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काश्मीरीय शैवाद्वैत मत में श्रीक्रमकाली साधना

॥श्रीः॥

॥गुं गुरुभ्योनमः॥ 

जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति-

                       र्जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः।

त्वया स्वामिनः! हृदि स्थितेन्

                         यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि॥

अन्तरायतिमिरौघशान्तये स्वेष्टशक्तिकरुणाऽरुणाप्रभम्।

सन्तनोतु मुनिवृन्दसेवितम् भावगम्यमनिशं शिवं महः॥१॥

करुणापूरितचित्तां सच्चिद्रूपां परां दिव्याम्।

ब्रह्मसहचरीं तुर्यां बगलाशक्तिं प्रणौमि सौभाग्याम्॥१॥ 

कश्मीर का अद्वैतशैव मत मूल रूप से परमाद्वैत या पराद्वैत नाम से प्रसिद्ध है। इसी नाम से यह विभिन्न शास्त्रों वर्णित है। इस पराद्वैत को देखने के बहुत से आयाम हैं यथा त्रिक, प्रत्यभिज्ञा, कुल और स्पन्द इत्यादि। इन दर्शनों के अलावा एक और दर्शन काश्मीर में साधना का आधार रहा जो क्रम दर्शन के नाम से जाना जाता है। श्रीतन्त्रालोक में राजानक जयरथ जी इस बात को बहुत स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि यह दर्शन सहोदर दर्शन है

न केवलमेताः क्रमदर्शनादेवोक्ता यावदस्मन्यसहोदरेषु शास्त्रेष्वपीत्याह।

और भी कहा है

तदेव चेदानीं विभज्य दर्शयन्, क्रमनयसोदरतामस्य दर्शनस्यावेदयति।

वह कहते हैं कि अब आचार्य क्रमनय व अपने दर्शन में साम्य प्रस्तुत कर रहे हैं। आचार्य अभिनवगुप्त जी नो यह साम्य समास व्यास विधि से वर्णित किया है। न बहुत बताया है न तो छिपाया ऐसे में लोकोपकार के लिए इस साम्य का वर्णन यहाँ पर किया जाएगा।

उस साम्य को जानने से पूर्व श्रीक्रमकाली साधना का सार जानना आवश्यक है। इस क्रम में अब सर्वप्रथम हम माँ भगवती श्री कालसंकर्षिणी के तत्त्व को समझेंगे फिर उनकी साधना का विधान देखेंगे और फिर साम्य क्या है यह समझ पाएंगे।

॥श्रीकालसड़्कर्षिणी॥

वस्तुतः जो काल का कलन करें वह काली हैं–

एषा वस्तुत एकैव परा कालस्य कर्षिणी।[१] (३.३२३)

यह कलन वह दो प्रकार से करती हैं। अक्रम व क्रम रूप में।

अक्रम

जब यह संसार परावाक् से विमर्शित होता है तो वह क्रमिक होता है लेकिन जब यह परावाक में ही उल्लसित रहता है तो वह अक्रम की स्थिति होती है –

 सर्वं एवायं वाग्रूपः परामर्शः क्रमिक एव, अन्तः संविन्मयस्त्वक्रम एव – इति सदैवेयमेवंविधैव एवमेव विचित्रा पारमेश्वरी पराभट्टारिका।

क्रम

जब परमेश्वर की स्वातन्त्र्य शक्ति देश व काल के अनुरूप रूप इत्यादि का उपकल्पन करती हैं तो  ह क्रम कहलाता है –

वक्ष्यमाणेश्वरस्वातन्त्र्यरूपदेशकालशक्त्युपकल्पितः क्रमः देशकाल परिपाटी। (ई. प्र. वि.)

श्रीकाली

जब वह स्वातन्त्र्य शक्ति काल का कलन करती हैं तो वह श्री काली कहलाती हैं। वह यह कलन पाँच प्रकार से करती हैं। क्षेप, ज्ञान, संख्यान, गति और नाद। अपने स्व को भूलना क्षेप कलन होता है। मूल सावरुप को भूलने के कारण जो विकल्प ज्ञान जाग्रत होता है वह ज्ञान कलन है।अपने को दूसरे से अलग समझना यह संख्यान है। यह प्रथम तीन कलन क्रमशः आणव, कार्म व मयीय मल हैं। इस प्रकार से स्वात्न्त्र्य शक्ति शिव की चिति जो कि वह स्वयं हैं संकुचित कर चित्त बना देती हैं और उनको जीव बना कर संसार में स्थापित कर देती हैं। यह संसरण की दशा है।

