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श्रीकृष्ण रूप भाव, श्रीमद भागवत और गीतगोविंद

गीतगोविन्द भागवत का पूरक है, एक तरह से उसकी फलश्रुति है। भागवत का प्रारम्भ सब कामनाओं के श्रीकृष्ण भाव में विसर्जन से होता है और परिणाम होता है श्रीकृष्ण भाव से भक्त जन में श्रीकृष्ण के भरने से। भागवत के केन्द्र में श्रीकृष्ण हैं तथा भागवत एक तरह से श्रीकृष्ण का वाङ्मय विग्रह है। गीतगोविन्द के केन्द्र में श्रीराधा है, अतः वह राधा का, श्रीकृष्णमय राधा का गीतमय विग्रह है। भागवत राधा की माधवी वृत्ति में चरितार्थ हो जाता है।

श्रीकृष्ण और श्रीराधा पृथक् नहीं है, जैसे भाव और रस पृथक् नहीं हैं। भाव का उच्छलन ही रस है, श्रीकृष्ण का राधामय होना ही सच्चिदानन्द सागर का ज्वार है। ब्रह्म अतिकामी ही नहीं होता, अतिकाम्य भी होता है, ब्राह्मी स्थिति सबके भीतर होती हुई सबके परे चली जाती है तो ब्राह्मी स्थिति के परे भी एक स्थिति होती है, मोह रूप द्वैत को पार करके अद्वैत की जड़ता तोड़ने वाली भी एक गति होती है, उसी का नाम राधा है।

कृष्ण शब्द की व्युत्पत्ति कई प्रकार से की जाती है। आकृष्ट करने का जिनका स्वभाव है, वे कृष्ण है; जो हरी-भरी फसल की तरह श्यामल हैं वे कृष्ण हैं। जो कि सघन केन्द्र बिंदु होने के कारण आँखों के अगोचर हैं, इसलिए श्याम हैं। सूर्यमण्डल के भीतर कमल पर आसीन जो प्रकाश का तरल रस होगा, वह होगा तो उजले का भी उजला, पर लगेगा गहराई के कारण काला भंवर ही न। कृष्ण की एक दूसरी व्युत्पत्ति है:

“कृषिर्भूवाचको शब्दो णस्तु निर्वृतिवाचकः”

कृष्ण में कृष् का अर्थ है खींचना, जोतना, धरती में बीजवहन की क्षमता उत्पन्न करना। धरती की उत्पादक शक्ति का आवाहन करना, भू को सत्ता न बने रहने देना, उसे भाव, परार्थभाव बनाने के लिए प्रेरित करना। जहाँ कहीं जड़ता है, स्थिरता है, बंजर भाव है, वहाँ एक हलचल पैदा करना।

ठीक इसका विलोम भी है, जो अत्यन्त गतिशील है, जिनकी गति रोके नहीं रुकती। इतनी चंचल है कि कहीं ध्यान का ठहराव नहीं है, उसको स्तब्ध कर देना। उसके स्पन्द को एक क्षण रोक देना, जलती हुई बत्ती को प्राणों के निरोध से निष्कम्प कर देना। स्थिति और गति दोनों को खींचना।

दोनों में परिवर्तन लाना ही कृष् का, कृषि का, कृष्ण का, सनातन व्यापार है। इसीलिए तो ण जुड़ा हुआ है, निषेधार्थक न का मूर्धन्यीकरण, नकार को शीर्ष पर स्थापित करने वाला ण निवृति का वाचक है। जितने घेरे हैं, जितने आवरण हैं, जितनी कामनायें हैं सबको उखाड़कर रख देता है, तुम अपने को जो कहोगे, जो मानोगे, वह नहीं रहने पाओगे।

जो भी तुम्हारे भीतर अभिमान होगा, कितना भी सात्त्विक अभिमान क्यों न हो, वह कृष्ण रहने नहीं देंगे। उन्होंने किसी भी प्रकार का अभिमान रहने नहीं दिया। नर रूप में यदुवंशी होने का, पालित पुत्र के रूप में गोपाल होने का, साधक रूप में योगेश्वर होने का, निरस्त्र सारथी होने का, कोई भी अभिमान बिना खण्डित किये न रहे।

