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शिवाजी महाराज की वीरता की एक कथा : भाग – २

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रात गहरा गई थी। आसमान में इतने बादल थे कि पूनम की रात भी अंधकार में डूबी हुई थी। छोटे दरवाजे से दो पालकियां निकली। राजे, छह सौ बांदल मावळे सैनिक और दो सौ कहार। इतने कहार इसलिए कि कहारों की एक टोली के तनिक भी धीमा होते ही दूसरी टोली उनकी जगह ले ले। बरसाती कीचड़ और पहाड़ी-पथरीले रास्ते से लगातार भागते हुए जाना था। सब नंगे पैर थे, कि तनिक भी आवाज न हो। शिवा नाई को एक पालकी में शिवाजी राजे के भेष में बिठा दिया गया और उसकी पालकी दूसरे रास्ते से चल पड़ी। शिवाजी ने भी अपने सरदारों से जल्दी से विदा ली और पालकी में बैठ गए। सब लोग चल पड़े।

दुश्मन की चौकियाँ नजदीक आ गई थी। शिवाजी की टोली बहुत आहिस्ते, बिना शोर किये चली जा रही थी, चौकियाँ पार भी हो ही गई थी कि किसी सैनिक का पैर बरसात के कीचड़ में धंस गया। पैर के धंसने और निकालने की आवाज भी उस नीरवता में बड़ी जोर से गूंजी। पहरेदार सिपाहियों का ध्यान आकृष्ट हुआ और जोर की आवाज हुई, “होशियार”। यह आवाज सुनते ही अब तक ‘धीमे चलो, आहिस्ते चलो’ कहने वाले बाजीप्रभु ने आदेश दिया ‘तेज चलो’ और पूरी टोली धनुष से छूटे तीर की तरह भाग चली।

सिद्दी जौहर अपने डेरे पर सोया हुआ था। उसे शिवाजी के भाग जाने की मनहूस खबर सुनाई गई। सिद्दी की नींद पूरी तरह उड़ गई और अब उसका गुस्सा देखने लायक था। जिसे पकड़ने के लिए वह महीनों तक डेरा डाले रहा, वह भाग गया! अपने मातहतों पर चिल्लाता, शिवाजी को पकड़ने के लिए टुकड़ियां भेजता सिद्दी बेवजह यहाँ से वहाँ भाग रहा था तभी उसे खुशखबरी मिली, “शिवाजी पकड़ा गया।” सिद्दी के चेहरे का तनाव जाता रहा। उसकी आँखें हँसने लगी।

थोड़ी देर में मसूद खान के पीछे-पीछे शाही चाल से चलते हुए शिवाजी ने प्रवेश किया। उन्हें देखकर लगता ही नहीं था कि वे किसी दुश्मन के खेमे में खड़े हैं। उन्होंने इत्मीनान से सबकी ओर देखा और सिद्दी पर उनकी नजरें ठहर गईं। सिद्दी इस जलवे को देख भौचक रह गया। व्यंग्य से पूछा, “क्यों राजे! भाग रहे थे क्या?”

राजे बोले, “हाँ, सोचा तो यही था।”

“तो बात नहीं बनी?”

“बनी होती तो यहां आपके सामने तो न खड़ा होता।”

“ओह, बैठिए, बैठिए। बेअदबी के लिए माफ़ी चाहता हूँ।” शिवाजी बैठ गए तो सिद्दी उनके सामने बैठकर बोला, “तो राजे, भाग तो आप पाए नहीं! फिर भी, जाते तो कहां जाते?”

