एक लड़की के यौवनावस्था के शुरू होने साथ ही मासिक चक्र शुरू हो जाता है| प्रायः यह १०-१४ वर्ष की आयु में शुरू होता है| मासिक धर्म मासिक चक्र का केवल एक हिस्सा है। लेकिन मासिक धर्म सबसे अधिक ध्यान आकर्षित करता है क्योंकि इसी समय एक स्त्री के शरीर से खून प्रवाहित होता है। मासिक चक्र एक स्त्री के प्रजनन और गर्भ धारण की प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है|
एक स्त्री के यौवनावस्था में रजस्वला से लेकर रजोनिवृति तक मासिक चक्र चलता रहता है| मासिक चक्र तब तक दोहराया जाता रहता है जब तक एक स्त्री गर्भवती नहीं हो जाती या जब तक रजोनिवृत्ति शुरू नहीं हो जाती यह चरण एक महिला के आमतौर पर चालीसवें वर्ष में पहुँचने तक ज़ारी रहता है और यह व्यक्तिगत रूप से भिन्न हो सकता है, और यह किसी महिला के प्रजनन चक्र के अंत का प्रतीक है।
हिन्दू धर्म में तिथि और मास की गणना का आधार चंद्र चक्र है| जितने दिन में चन्द्रमा पृथ्वी का एक चक्कर लगता है उसे ही एक मास माना जाता है| प्रायः यह २८-२९ दिन का होता है| हिंदू कैलेंडर को पंचांग के रूप में जाना जाता है|
एक स्त्री का मासिक चक्र भी लगभग चन्द्रमा के चक्र के सामान समय का होता है और चन्द्रमा के चक्र से एक मास का निर्धारण होता है| यही कारण है कि स्त्रियों के चक्र को भी मासिक चक्र का नाम दिया गया और चूकि इस चक्र के दौरान स्त्री का गर्भाशय गर्भधारण के लिए तैयार होता है और गर्भधारण न होने पर रक्तस्राव होकर गर्भनाश हो जाता है| यह प्रक्रिया हर महीने चलती है| चूकि इस प्रक्रिया का सुचारु रूप से चलना प्राकृतिक गर्भधारण और जीवन की उत्पत्ति के लिए परम आवश्यक होने के साथ-साथ एक स्त्री के स्वास्थ्य के लिए भी महत्वपूर्ण है इसलिए इसमें “धर्म” शब्द जोड़ा गया और इसे ‘मासिक धर्म’ भी कहा जाता है| “धर्म” का अर्थ तो हम सब जानते ही हैं| “धर्म” वह है जिसका पालन हमारी रक्षा के साथ-साथ सबका कल्याण करता हो|
अब सोचने वाली बात है कि जो प्रक्रिया धर्म मानी जाती हो और प्राकृतिक हो उसे अशुद्धि का कारण क्यों माना जा सकता है क्योंकि यह मान्यता प्रसिद्ध रही है कि एक स्त्री मासिक धर्म के दौरान अशुद्ध होती है तथा उसे रसोई में प्रवेश नहीं करना चाहिए, साथ ही मंदिर नहीं जाना चाहिए या पूजन कार्य में भाग नहीं लेना चाहिए|
इस बात का आधार जानने के लिए हमें बीते समय में जाना पड़ेगा| भारत में आज भी हम पाते हैं लोग खुले में शौच जाते हैं और आज भी लगातार प्रयास हो रहे हैं कि शौचालय बनें और प्रयोग किये जाएं| इसी तरह पुराने समय में भी लोग शौच और स्नान खुली जगह में ही करते थे| महिलाएं भी किसी नदी, तालाब या सरोवर में स्नान किया करती थी| इसके प्रमाण के तौर पर भगवान कृष्ण द्वारा यमुना के तट पर स्नान करती हुई स्त्रियों के चिर-हरण के प्रसंग को ले सकते हैं| अतः स्त्रियां सार्वजनिक स्थान पर अन्य स्त्रियों के साथ स्नान करती थी किन्तु मासिक धर्म के दौरान वे लोकलज्जा एवं अपने मासिक रक्तश्राव से सार्वजनिक जलाशय को दूषित न करने के कारण स्नान के लिए नहीं जा पाती थी| उस समय मासिक धर्म के प्रबंधन के लिए आज के समय जैसे साधन उपलब्ध नहीं थे और मासिक धर्म के दौरान रक्तश्राव की समस्या के कारण किसी भी सार्वजनिक स्थान पर जाना एक स्त्री के लिए कठिन था| इसलिए मासिक-धर्म के समय एक स्त्री को अशुद्ध माना जाने लगा और ऐसी स्थिति में मंदिर जाना या पूजा करना अनुचित माना गया|