अन्त में उन्होंने परब्रह्मता का अभिमान भी खण्डित किया। एक मामूली व्याध के तीर के वेष्य बनकर, उन्होंने ऐश्वर्य का अभिमान खण्डित किया। राधा के उदार पद-पल्लव के चाहक बनकर। कृष्ण के बारे में एक देवीपुराण में कथा है कि देवी ने शिव से कहा कि मैं तुम्हें पुरुष बनकर प्यार देना चाहती हूँ अतः तुम नारी रूप हो जाओ। शिव तो शिवा की बात रखते ही, उन्होंने राधा रूप धारण किया और देवी ने (श्यामा ने) कृष्ण रूप। देवी की सम्पूर्ण निषेधशक्ति कृष्ण में प्रस्फुटित हुई।

बचपन से ही कृष्ण ने ध्वंस और खण्डन ही की लीला तो रची, जेल की जंजीर तोड़ी। यशोदा के प्रसूति गृह के द्वार तोड़े, पूतना का वध किया, प्रभंजनों का मंजन किया, छकड़ा तोड़ा, पेड़ तोड़ा, कालिय का गर्व तोड़ा, इन्द्र का मान तोड़ा, ब्रह्मा का अभिमान तोड़ा। कितने तो मटके फोड़े, कितने तो मन तोड़े। तोड़ते-तोड़ते ऐसे निर्मम हो गये कि कोई रिश्ता नहीं रह गया, सख्य, प्रीति, वात्सल्य, स्वामित्व, कुछ नहीं। यहाँ तक कि आत्मसम्बन्ध भी नहीं, आत्माराम के योग का सम्बन्ध भी नहीं। ऐसी निर्वृति, ऐसी उन्मुक्तता कहाँ और मिलेगी।

पर इस निवृत्ति की एक विवशता है। निर्ममः होकर भी इसे ऐसे अनात्म निरहंकार सर्वस्व-समर्पक भाव के आगे चाहक बनना है, रस-सागर को मथकर जो मक्खन निकलता है, वह मुझे मिले। बड़े यत्न से मक्खन निकलता है और बहुत छिपाकर इसे रखना पड़ता है। अपने हृदय की तरल सघनता को कोई क्यों बाँटता फिरेगा?

श्रीकृष्ण उस सघनता को उसी तरह छिपाव की भूमिका में उतर कर ग्रहण करना चाहते हैं, सब तो ग्रहण कर नहीं पाते, उसे बांटते हैं और ढरका देना चाहते हैं। व्यष्टि का रस सबमें वितरित हो जाय, सर्वात्मा को समर्पित हो जाय। वह इस प्रकार के अधिग्रहण में ही मक्खन न रहकर मिट्टी के भाजन में न रह सकने वाली अमृत की धार बन जाने को आतुर हो जाय। गोपी अपनी न रहकर परायी हो जाय।

निवृति की निष्ठुरता भाजन को भाजन नहीं रहने देना चाहती, उसे रस बना देना चाहती है। गोपी दही बेचने जाती है और पुकारती है कोई गोपाल लेगा मोल, दही को गोपाल के लिए अर्पित होने की उदग्र कामना में गोपाल होना ही होना है। दही बेचने वाली को भी, गोपाल की चाह बन जाना है। न गोपी रहना है, न नारी देह रहना है, न प्रिया रहना है बस चाह हो जाना है। उसे छन्दोमय कर्म बन जाना है। गाय दुहने बैठें, धान कूटने चलें, दही बिलोयें, घर लीपें, झूले पर झूलने चलें।

बच्चा रो रहा है, उसे चुप कराने चलें, उसे उबटन लगाने चलें, कुछ भी करें, रोम-रोम में श्रीकृष्ण की चाह की सिहरन होती है। एक गान उमड़ता रहता है, सर्वनाशी प्यार का। इतने विशाल और विराट् श्रीकृष्ण भाव के लिए चित्त यान बन जाता है। भाव तुम्हें चलना है तो तुम्हारी लाचारी है। यह छोटा-सा चित्त है, बड़ा कठोर, बड़ा ही अपने आग्रह में दृढ़ इस पर विराजों, यही तुम्हें ले जायेगा इस छोर से उस छोर तक।

इस अँधेरी आत्मा की गुफा से बाहर प्रकाश के प्लावन तक, इस निभूत निकुंज से शरद के निरभ्र रुपहले आकाश के अनन्त और उन्मुक्त रस-ज्वार तक।