किंचित मुस्कुराकर राजे बोले, “हमारे धर्मग्रंथ कहते हैं कि कर्म कर, फल की चिंता न कर। किले से निकलना तो था ही। अब आपके सामने हूँ, मौका लगा होता तो विशालगढ़ पहुँच जाता। वहां आप कुछ न कर पाते।”

राजे को यूं निश्चिंतता से बात करता देख फजलखान का गुस्सा उफ़न पड़ा। बोला, “इस शिवा के बच्चे ने हमें कैसे-कैसे दिन दिखाए और आप इससे इतनी तहजीब से पेश आ रहे हैं? सल्तनत का दुश्मन है ये। इसकी गरदन अभी उड़ा दी जानी चाहिए।”

सिद्दी गुस्से में बोला, “खबरदार! राजे सल्तनत के दुश्मन होते हुए भी, छोटे-मोटे सरदार नहीं, बल्कि राजा हैं। इनका फैसला सुल्तान करेंगे। अभी यह हमारे मेहमान हैं। इनकी शान में गुस्ताखी बर्दाश्त नहीं की जाएगी।”

सिद्दी अभी बोल ही रहा था कि एक जासूस हड़बड़ाता हुआ अंदर आया और सिद्दी के कान में कुछ बोल गया। उसकी बात सुनते ही सिद्दी हड़बड़ाकर उठा और शिवाजी से बोला, “कौन हो तुम?”

“मैं, शिवाजी।”

“खबरदार गुस्ताख़। शिवा तो अभी भी विशालगढ़ के रास्ते पर भाग रहा है। तू कौन है कमबख्त?”

शिवा खूब हँसा और बोला, “मैं शिवाजी हूँ। शिवाजी राजे का नाई, शिवा नाई। और तुम लोगों ने क्या समझा, शिवाजी कोई बालक हैं जो पकड़ लोगे। अब तक तो वे तुमसे एक पहर की दूरी तय कर चुके।” शिवा नाई की यह हँसी सिद्दी को बर्दाश्त नहीं हुई। उसने अपनी तलवार उसके पेट में भोंक दी। शिवाजी का वह सिपाही मातृभूमि की जय बोलता वीर सैनिक की भांति पीठ के बल गिर पड़ा।

मसूद अपनी फौज जमाकर विशालगढ़ की ओर दौड़ पड़ा। उधर विशालगढ़ के रास्ते पर पालकी उठाये कहार दौड़े चले जा रहे थे। उन्हें घेरे बाजीप्रभु और छह सौ सैनिक भी बराबर दौड़ रहे थे। आधी रात से भागते-भागते सुबह हो आई थी, लेकिन मजाल है कि किसी के कदम एक पल को भी रुके हों। भागते-भागते दोपहर हो गई, लेकिन विशालगढ़ न आया।

उधर मसूद घोड़े पर बैठा उड़ा चला आ रहा था। विशालगढ़ से तीन कोस दूर गजापुर की घाटी तक शिवाजी की टोली आ गई थी, उनके पीछे से डेढ़ हजार की फौज के साथ आता मसूद दिखने लगा था। कोढ़ में खाज यह हुआ कि आगे गए जासूस खबर लाये कि मराठा सरदार सुर्वे और राजा जसवंतसिंह विशालगढ़ पर घेरा डाले बैठे हैं। देश का कैसा भाग्य कि जसवंतसिंह जैसा राजपूत राजा और सुर्वे जैसा मराठा सरदार मुगलों के पक्ष में थे।

बाजीप्रभु ने पालकी रुकवाई। उन्होंने राजे से कहा, “राजे, हम फँस गए हैं। हुक्म हो।”

राजे की बुद्धि भी काम नहीं कर रही थी। वह अभी कुछ तय ही कर रहे थे कि बाजीप्रभु बोल उठे, “राजे! अधिक समय नहीं है। पीछे मसूद है और आगे सुर्वे। आप आधी फौज लेकर सुर्वे का घेरा तोड़ते हुए विशालगढ़ पहुँच जाइए। तब तक मैं मसूद को रोकता हूँ।”

“लेकिन केवल तीन सौ सैनिकों के साथ तुम डेढ़ हजार से कैसे लड़ोगे?”