इसको उपरांत वह मुक्त करने का कार्य प्रारंभ करती हैं जो दो प्रकार के कलन से होता है। अपने स्व में आरोह अर्थात स्व की ओर उन्नयन जिससे प्रत्यभिज्ञा की सिद्धि हो वह गति है। यही शास्त्रान्तर में सद्गति कही जाती है। नाद स्व का परामर्श होता है जिसका कारण इदन्ता अथवा भेद का विलय होता है।

भगवती श्री परा जो पाँच प्रकार से कलन करती हैं इसलिए देवी श्री काली अथवा श्रीकालसड़्कर्षिणी कहलाती हैं –

क्षेपो ज्ञानं च संख्यानं गतिर्नाद इति क्रमात॥१७३॥

स्वात्मनो भेदनं क्षेपो भेदितस्याविकल्पनम्।

ज्ञानं विकल्पः संख्यानमन्यतो व्यतिभेदनात्॥१७४॥

गतिः स्वरूपारोहित्वं प्रतिबिम्बवदेव यत्।

नादः स्वात्मपरामर्शः एषता तद्विलोपनात्॥१७५॥

इति पञ्चविधामेनां कलनां कुर्वती परा।

देवी काली तथा कालकर्षिणी चेति कथ्यते॥१७६॥

आप ही को श्री मातृसद्भाव, वामकोश्वरी और कौलिकी शक्ति इत्यादि नामों से व्यवहृत किया जाता है –

मातृसद्भावसंज्ञास्तेनोक्ता यत्प्रमातृषु।

एतावदन्तसंवित्तौ प्रमातृत्वं स्फुटीभवेत्॥१७७॥

वामोश्वरीति शब्देन प्रोक्ता श्रिनिशीसंचरे।

कलन

कलन शब्द का तात्पर्य है स्वातन्त्र्य शक्ति का सर्वतोमुखी विमर्श। जब वह काल का कलन करती हैं तो यह समस्त संसार में होता रहता है। यह अलग बात है कि काल की गणना देश के अनुरूप अलग-अलग होता है।

श्रीकालसंकर्षिणी प्रादुर्भाव

श्रीकालसंकर्षिणी को उद्भव का रहस्य बताने हेतु महामहेश्वराचार्य अभिनवगुप्त श्रीयोगसंचर शास्त्र[२] का उद्धरण देते हैं।

ये चक्षुर्मण्डले श्वेते प्रत्यक्षे परमेश्वरी।

षोडशारं द्वादशारं तत्रस्थं चक्रमुत्तम्॥१२७॥[३]

श्लोक के अनुसार नेत्रद्वय में सृष्टि स्थिति संहार और तुरीय अवस्थाओं का अवस्थान होता हो जो कि निम्न है –

श्वेत मण्डल षोडशार चक्रः – सृष्टि अवस्था।

रक्त मण्डलः – द्वादशारचक्रः – स्थिति अवस्था।

श्वेत-कृष्ण मण्डल अष्टारचक्रः – संहार अवस्था। तीन भैरव, तीन भैरवी, कुलेश्वर और कुलेश्वरी।

अतीवकृष्ण, कुमारिका-मण्डल,चतुर्दलः – अनाख्य अवस्था।तीन देवियाँ और श्री मातृसद्भाव।

यहाँ पर जब षोडशार चक्र जो कि चन्द्रमा और प्रमेय है, जब अग्नि अर्थात अष्टार चक्र अर्थात प्रमाता से मेलाप करता है तो यह अग्निषोम अथवा प्रमाता और प्रमेय का मेलाप कहलाता है। इससे अमृत बरसता है।

यह अमृत संविद तत्त्व है। यह प्रमाण की अवस्था पर पहुंचती हैं और प्रमाता से एक हो जाती हैं। इसके उपरांत एक प्रकाश की उत्पत्ति होती है जो कि माया रूप रात्रि में सन्मार्ग प्रदर्शित करता है। भैरव इसको अपना स्वरूप मानते हैं। यह प्रकाश ही वस्तुतः काल है। तो वस्तुतः षोडशार व अष्टार के मिलन से काल की उत्पत्ति होती है।  भैरव स्वयं काल रूप उद्भूत होते हैं जो कि ब्रह्मा से लेकर कीड़े तक संसार का सर्ग करतो हैं और फिर पर प्रमाता रूप में विलास करते हैं।