यादोहनेबहननेमथनोपलेप

प्रेखखनाभंरुदितोक्षणमार्जनादो।

गायन्ति चैनमनुरक्तधियोबुकठ्यो

धन्या ब्रजस्त्रिय उरुक्रमचित्त यानाः ॥

ध्यान सांवरे के रंग में रंगा है। आँखों में साँवरे का रस आँसू बनकर उमड़ा चला आ रहा है। कहीं नाभि से स्वर उठ रहा है, कृष्ण-कृष्ण, गोविन्द गोविन्द, दामोदर दामोदर, माधव-माधव। श्रीकृष्ण को इसी रस की तरस है, अतृप्य तरस है। सबसे अधिक तरस है शिव के शान्त निर्धूम तप के ताप पर खोलाये सात्त्विक वाणी के रस से धैर्य के जेमन से जमाये दही के स्वाद की।

सूर की राधा ने कहा- मेरे दधि को हरि स्वाद न पायी। हरण करने वाले लुटेरे ने मेरे दही का स्वाद कहाँ पाया। वह लूटने से नहीं मिलेगा, वह मिलेगा, निःशेष समर्पण से, भूमिका परिवर्तन से, पीताम्बर देकर नीली ओढ़नी ओढ़ने से, वंशी देकर, मोर मुकुट देकर बेंदी सिर पर धारण करने से।

वास परिवर्तन से आगे जाकर चित्त परिवत्र्त्तन से पुनः स्वभावज नारी रूप में अपना शृंगार कराके और अपने हाथ से शिव रूप राधा को पुरुष में प्रतिष्ठित कराके प्राणों के विनिमय से। राधा श्रीकृष्ण होकर बिचारी राधा के लिए अकुला उठे। उसे बहुत सताया, कैसी होगी, श्रीकृष्ण राधा होकर रूठ जायें और मनाये न मनें, कृष्ण हुई राधा थक जाये, खीझ जाये, क्या अपराध मुझसे हुआ।

यह वैचित्य, चित्त का अपना चित्त न रह जाना, अपना विशिष्ट चित्त हो जाना, सामान्य चित्त की तरह आत्म-चिन्तक न रह जाना, परकीय हो जाना, श्रीकृष्ण भाव का उच्चलन है। तभी श्रीकृष्ण रस बनते हैं। मैंने उन्हें भावपुरुष कहा है, रस होने की अधिकारिणी तो केवल उनकी ह्लादिनी वृत्ति है, उनका राधामय रूपान्तर है।

मैं जो लिख रही हूं उसमें न तत्त्वसमीक्षक की दृष्टि है, न इतिहास-लेखक की, न धर्म-परायण की, न कलाकार की, न कवि की, इनमें साहित्य के सामान्य पर भागवत और गीतगोविन्द से अभिभूत पाठक की दृष्टि है। मैं श्रीकृष्णचरित को अखण्ड रूप में देखने में सुख पाती हूँ, क्योंकि मुझे इसी में संगति दिखायी पड़ती है कि इतनी लीलाओं में अपने को विभक्त करने वाला, इतनी कलाओं में अपने को अलग-अलग छिटकाने वाला ही अखण्ड और सोलह कलाओं वाला महापुरुष हो सकता है।

महाषोडशी के अपांगविलसित के बिना गोवर्धन धारण नहीं होगा। व्रज में गोचारण के बिना भीतर की गायों, इन्द्रियों का चारण नहीं होगा। छल की कोड़ा बिना सारे संसार के छल और दुराव का छलन नहीं होगा। छान्दोग्य उपनिषद् में श्रीकृष्ण को दिये गये उपदेश की कथा आती है, जो घोर आंगिरस के मुख से कहलायी गयी है, पूरा उपदेश इस प्रकार है-

स यदशिशिषति यत् पिपासानि यत्स रमते तदस्य दीक्षा।

स पदश्नाति यत् पिवति यद् रमते तदुपसदंरेति।

सं यद् हसति यज्जक्षति यन्मैथुन चरति स्तुतशस्त्रैरेव तदेति।

अथ यत्तपो दानमार्जवमहिंसा सत्यवचनमिति ता अस्य दक्षिणाः।

तस्मादाहुः सोष्यत्यसोष्टेति। पुनरुत्पादनमेवास्य तत्। मरणमेवावथः। तद्वैतद् घोर बांगिरसः कृष्णाय देवकीपुत्राय उक्त्वोक्तवोवाच।