“मुझे लड़कर जीतना नहीं है राजे, बस कुछ देर तक उन्हें रोकना है। यह दर्रा मेरे बड़े काम आएगा। बस आप सकुशल पहुंच जाइए।”

शिवाजी समझ रहे थे कि बाजी क्या कह रहा है। वह राजे की जान बचाने के लिए अपनी जान दांव पर लगा रहा है। पर कोई दूसरा उपाय भी तो नहीं। भारी मन से शिवाजी ने बाजीप्रभु को गले लगाया और जाने के लिए मुड़े। बाजीप्रभु ने उतावली में कहा, “बस किले में पहुँचकर एक तोप दगवा दीजिएगा, जिससे हमें मालूम पड़ जाए कि आप सही सलामत पहुंच गए हैं।”

शिवाजी आधे सिपाहियों के साथ चले गए। उनके जाते ही बाजीप्रभु सिंह की तरह दहाड़ते हुए बोले, “मेरे बहादुरों। हमारे राजा जब तक गढ़ न पहुंच जाए, तब तक एक भी शत्रु इस दर्रे से होकर नहीं गुजरना चाहिए। मराठी आन की लाज हमारे हाथों में है। हर हर महादेव!”

तीन सौ वीरों के घोष से वह घाटी जीवंत हो उठी।

उधर शिवाजी अपने वीरों से साथ दौड़े चले जा रहे थे। जब विशालगढ़ कुछ ही दूर रहा तब सुर्वे को खबर हुई। वह दौड़ता हुआ आया पर वीर शिवाजी के वीरों के आगे उसकी एक न चली। शत्रुओं को गाजर की तरह काटते हुए शिवाजी और उनके मावळे विशालगढ़ पहुंच गए। नगाड़े बज उठे। शिवाजी ने तुरन्त एक तोप दागने का हुक्म दिया। राजे ने सभी घायल सैनिकों की तुरन्त मरहम पट्टी का आदेश दिया और खुद किले के सबसे ऊंचे बुर्ज पर खड़े होकर गजापुर की ओर देखने लगे। गजापुर शांत दिखाई देता था। रात हो गई। बड़ी मायूसी से राजे बैठकखाने में आए।

तभी किलेदार भागता हुआ आया। उसके पीछे-पीछे एक घायल सैनिक को लाया जा रहा था। उसे एक ऊँचे स्थान पर लिटा दिया गया। उस सैनिक ने जब राजे को देखा तो उठने का प्रयास किया, इतने भर से ही जाने कहाँ-कहाँ से रक्त की धाराएं बह चली। राजे ने व्याकुलता से उससे कहा, “लेटे रहो और बताओ क्या हुआ?”

सैनिक बड़ी मुश्किल से, अटकते-अटकते बोला, “राजे, बाजीप्रभु खूब लड़े। दर्रे से एक भी सैनिक पार न हो सका। जो भी आता बाजी उसके दो टुकड़े कर देते। हम मौका देखकर पीछे हटते और शत्रुओं के घुसते ही उन्हें काट देते। एक समय तो ऐसा आया राजे कि जो शत्रु सैनिक बढ़-बढ़कर आ रहे थे, अब आगे बढ़ने में सकुचाने लगे। बाजी उन्हें भाला फेंक-फेंककर मार रहे थे। मसूद की एक न चली। आखिर उसने बन्दूक मंगाई और ताककर बाजीप्रभु को छलनी कर दिया। उनके सीने में गोली लगी। बाजी गिर गए, पर उनकी जगह लेने के लिए तमाम मराठे थे ही। हमें लगा कि बाजी मारे गए, पर दो पल में ही उन्होंने आँखें खोल ली और पूछा ‘क्या तोप की आवाज सुनाई दी’, जब उन्हें बताया कि नहीं, तो वे तुरन्त उसी अवस्था में उठ गए और बोलने लगे, ‘राजे गढ़ तक नहीं पहुंचे, तो बाजी भला उससे पहले मर कैसे सकता है?’ वे फिर से भाला लेकर शत्रु के सामने तन कर खड़े हो गए। तिसपर भी उन्होंने दसियों शत्रु-सैनिक काट गिराए।” थोड़ी सांस लेकर सैनिक पुनः बोला, “राजे, तभी तोप की आवाज सुनाई दी और बाजीप्रभु ‘राजे, आखिरी सिजदा’ बोलकर गिर पड़े।”

इतना बोलकर उस सैनिक ने भी अपनी आँखें मूँद ली।

शिवाजी उस सैनिक के सीने पर गिर पड़े।

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