इन अष्टार आदि नेत्र स्थित चक्रों के ऊपर सहस्रार चक्र होता है। यह इन नेत्र चक्रों से पृथक होने पर भी एक सा प्रतीत होता है। इसमें क्रिया शक्ति जो कि सोम हैं, को पर प्रमाता अग्नि तप्त करती है और यह उत्तोजित हो उठती हैं। इसके उपरांत इनसे तमाम विश्व प्रकट होने लगते हैं। यह नीचे के चक्रों को अमृत से तब तक सींचती हैं जब तक की अशुद्ध अध्वा के लोक अस्तित्व में न आ जाएं।

अब परमेश्वर अपने मूल रूप को अपनी स्वातन्त्र्य शक्ति के द्वारा संकुचित करके अपने को जीव रूप में प्रकट करते हैं। इस प्रकार से वह अपर प्रमाता के साथ-साथ प्रमाण अथवा नील और प्रमेय अथवा सुख बनते हैं। वह पञ्च महाभूत से निर्मित शरीर धारण करते हैं। वही कहा गया –

इत्याद्युक्त्या सृष्ट्यादिपञ्चविधकृत्यकारी परमेश्वरः तौ यथा स्रवतः – सृष्टिं कुरुतः, तथा ते षोडशाराष्टारे, निःसंशयममृतस्य सोमात्मना प्रमेयस्य, अग्नेश्च प्रमातुः परस्परऔनमुख्यलक्षणात् संयोगादमृतम् अकालकलितत्वात् अनादिनिधनं परं संवित्तत्वं द्रवतः – तद्रूपतया प्रसरत इत्यर्थः संविदेव हि आश्यानिभूता नीलादिरूपतामधिशयाना प्रमाणोपारोहद्वारेण

भैरव-नर्तन

शिव सूत्र है नर्तको भैरवः। संसार में आवागमन ही परमेशेवर भैरव का नर्तन है। यह नर्तन कैसे होता है वह बताते हुए कहते हैं कि इड़ा, सुषुम्ना व पिड्गला जल, वीर्य व रक्त की वाहिका हैं। यामल की दशा में यह छह हो जाती हैं। यह गुह्य चक्र जो की वर्णनातीत हैं। इसी में भैरव धावन करते रहते हैं। 

संसार का जहाँ से उदय होता है वहीं पर लीन भी हो जाता है। इसी कारण से परमेश्वर उसकी ओर ही आकृष्ट होते हैं। इस कारण से यह केवल बाह्य औनमुख्य के लिए ही नहीं वरन स्व में विश्रान्त होने का भी साधन है। जब कोई योगी अपने शरीर में इस अवरोह को प्राप्त करता है तो वह सिद्धि और मोक्ष दोनों को प्राप्त करता है।

वहाँ पर अग्निषोम के मेलाप से अमृत की वर्षा होता है। यही अमृत घुटनों तक समस्त लोकों का निर्माण करता है।[४] यह जान कर वह विश्वप्रभु बन जाता है –

इत्याजानन्नैव योगो जानन्विश्वप्रभुर्भवेत्।

ज्वलन्निवासौ ब्रह्माद्यैर्दृश्यते परमेश्वरः॥१४४॥

आगे यह बताकर की हर एक इन्द्रिय सूर्य की बारह रश्मियों के समान भासित हैं। वे कहते हैं कि यह अत्यन्त रहस्यमय है इसलिए कह नहीं सकते –

न व्याख्यातं तु निर्भज्य यतोऽतिरहस्यकम्।[५]

देवी स्वयं प्रमेय में बारह मास, व बारह राशी स्वरुप विराजमान हो कर विलास करती हैं।

यहाँ जो द्वादश है वह भगवती श्री कालसंकर्षिणी का ही श्रीक्रमकाली रूप में विलास है।

श्रीक्रमकाली

यहाँ द्वादश काली स्वरूप में भगवती विलास करती हैं। यह समस्त रूप चेतना के बारह स्तर हैं। कोई कहे की भेद वादी स्वरूप की उपासना क्यों करे तो उसका उत्तर है कि इन समस्त बारह रूपों में संविद का ही उल्लास है। वही अपनी स्वातन्त्र्य शक्ति के माध्यम से बाह्य व आन्तर विमर्श करती रहती हैं –