अपिपास एवं स बभूव।

सोन्तवेलायां प्रतिपद्येत अक्षितमस्यच्युतमसि प्राणसंचितमसि।

इस काव्यमय भाषा का एक अत्यन्त स्थूल रूपान्तर है। यह आदमी जो है न, जब उसे भूख लगी होती है, प्यास लगी होती है, कहीं उसे चैन नहीं पड़ता है। वह कहीं रमना चाहता है। उस समय यह अनुभव करना चाहिए कि वह जीवन-यज्ञ की दीक्षा ले रहा होता है।

दीक्षा की शर्त है खाली होकर, रेरिचान (रिक्त) होकर भरने की आकांक्षा करना। जब वह खाता है, पीता है और उसका मन रमने लगता है, कोई उसे प्रिय लगने लगता है, तब समझना चाहिए कि वह यज्ञवेदी के पास पहुँच गया है।

जब वह हँसता है, प्रमुदित होता है, जब वह भोग को आत्मसात् करता है, जब वह अपने संसार को नष्ट करता रहता है। जब वह दो का एक होता रहता है, जब वह स्त्री-पुरुष के संयोग के अद्वैतात्मक क्षण में प्रविष्ट होता रहता है। रूपक की भाषा में परस्पर निगीर्ण होता रहता है, तब वह यज्ञ में शस्त्र और स्तोत्र नामक मन्त्रों के उच्चारण के साथ यज्ञ के भीतर आहुति बनता है, यह अनुभव करना चाहिए।

और इस यज्ञ की दक्षिणा के रूप में उस प्रेरक कर्ता को जिसने अपने को इस जीवन-यज्ञ में झोंका और अपने को अलग रखा, दक्षिणा के रूप में मिलते हैं, तप, दान, आर्जव (सूधापन), अहिंसा और सत्य। एक प्रकार से यज्ञ पुनरुत्पादन है, सृष्टि का नवीकरण है, जीवन जीना मात्र नहीं है, नयी रचना है, विशाल रचना है। इस प्रकार जिया गया जीवन मृत्यु है अहंकार का, ममकार का।

इसलिए यज्ञ समाप्ति पर जो स्नान किया जाता है, वह अवभूव स्नान (भीतर से भरने वाला स्नान) ही मृत्यु है, मृत्यु विराम नहीं है, नया आरम्भ है, पुनः नये जीवन-यज्ञ में दीक्षा और आहूति की तैयारी है ‘पुनः सवेरा एक बार फेरा है जी का।

यही विद्या घोर आंगिरस ने देवकीपुत्र कृष्ण को सिखायी और उनकी प्यास बुझ गयी, ऐसा हुआ कि अन्तवेसा तक उन्हें ज्ञान बना रहा – तुम्हारा कोई घर नहीं है, तुम अक्षित हो, तुम्हारा कुछ नही घटता, तुम अभ्यय हो, अच्युत हो, प्राण तुम्हें बराबर सान पर चढ़ाये रहते है, तुम्हें हमेशा चीरते रहते हैं, तुम प्राण संक्षित हो, तुम कितने अपने हो, कितने दूसरों के हो, इस इन्द्र में जीना जीना है।

मृत्यु प्राचीन बीज का नया अंकुरण है, यह भाव बना रहे, हम अन्धकार को पार करते रहे, बराबर आगे की ज्योति की ओर देखते रहे, आत्मरूप प्रकाश से ज्योति के कणों को भी देखते रहें। यही देवता होना है, इसी मार्ग से देवता प्रकाश होते हैं, होते रहते हैं। जो इस उपदेश के साथ श्रीकृष्ण को जुड़ा देखेगा, उसे श्रीकृष्ण की जीवन यात्रा के क्षण-क्षण सार्थक लगेंगे, अखण्डता के साधक लगेंगे। उनका रासेश्वर रूप उनके योगेश्वर रूप का विरोधी नहीं है, न उनका सेवक रूप उनके सेव्य होने का, न उनका निर्मम रूप उनके प्रेयान् क्या प्रेष्ठ होने का।

