५७ भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम’ के प्रचार का कार्य किया।
१९१६ तक पट्टाभि सीतारमैया के अनुसार कांग्रेस ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति निष्ठा के प्रदर्शन में अग्रणी रही। १९१४ एवं १९१६ अधिवेशन में ब्रिटिश गवर्नर के सम्मान में अभिभाषण पढ़े गए। जब तक कांग्रेसजन ‘ यशस्वी रहे हे प्रभु ! हे मुरारे, चिरंजीवी राजा व रानी हमारे‘ का संगीतमय गायन कर रहे थे, १९२९ में ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन स्वायत्त उपनिवेश (डोमेनियन) बनाये जाने का प्रस्ताव पारित कर रहे थे, अनुशीलन समिति से निकले बिस्मिल और अशफ़ाक़ जैसे देशभक्त ‘वन्दे मातरम‘ का गायन गाते हुए फांसी के फंदे को चूम कर इहलोक त्याग चुके थे।
स्वतंत्रता के संग्राम में कांग्रेस की भूमिका मुखर हो कर सही माने तो १९४२ में ही आयी थी। १९४० में गाँधी जी ने बिना कांग्रेस को संज्ञान में लिए वाइसराय को समर्थन का वचन दे दिया था। ऐसा ही उन्होंने खिलाफत के समय भी किया था।
अम्बेदकर के अनुसार असहयोग आरम्भ में खिलाफत के लिए ही लाया गया था, और बाद में गाँधी जी ने कांग्रेस को इससे जोड़ दिया था, हालाँकि खिलाफत का भारत की स्वाधीनता से कोई सम्बन्ध नहीं था।
खिलाफत का उद्देश्य तुर्की में इस्लामिक सत्ता की स्थापना थी और इसका जो दुष्प्रभाव मोपला विद्रोह में हिन्दुओं के विरोध में देखा गया वही विभाजन के काल में प्रस्फुटित हुआ। बार बार प्रश्न उठाया जाता है कि गैर कांग्रेसी या दक्षिणपंथी सोच आंदोलन में कहाँ थी। देखिये, संभवतः इस लेख से कुछ उत्तर मिले। कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव १९३० में पारित किया परन्तु बोस के अनुसार १९३९ तक पुनः स्वायत्त उपनिवेश पर चली गयी। अलेक्स वॉन की पुस्तक इंडियन समर के अनुसार लेडी माउंटबैटन ने १९४६ में नेहरू को पुनः उसी स्वायत्त उपनिवेश के लिए मना लिया जो कि अंग्रेज़ों के भारतीय स्वतंत्रता की उद्घोषणा पर भी टंकित है।
भला हो डॉ अम्बेदकर और डॉ राजेंद्र प्रसाद का कि उन्होंने भारत को संविधान में संप्रभु, स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया। कांग्रेस ने एकीकृत प्लेटफार्म के रूप में ब्रिटिश साम्राज्य के समक्ष भारतीय पक्ष रखा, इसमें दो राय नहीं है। कांग्रेस की भूमिका के विषय में लिखने को एक उद्योग ही लगा हुआ है। मेरा उद्देश्य इस स्वतंत्रता दिवस पर उन्हें याद करना और श्रद्धांजलि देना है जो भुलाये गए हैं।
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