तथाहि संविदेवेयमन्तर्बाह्योभयात्मना॥१२२॥

स्वातन्त्राद्वर्तमानैव परामर्शस्वरूपिणी।

॥श्रीद्वादशकाली॥

ऊपर जो प्रमाता, प्रमाण व प्रमेय कहे गए हैं उन सबकी चार-चार अवस्थाएं हैं।[६] सृष्टि जो कि भेद का विमर्श है, स्थिति उस भेद की स्थिति, संहार उस भेद का पतन है और तुरीय अगली अवस्था का मार्ग है।

स च द्वादशधा तत्र सर्वमन्तर्भवेद्यतः॥१२३॥

सूर्य एव हि सोमात्मा स च विश्वमयः स्थितः।

कलाद्वादशकात्मैव तत्संवित्परमार्थतः॥१२४॥

 सा च मातरि विज्ञाने माने करणगोचरे।

मेये चतुर्विधं भाति विज्ञाने माने करण गोचरे॥१२५॥

 ता एताश्तस्रः शक्तयः स्वातन्त्र्यातत्प्रत्येकं त्रिधैव वर्तन्ते-

सृष्टौ स्थितौ संहारे च इति द्वादश भवन्ति॥

यही बात सोदाहरण कही गई है। एक बालक रोज अपने घर से विद्यालय जाते हुए रास्ते में एक बहु प्रसिद्ध विश्वविद्यालय को देखता था। उस विश्वविद्यालयल की ख्याति वह समय-समय पर सुनता रहता था। उसको सुन कर वह मन ही मन उस विश्वविद्यालय में प्रवेश हेतु कामना करने लगा। उसका मन प्रवेश के उपरांत वहाँ क्या होगा, कैसे साथी मिलेंगे, क्या पढ़ना होगा यह सब सोच कर वह कौतुहल से भर जाता था।

धीरे-धीरे उसकी अवस्था बढ़ने लगी और एक दिन उसने उस विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया। प्रवेश लेने के बाद उसके मन की समस्त जिज्ञासाएँ शान्त हो गईं। कुछ काल बीतने के उपरांत वह विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण हो संसार में आ गया और अपनी आजीविका व परिवार में लीन हो गया। परिवार में लीन होने के उपरांत अब जब वह कभी उस विश्वविद्यालय के सामने से निकलता उसके मन में कौतुहल की जगह पर दृढ ज्ञान होता कि उस विश्वविद्यालय में क्या है!

यह संसार भी बहुत से कौतुहलों से भरा हुआ है और हम सब इस संसार में यात्री हैं। हमारे अंदर भी यह जानने उतकण्ठा है कि संसार का मूल क्या है? जिस दिन हम संसार के मूल तत्त्व को जान लेंगे हम निश्चित ही परम ज्ञान को सिद्ध होंगे जो की हमें भव-बंधनों से मुक्त कर देगा। इस ज्ञान की सिद्धि के शैव मार्ग में बहुत से मत हैं यथा अद्वैत, द्वैताद्वैत व द्वैत। अद्वैत शैव मत में ही त्रिक, क्रम व कुल तीन मत मिलते हैं। जिस मत से हम संसार के यात्री इस संसार के सत्य को जानने का प्रयत्न कर व सिद्ध होकर पारमेश्वरी का सायुज्य सिद्ध करेंगे वह क्रम मत है।

जीव संसार में आता है व विकल्पमय विश्व का भास उसको होता है। जब वह श्रीक्रमकाली साधना करता है तो शुद्ध संविद का सतत् उल्लास होता रहता है। जो श्री द्वादश काली के नाम कहे गए हैं शुद्ध संविद के स्फुरण की बारह अवस्थाएं हैं। इनके अवलम्बन से भेद विकल्पों का शमन होता है औरस्फुटतम विकल्प का जागरण होता है। यह स्फुटतम् विकल्प ही सत्तर्क है। यह सत्तर्क शाक्तोपाय की साधना है इसी कारण से शाक्तोपाय प्रकाशन के अवसर पर आचार्य यह श्रीकालसंकर्षिणी की श्रीक्रमकाली साधना का वर्णन करते हैं।

मलों की उत्पत्ति से लेकर उनके शोधन तक जो कोई भी विमर्श यहाँ पर है वह सब परमाद्वैत मत के अनुरूप है। इस कारण से यह परमाद्वैत का ही साधना स्वरूप है ऐसा मानने में कोई हानि नहीं है। ले किन इसकी अपनी स्वतन्त्र श्रीसद्गुरु परंपरा रही है जिसका विषद वर्णन श्रीतन्त्रालोक में किया गया है।

॥श्रीद्वादशकालीनामानि॥

श्रीक्रमकाली साधना में जिन श्री द्वादश काली स्वरूपों की साधना की जाती है वह निम्न हैं –

