भारत में नेहरूवाद के सही मायने समझाने वाली पुस्तक
प्रो. शंकर शरण अपने तथ्य, तर्क और टिप्पणियों के लिए जाने जाते है और यहीं शैली उनकी नई पुस्तक ‘नेहरूवाद एक वैचारिक समीक्षा’ में भी झलकती है। अपनी भूमिका के बारे में वे लिखते है: “वस्तुतः अभी तक गांधी-नेहरू के प्रति भारतीय जनता की आम स्थिति तीस साल पहले तक लेनिन-स्तालिन के प्रति रूसी जनता वाली है। दशकों से दिन-रात का सरकारी प्रचार उसपर छाया रहता है। ठोस आधारों पर तय करने का अवसर ही नहीं दिया जाता कि अनेक बुनियादी महत्व के प्रश्नों पर गांधी और नेहरू सचमुच कितने पानी में थे। उनके बारे में हर असुविधाजनक बात सरकारी तंत्र ही नहीं दबाता, स्वतंत्र पत्र-पत्रिकाएँ भी उसे देने में घबड़ाती हैं। “हालाँकि, गांधीजी पर तथ्यात्मक आलोचन करनेवाली कई किताबें उपलब्ध है किन्तु नेहरू पर उस प्रकार का काम कम ही हुआ है और इसीलिए यह पुस्तक महत्वपूर्ण है।
पुस्तक का पहला प्रकरण सीताराम गोयल की “हाउ आई बिकेम हिन्दू” पुस्तक से लिया गया है जिससे “नेहरू संस्कृति” को समझने में आसानी हो। गोयल लिखते है :“मैंने उन दो बड़े राष्ट्रीय नेताओं के व्यवहार की तुलना की, जब वे अपने लोगों की भीड़ के सामने होते थे। मैं यह निष्कर्ष निकाले बिना नहीं रह सका कि जहाँ महात्मा गांधी अपनी घरती के बेटे थे, अपने लोगों के बीच बिलकुल सहज, वहीं पंडित नेहरू भूरे साहब थे जो अपनी सभाओं में लोगों की भीड़ तो पसंद करते थे, लेकिन उनकी संस्कृति से घृणा करते। वे नितांत पराए लगते थे, जो भटक कर किसी विचित्र स्थान पर पहुँच गया हो। “वर्तमान मे कांग्रेस की धुरा सम्हालनेवाले नेहरू के वंशजो पर भी उपरोक्त वर्णन हूबहू बैठता है।
एक्सीडेंटल हिन्दू नेहरू हिन्दुओ से अधिक ब्रिटिश समाज से निकटता महसूस करते थे। इसके बारे में प्रो. शरण लिखते है: “1947 ई. में लॉर्ड माउंटबेटन के नये वायसराय के रूप में आने की खबर सुनने पर उन्हें एक तरह के अपनापे भरी खुशी हुई। नेहरू के शब्द थे-‘After all these Hindus’, अपने साथी कांग्रेस नेताओं की ओर हेय संकेत करते हुए उन्होंने कहा-‘It will be good to meet a straightforward English Socialist again।” यह केवल अपने सहयोगी कांग्रेस नेताओं से ही नहीं, वरन भारतीय हिन्दू समाज से भी नेहरू की सैद्धांतिक व्यावहारिक-भावनात्मक दूरी का एक संकेतक है। मानो कांग्रेस के अपने सहयोगियों के साथ रहना, समय बिताना नेहरू जी की विवशता रही हो।”