मुझे यह लगा कि भागवत श्रीकृष्ण भाव की विशाल यात्रा का एक साक्षात् देखा हुआ, भीतर से देखा हुआ विवरण है। इसीलिए वह विवरण इतिहास नहीं है, पुराण है, पुराना न पड़ने वाला है। इसे पढ़ते हैं तो हम अतीत की स्मृति में नहीं खोते, हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। श्रीकृष्ण सत्ता नहीं हैं, इतिहास पुरुष नहीं हैं। वे भाव हैं, इस देश के स्थायी पर रसायित होने को आकुल भाव हैं। मैंने भागवत या गीतगोविन्द न बाँचा है, न पढ़ा है, भागवत और गीतगोविन्द की सिहरन मुझे कभी-कभी होती है। मुझे लगता है इन ग्रन्थों का जातीय अनुभव स्मृति नहीं है, प्रत्यक्ष है। मैंने जो भी अनुचिन्तन प्रस्तुत किया है, उसमें यही दृष्टि खोजें तो मेरा श्रम सार्थक होगा।

अन्त में एक बात राधा के बारे में कहना है। एक दूसरे देवीपुराण में आख्यान है, राम ने अश्वमेघ यज्ञ किया तो सीता की स्वर्णमयी प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठित करके उसे सह यज्ञ-भागिनी बनाया। यज्ञ पूरा हुआ, वे स्वर्ण प्रतिमा को विसर्जित करने लगे। स्वर्ण प्रतिमा में प्राण थे ही, बिगड़ गयी, तुम्हारा इतने कठिन कार्य में, पवित्र कार्य में साथ दिया, और तुम मुझे फेंक देना चाहते हो, यह नहीं होगा।

वह अपने आसन पर अड़ गयी, राम मनाते रहे, सीता की पूर्ति तुमसे नहीं होगी। पर उसके आग्रह के आगे राम लाचार हो गये, कहा कि अगले अवतार में तुम राधा होगी, तुम्हारा मुझसे नित्य संयोग रहेगा, पर तुमने दुराग्रह किया इसलिए साथ-ही-साथ नित्यवियोग भी रहेगा। इस आरूपात का अर्थ यही है कि एकनिष्ठ प्रेम की साकार प्रतिमा सीता और उस सीता की भावना, प्रतिमा, उस भावना का राधा रूप में प्रादुर्भाव राधा को देह नहीं, भाव-विग्रह बना देता है।

राधा न शरीर है, न इन्द्रिय, न पत्नी, न पुत्री, वे केवल प्यार हैं। राम में पन्द्रह कलायें है, सोलहवीं कला तो यह राधा है, जिसको अमृता कहें, जिसे राधने का व्यापार कहें। जिसे अपने को मिटाकर विराट् का वरण कहें, सब अधिकारों को छोड़कर, सुविधाओं, ऐश्वर्यो को छोड़कर केवल आराधिका के अधिकार का वरण कहें।

कुछ भी कहें, श्रीकृष्ण के जीवन की जीवन मूरि राधा हैं। जयदेव ने ऐसी नित्यसंयुक्त नित्य-विमुक्त मिली- बिछुड़ी राधा को केन्द्र में रखकर भारत के रचनासंसार में ऐसी रसवृष्टि की है, जिससे सब भीगे हुए हैं, पर अभी तक भोगने से अघाते नहीं। श्यामरस में अनघायी राधा की बेकली से कोई कभी नहीं अघायेगा। मैं इसी से बार-बार कहती हूँ हमारी संस्कृति की किशोरावस्था है कृष्ण युग, अर्थात् भागवत की भूमि और प्रौढ़ावस्था है राधायुग अर्थात् गीतगोविन्द की भूमि।

(Editor’s Note:

मर्त्यस्तयानुसवमेधितया मुकुन्द-
श्रीमत्कथाश्रवणकीर्तनचिन्तयैति ।
तद्धाम दुस्तरकृतान्तजवापवर्गं
ग्रामाद् वनं क्षितिभुजोऽपि ययुर्यदर्था: ॥

“By regularly hearing, chanting and meditating on the beautiful topics of Lord Mukunda with ever-increasing sincerity, man attains the divine kingdom of the Lord, beyond the realm of death. For this purpose, many persons, including great kings, abandoned their mundane homes and took to the forest” – Srimad-Bhagavatam

The essay competition on the occasion of Janmashtami is our sincere endeavor to harness the Kirtana and Sravana forms of Bhakti by encouraging authors to pen articles exuding Bhakti and thereby affording the highest spiritual bliss to our readers.)

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