चराचर जगत में मानव तमाम समस्याओं से अनवरत संघर्ष करता चला आ रहा है। मन की अशांति, समाज की पीड़ा, परिवार की दशा, धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक समस्याओं के बीच मनुष्य निरंतर चिंतनशील रहा है और वर्तमान समय में भी ये समस्याएं किसी न किसी रूप में मानव को प्रभावित करती रहती है। मध्यकाल में जब भारतीय समाज राजनीतिक अशांति, धार्मिक समस्या, आर्थिक विषमता और तमाम प्रहारों से संकटग्रस्त भारतीय संस्कृति कराह रही थी तो मूलतः मानव समाज के उत्थान और मानसिक शांति के साथ ही साथ समाज को विकासोन्मुख मार्ग दिखाने में भारतीय संत समाज ने अग्रणी भूमिका निभाई। भक्ति साहित्य के प्रस्तुतीकरण ने समाज में मची ‘अशांति और मानसिक खलबली को शांत करने व स्वस्थ्य समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई, संत कबीर जैसे भक्त कवियों की रचनाओं से समाज ने एक नयी ताजगी का अनुभव किया।
मूलतः संत का धर्म मानव धर्म होता है और और वह मानव धर्म की साधना में लीन रहता है जिससे समाज में शांति स्थापित हो सके।
कहा भी है कि सत्याचरण के माध्यम से जो स्वतः ब्रह्म के सच्चे स्वरूप के प्रति निरंतर उन्मुख रहता है वही संत कहलाता है।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरित मानस के प्रारंभ में ही लिखा है कि-
नाना पुराण निगमागम सम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा
भाषा निबंध मति मज्जुलमतनोति।।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने सदैव मानस कल्याण की ही कामना की है और स्वांत सुखाय के विचार प्रस्तुत कर केवल अपना ही नही व्यष्टि में समष्टि के हित की कामना की है क्योकि तात्कालिक परिस्थितियों को देखते हुए एक सच्चे भक्त के तरह अपने को प्रस्तुत कर परमात्मा में लीन होकर समाज की व्यथा को समझने का प्रयास करते हुए जीवन के सभी क्षेत्रों का समाधान भी दिया है। उन्होने सामाजिक समरसता और भेदभाव से दूर रहने का संकेत शबरी के जूठे बेर और निषादराज एवम् भालू बंदरों की मित्रता का अनुपम चित्रण कर मर्यादा पुरुषोत्तम राम के चरित्र के बहाने समाज को एक स्वस्थ संदेश देने का सफल प्रयोग किया है जिसकी प्रासंगिकता तब भी थी और आज भी है कोई भी समाज तभी मजबूत और दीर्घकालिक रह सकता है जहां इन बातों का अनुकरण किया जाता हो। गंगा पार करने के बाद प्रभु के मन की बात समझकर जब जानकी जी अपनी अंगूठी केवट को देना चाहती है तो केवट श्रीराम के पैर पकड़ लेता है और कहता है-
नाथ आज मैं काह न पावा मिटे दोष दुख दारिद दावा
बहुत काल मै कीन्ह मजूरी। आजु दीन्ह विधि बनि, भलि भूरी।।
केवल मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के पांव पकड़कर कहता है कि हे नाथ मैने क्या नही पाया मेरे दोष दुख और दरिद्रता की आग आज बुझ गई। मैने बहुत समय तक मजूरी की विधाता ने आज बहुत अच्छी मजदूरी दे दी है।
इसी प्रकार गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने अनेक ग्रन्थों में मानव संकट दूर करने के उपाय और भक्ति के माध्यम से अपना जीवन सफल बनाने का रास्ता दिखाया है।
समाज को सही रास्ता दिखाने के लिए संत कबीर ने भी अथक प्रयास किया है। उनका मानना था कि सभी लोग एक ही ईश्वर के संतान है और सभी लोग एक समान है। एकता और समता से ही जीवन उन्नत हो सकता है और समाज के सभी लोगों का कल्याण हो सकता है।
मनुष्य का चतुर्दिकविकास ज्ञान के द्वारा ही हो सकता है बिना ज्ञान के मनुष्य अपने जीवन के किसी भी तरह की उन्नति नही कर सकता है। इसलिए उन्होने कहा कि-
साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन का मोह।
पारस तक पहुंच नही, रहा लोह का लोह।।
अर्थात् ज्ञान से परिपूर्ण बहुत साखी शब्द सुनकर भी यदि मन का अज्ञान नही मिटा, तो समझ लो पारस पत्थर तक न पहुंचने से लोहा का लोहा ही रह गया।
उक्त भाव मनुष्य को यह प्रेरणा देते है कि जीवन को सफल बनाने के लिए ज्ञान को पाना आवश्यक है।
ज्ञान सत्संग से मिलता है-
जीवन जोवन राज मद, अविचल रहे न कोय।
जु दिन जाय सत्संग में जीवन का फल सोय।।
जीवन जवानी तथा राज्य का मद ये कोई भी स्थिर नही रहते। जिस दिन सत्संग में जाईए उसी दिन जीवन का फल मिलता है।
कबीर दास जी ने भेदभाव और ऊंच नीच की भावना को सामाजिक समरसता और एकता के लिए बाधक माना है और समाज को बहुत ही साफ सर्देश दिया है।