नेहरू द्वारा लिखे साहित्य और इतिहास की समीक्षा करते हुए प्रो. शरण निष्कर्ष निकलते है: “नेहरू की इतिहास-दृष्टि को दो शब्दों में रखना हो, तो कहा जा सकता है-इस्लाम का महिमामंडन और मार्क्सवाद कम्युनिज्म का पक्ष-पोषण। उनका संपूर्ण लेखन इन दो बिन्दुओं को निरपवाद रूप से बार-बार दुहराता है, चाहे तथ्यों की कितनी ही अनदेखी या हेराफेरी करनी पड़े।” हम अनुमान लगा सकते है की इसी प्रोपोगंडा के तहत ही नेहरू की अगली पीढ़ी द्वारा भारतीय संविधान में ‘सेक्युलर’ और ‘समाजवादी” शब्द आरोपित किये गए।
मणिबेन की डायरी का हवाला देते हुए प्रो. शरण एक और चौंकानेवाला तथ्य उजागर करते है:”सोमनाथ के जीर्णोद्धार (जिसे नेहरू गैर-जरूरी मानते थे) के बाद नेहरू सरकारी खर्च से अयोध्या में बाबरी मस्जिद का पुनर्निर्माण करवाना चाहते थे। सरदार पटेल ने इसका विरोध किया। मणिबेन की डायरी में 20 सितंबर 1950 को लिखा है कि पटेल ने नेहरू को टोका कि सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण स्वतंत्र न्यास ने किया, जिसमें सरकारी पैसा नहीं लगा था। तब जाकर नेहरू रुके।”
स्वतन्त्र भारत में नेहरू के पक्ष-पात को समझाते हुए प्रो. शरण बताते है की मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों को लिखे नेहरू के कई पत्रोंमें नेहरू कम्युनिस्टों के विरुद्ध किसी भी कार्रवाई का विरोध तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) के विरुद्ध कार्रवाई की पैरोकारी करते मिलते हैं। नेहरू की इस मानसिकता में 1949 के कम्युनिस्ट विद्रोह और हिंसा से भी अंतर नहीं पड़ा था। जबकि वे जानते थे कि यहाँ कम्युनिस्टों ने ‘बड़ी संख्या में लोगों की हत्याएँ’ की हैं। फिर भी, मगर जब तक पटेल रहे, वास्तविक नीति-निर्णयों पर वामपंथी हावी नहीं हो सके।1949 में सशस्त्र विद्रोह कर असंख्य लोगों की जान लेने वाले कम्युनिस्ट जेल में डाले गए। लेकिन पटेल के निधन के बाद उन्हें सादर बाहर लाया गया, इस भाव-भंगिमा के साथ मानो वे त्यागी, बलिदानी हों! इसी अंदाज में कम्युनिस्ट पार्टी ने 1952 में देश का पहला आम चुनाव लड़ा, जिसमें उनकी सफलता नेहरू द्वारा दिए गए वैचारिक सम्मान के कारण ही हुई। फिर जल्द ही, 1954 में स्वयं कांग्रेस ने भी ‘समाजवाद’ को अपना ध्येय घोषित कर दिया। प्रो.शरण प्रस्तुत इन तथ्यों को देखते हुए क्या यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता की नक्सलवाद के नाम पर पनपी हिंसा की जड़े नेहरू शासनमे ही मजबूत हुई ?