मासिक धर्म के दौरान स्नान न करने का एक आयुर्वेदिक कारण भी रहा| माना जाता है कि स्नान के दौरान पीठ पर बहने वाले पानी का 7 चक्रों (plexuses) पर प्रभाव पड़ता है, उनमें से एक मूलाधार चक्र है जो प्रजनन प्रणाली के सबसे करीब है। मूलाधार चक्र पर पानी के इस प्रभाव से मासिक धर्म के रक्त के बहिर्वाह में कुछ बाधा उत्पन्न हो सकती है क्योंकि गर्भाशय से कचरे को खत्म करने के लिए उस समय के दौरान शरीर गर्मी पैदा करता है, इसलिए जब हम सिर से स्नान करके शरीर के तापमान को कम करते हैं तो गर्भाशय में मासिक धर्म के खून का ठहराव हो सकता है। इससे इस समय पर संक्रमण हो सकता है और हार्मोनल असंतुलन भी हो सकता है। अतः स्वच्छ रहने के लिए सर से पूरे शरीर के स्नान की अपेक्षा निजी भागों को साफ करना बेहतर बताया गया।अतः यह बात कि स्त्री को मासिक धर्म के दौरान स्नान नहीं करना चाहिए प्रचलन में आयी| हालांकि आज के आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में स्नान का मासिक धर्म पर दुष्प्रभाव की बात की पुष्टि नहीं है| इस दौरान हल्के गुनगुने पानी से नहाना बेहतर हो सकता है क्योंकि उससे शरीर का तापमान ठीक रहने के साथ-साथ शरीर की थकावट से भी आराम मिलता है|
इस दौरान रसोई में नहीं जाने या मंदिर नहीं जाने का कारण स्नान न करने के साथ-साथ यह भी था कि इस दौरान एक स्त्री को आराम की आवश्यकता होती है| अतः रसोई के काम न करने या मंदिर न जाने से उसे आराम मिलता है| पहले संयुक्त परिवार हुआ करते थे इसलिए एक स्त्री का काम भी अधिक होता था| इसलिए मासिक धर्म के दौरान एक स्त्री को रसोई आदि के काम नहीं करने दिया जाता था ताकि उसे आराम मिल सके और परिवार की अन्य स्त्रियां और सदस्य मिलकर घर और रसोई का काम कर लेते थे|
मंदिर न जाने और पूजा न करने का एक मनोवैज्ञानिक कारण भी है| मासिक धर्म के दौरान एक स्त्री के मन और विचार में बहुत बदलाव आते रहते हैं| कभी मन अशांत होता है तो कभी पीड़ा से व्याकुल तो कभी चुप-चाप अकेले रहने का मन करता है| मंदिर जाना और पूजा करना ऐसी परिस्थिति में कठिन हो सकता है क्योंकि पूजा शांत मन से हो तो ही अच्छा है| इसलिए यह मान्यता बनी कि इस दौरान मंदिर नहीं जाना चाहिए या पूजा नहीं करनी चाहिए|
इसके साथ-साथ एक और कारण यह है कि शरीर सञ्चालन के लिए ५ घटक में से २ घटक प्राण (अंदर आने वाले ऊर्जा ) और अपान (बाहर की ओर बढ़ने वाली ऊर्जा)| पूजन कार्य प्राण घटक के संतुलन में सहायक होता है| पूजा के दौरान इसलिए “प्राणायाम” भी किया जाता है जबकि मासिक धर्म के दौरान प्राकृतिक रूप से अपान घटक एक स्त्री में प्रभावी रहता है| प्राण और अपान घटक की विरोधाभाषी प्रकृति के कारण ही मासिक धर्म के दौरान पूजा न करने की बात मानी गयी जो प्रकृति सम्मत है|
एक अन्य कारण भी है| मासिक धर्म वाली महिला को एक चोट लगे व्यक्ति के रूप में माना जाता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मासिक धर्म के दौरान शरीर गर्भाशय को रक्तश्राव के रूप में बहा देता है, और इस तरह एक सक्रिय घाव का संकेत देता है। अतः मासिक धर्म वाली महिलाओं को चोट लगे व्यक्ति सामान ही आराम की जरूरत होती है| मासिक धर्म वाली महिलाओं और घायल व्यक्तियों को हल्के और आसानी से पचने वाले भोजन का सेवन करने, शारीरिक परिश्रम और मंदिर जाने या पूजा करने से बचने की सलाह दी जाती है ताकि उन्हें समुचित आराम मिल सके|
आज के बदले परिवेश में जब जीवन शैली बदल गयी है, पारिवारिक संरचना में भी बदलाव आया है और मासिक धर्म के लिए पर्याप्त साधन भी उपलब्ध हैं तो फिर हमें पुरानी मान्यताओं को मानना या न मानना एक स्त्री पर ही छोड़ देना चाहिए तथा उसकी जैसी इच्छा हो उसका सहयोग करना चाहिए क्योंकि आयुर्वेद,हिन्दू धर्म शास्त्र या मनु स्मृति में बताये गए नियम एक स्त्री की सुविधा के लिए ही थे| समय और परिस्थिति के अनुसार नियमों का परिष्कृत होना सर्वथा उचित है|
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