ऊँचे कुल कह जनमिया, करनी ऊंच न होय।
कनक कलश मद सो भरा, साधुन निंदा सोय।।
अर्थात
केवल ऊंचे कुल में जन्म लेने से किसी के आचरण ऊँचे नही हो जाते। सोने का घड़ा यदि मदिरा से भरा हो तो वह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा निंदनीय ही होता है।
आचरण पर भी कबीर दास ने गंभीर विचार व्यक्त किया है यदि आचरण हीन लोगों से मिलने पर तन धन सबकी हानि होती है।
काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान।
काचा सेती मिलत ही ह्वै तन धन की हानि।।
उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि –
संत सुरसरि गंग जल, अग्नि पखारा अंग।
मैले से निरमल भये, साधू जन के संग।।
अर्थात् संतों की संगति से लोग ज्ञान पाकर पापी से पुण्यात्मका बन जातेे हैं।
आज की परिस्थितियों में कबीर की यह बात सटीक बैठती है
संगीत ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग।
लर लर लोई होत है, त ऊ न छाडै संग।
आशय यह है कि प्रेम संगत, सहृदय मनुष्य से करो। देखा! लोई जर जर (जीर्ण शीर्ण) होने पर भी अपना रंग नहीं छोड़ती। सच्चा मनुष्य किसी अवस्था में प्रेम नहीं छोड़ता।
मनुष्य को उन्होने साफ संदेश दिया कि दुखों की खान आशा रूपी तृष्णा का त्याग करो-
आशा तो गुरुदेव की दूजी आस निरास।
पानी में घर मीन का, सो क्यों मरे पियास।।
हे मनुष्यों आशा तो एक सद्गुरू ज्ञान की ही करो, दूसरे पदार्थों की आशा में पड़कर अंत में निराशा होना पड़ता है। जिस मछली का घर पानी में है, वह प्यासी क्यो मरे! (उत्तम नर तन पाकर भी क्यों दुखी हो)
समाज में क्षमा, मनुष्य का महान गुण होता है क्षमा से विनम्र मनुष्य का कुछ नहीं बिगड़ता हैं-
क्षमा कोध की क्षय करै, जो काहू पै होय।
कहै कबीर ता दास को, गंजि सके ना कोय।।
क्षमा कोध का विनाश करती है, यदि किसी के पास वह हो तो कबीर दास जी कहते है कि उस निनम्र क्षमालु का कोई कुछ नही बिगाड़ सकता।
उन्होने कुपथ पर चलने वाले लोगो को गंभीर संदेश दिया।
कहा कि लोगो की उल्टी बुद्धि पर हंसी आती है और कहने में भय लगता है क्योकि सत्य कहने पर लोग असंतुष्ट होते हैं।
डर लागे और हांसी आवै, अजब जमाना आया रे।
धन दौलत लै माल खजाना, वेश्या नाच नचाया रे।
मुट्ठी भर अन्न साधु कोई मांगै, कहै लाज नहि आवै रे।।
कथा होत तहां श्रोता सोवै, वक्ता मूड पचाया रे।
होय जहां कही स्वांग तमाशा, तनिक न नीद सताया रे।।
कबीर की साहित्य साधना में मन की अस्थिरता, लाभ मोह, जाति वर्ण, ऊँच नीच का भेदभाव, रागद्वेष आदि सभी बिन्दुओं पर बेबाकी से अपनी बात कही और समता का संदेश दिया।
‘‘डगमग छाडि दे मन बौरा।
अब तो जरे बरे बनि आवै, लीन्हों हाय सिंधौरा।।
होय निशंक मगन होय नाचो, लोभ मोह भ्रम छोड़ौ।
सूरा कहा मरन ते डरपै, सती न सचै भाँड़ौ।
लोक लाज कुल की मर्यादा, यही गले की फांसी।
आगे चलि के पीछे लौटे, होई है जग में हाँसी।।
यह संसार सकल है मैला, राम गहे ते सूचा
कहहिं कबीर राम गहि, गिरत परत चठि ऊँचा।।
भक्ति और साधना में चंचलता नही एकाग्रता को ही कबीर दास ने महत्वपूर्ण स्थान दिया है।
‘‘देह हलाय भक्ति होई, स्वांग घरे नर बहु विधि जोई।।
धीगी धीगा भलो न माना जो काह मोहि ह्रदय न जाना।।
इन प्रकार हम कह सकते हैं कि संत साहित्य मानव के सर्व विकास एवं मानव कल्याण के लिए महत्वपूर्ण है। संदर्भ:-
- रामचरित मानस, पृष्ठ 2 गीता प्रेस गोरखपुर
- कबीर अमृत वाणी पृष्ठ 53 अभिलाषा दास कबीर पारख संस्थान इलाहाबाद 211011
- कबीर अमृत वाणी पृष्ठ 53 अभिलाषा दास कबीर पारख संस्थान इलाहाबाद पृष्ठ 53
- कबीर अमृत वाणी पृष्ठ 53 अभिलाषा दास कबीर पारख संस्थान इलाहाबाद पृष्ठ 52
- कबीर अमृत वाणी पृष्ठ 53 अभिलाषा दास कबीर पारख संस्थान इलाहाबाद पृष्ठ 52
- कबीर अमृत वाणी पृष्ठ 53 अभिलाषा दास कबीर पारख संस्थान इलाहाबाद पृष्ठ 55
- कबीर अमृत वाणी पृष्ठ 53 अभिलाषा दास कबीर पारख संस्थान इलाहाबाद पृष्ठ 56
- कबीर अमृत वाणी पृष्ठ 53 अभिलाषा दास कबीर पारख संस्थान इलाहाबाद पृष्ठ 192
- कबीर अमृत वाणी पृष्ठ 53 अभिलाषा दास कबीर पारख संस्थान इलाहाबाद पृष्ठ 1221
- कबीर अमृत वाणी पृष्ठ 53 अभिलाषा दास कबीर पारख संस्थान इलाहाबाद पृष्ठ 155
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