साथ ही देश की सीमावर्ती सुरक्षा में नेहरू की कूटनीतिक विफलता को समझने के लिए पुस्तक के यह पेरेग्राफ महत्व पूर्ण है:
“सारी गड़बड़ी तभी शुरू हुई, जब भारत को स्वतंत्रता मिलते ही नेहरू जी ने तिब्बत में अपने तमाम कूटनीतिक अधिकार, कार्यालय, सैनिक दस्ते और टैक्स व्यवस्थाएँ अपनी ओर से खत्म कर दीं (कैलाश के पास मिनसार गाँव विगत चार सदियों से भारतीय रियासत का अंग था। वह 1950 तक जम्मू-कश्मीर राज्य को टैक्स देता रहा था)। वह सारी व्यवस्थाएँ जो पहले से चली आ रही थीं, स्वतंत्र भारत को उत्तराधिकार में मिली थीं। उसे यथावत बनाए रखना ही उचित होता।
यह भी याद रहे कि चीन द्वारा 1949 में तिब्बत पर कब्जे के बाद से ही विश्व-जनमत ने सबसे पहले भारत की ओर देखा था। यानी विश्व का रुख भारत के रुख से प्रभावित होना था। आज भी वही स्थिति है। क्योंकि तिब्बत की स्थिति से सर्वाधिक प्रभावित होने वाला देश पड़ोसी भारत था। इसीलिए संयुक्त राष्ट्र में भारत द्वारा कम्युनिस्ट चीन का ही समर्थन कर देने से ही दुनिया चुपहो गई। वरना तब कम्युनिस्ट चीन कोई महाशक्ति तो क्या, मान्यताप्राप्त देश तक न था! उस समय, बल्कि 1971 तक संयुक्त राष्ट्र में लाल चीन को नहीं, बल्कि फारमूसा (ताइवान) को मान्यता थी। अमेरिका ने तो लाल चीन के साथ 1978 तक राजनयिक संबंध तक नहीं बनाए थे।”
ज्यादातर लोगशिक्षा की अधोगति का पाप मैकाले के माथे मढ़ते है, किन्तु यहां भी प्रो.शंकर शरण अलग राय रखते है। उनके अनुसार यदि स्वतंत्र भारत की शिक्षा, संस्कृति, वैचारिकता में नेहरूवादी, मार्क्सवादी, हिन्दू-विरोधी, अंग्रेजी-परस्त, यूरोप की नकल, भारतीय मनीषा की उपेक्षा आदि प्रवृत्तियाँ बढ़ती, फैलती गई तो इसका दोष मैकाले को हरगिज नहीं देना चाहिए। स्वतंत्र भारत में यह मुख्यतः नेहरूवादी प्रभाव से हुआ कि यहाँ के शिक्षित समुदाय में मोटे तौर पर यह धारणा बैठती गई कि भारत एक पिछड़ा हुआ समाज है, कि अंग्रेजों के आने से पहले यहाँ कोई शिक्षा-व्यवस्था, ज्ञान-तकनीक नहीं थी। न कोई व्यवस्थित राजनीतिक प्रणाली थी।
स्वाधीनता संग्राम, विभाजन, जिहाद, मार्क्सवाद, नेहरूवाद जैसे अनेक विषयो पर अकैडमिक चर्चा हिस्टोरिक्ली करेक्टनेस से ज्यादा पोलिटिकली करेक्टनेस के आसपास घूमती रही। इन्ही अकादमियों से पत्रकारों से लेकर प्रशासको तक की पीढ़ियां निकलती रही और देश के जनमत को प्रभावित करती रही। प्रो.शंकर शरण चेतावनी देते हुए लिखते है की युवा पीढ़ी को मात्र ‘केयरिंग और शेयरिंग’ की लफ्फाजी में उलझाए रखने वाले साहित्यकार, इतिहासकार और राजनीतिक कार्यकर्तागण उनके शुभचिंतक नहीं हैं। कठोर वास्तविकताएँ मानव जीवन का अभिन्न अंग रही हैं। अच्छी, सच्ची शिक्षा या लेखन पलायनवादी नहीं हो सकता। उसमें राजनीतिक उद्देश्यों से काट-छाँट, रंग-रोगन करना तो निश्चय ही हानिकारक है। वैसा करना वर्तमान और भावी पीढ़ियों के लिए एक तरह का ग्रीनहाउस लालन-पालन होगा, जब वह कठोर थपेड़ों और वास्तविकताओं को झेलने के लायक नहीं बन सकेंगे।
केवल १२३ पृष्ठों की इस पुस्तक को प्रतिश्रुति प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। जिनको भारत के इतिहास और वर्तमान पर नेहरूवाद और कोंग्रेसकी राजनीती का प्रभाव समझना हो उनके लिए यह पुस्तक संग्रहणीय है।
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