  • श्रीसृष्टिकाली
  • श्रीरक्तकाली
  • श्रीस्थितिनाशकाली
  • श्रीयमकाली
  • श्रीसंहारकाली
  • श्री मृत्युकाली
  • श्री रुद्रकाली
  • श्री मार्तण्डीकाली
  • श्री परमार्ककाली
  • श्री कालाग्निरुद्रकाली
  • श्री महाकाली
  • श्री महाभैरवचण्डोग्रघोरकाली

पूजा

श्रीशाक्तोपाय प्रकाशन आह्निक में पूजा का मूल अर्थ अपने मूल स्वरूप को जानना कहा गया है। श्रीक्रमकाली की साधना अन्तर्गत यह बारह प्रकार से शुद्ध संविद का स्फुरण करने के द्वारा की जाती है। भगवती के बारहवें स्वरूप का साक्षात्कार होता है तो योगी निर्वकल्पावस्था का भाजन करता है –

पूजा नाम विभिन्नस्य भावौघस्यापि संगतिः॥१२१॥

स्वतन्त्रविमलानन्तभैरवीयचिदात्मना।

आन्तर साधना अत्यन्त जटिल साधना है। यह श्रीसद्गुरु के आशीर्वाद पर्यन्त सिद्ध होने वाली साधना है।

बाह्यपूजनम्

भगवती श्रीकालसंकर्षिणी की बाह्य साधना के मन्त्र व पद्धति पर्याप्त मिलती है। हमारी श्रीसद्गुरु परंपरा में श्रीकालसंकर्षिणी की विभिन्न अवस्थाओं के मन्त्र मिलते हैं। श्रीमद्तन्त्रालोक में भी श्रीकालसंकर्षिणी का मन्त्र प्राप्त होता है। श्रीमहाकाल संहिता में श्रीगुह्यकाली खण्ड में सृष्टि, स्थिति, संहार और अनाख्य पूजा का विधान दिया गया है।

काशी में परम पूज्य बाबा कीनाराम जी ने भगवती श्रीगुह्यकाली की स्थापना की है। यह प्रामाणिक है कि उनके संप्रदाय में श्रीकालसड्कर्षिणी की साधना होती है।

इसके अलावा श्री श्री विशुद्धानन्द परमहंस जी के संप्रदाय में भी यह साधना होती है।

श्रीकालसड्कर्षिणी साधना और सूर्य साधना

सूर्य और शक्ति साधना का वैदिक काल से ही अविनाभाव संबंध है। यहाँ पर भी सूर्य की रश्मियों का हर इन्द्रियों में व्याप्त होना उसी का द्योतक है। श्री श्री विशुद्धानन्द परमहंस जी और सूर्य विज्ञान साधना व मूल में भगवती की साधना अपने में अति रहस्यपूर्ण है।

काश्मीर में आज भी इस परमाद्वैत मत के उपासक श्रीसाम्बपञ्चाशिका को शिरोधार्य करते हैं। श्रीसाम्ब पञ्चाशिका भगवान श्री कृषेण व देवी जाम्बवती के पुत्र है जो कुष्ठ रोग से ग्रस्त होने पर भगवान सुर्य की साधना करते हैं। श्रीसाम्ब पञ्चाशिका स्तोत्र में चित् सूर्य की उपासना की जाती है जो कि विश्वोत्तीर्ण व विश्वमय दोनों हैं। प्राण व अपान का ग्रास काल का कलन है जो कि श्रीकाल संकर्षिणी की ही साधना है।

बाकी साधना का विषय है कौन इन समस्त वाक् प्रपञ्चों की प्रधान नायिका भगवती श्री पराभट्टारिका का रहस्य शब्दों में वर्णित कर सकता है?

ॐ शम्

[१]श्रीमतन्त्रालोके – ३ आह्निकः।

[२]वर्तमान में यह ग्रन्थ अज्ञात है।

[३]श्रीमतन्त्रालोके – ४तमः आह्निकः ।

[४]समस्त लोक इस शरीर में अधिष्ठित हैं। अग्निषोमात्मक विश्व का ब्रह्मरन्ध्र से पाद पर्यन्त समस्त लोकों शरीर में पर्यवसान है। जब ब्रह्मचारी योगी सहस्रार में पहुँच कर इसका अनुभव करता है तो वह विश्वमय शिव हो जाता है। वहीं नेत्र के चक्रों के मेलाप से उत्पन्न भैरव स्वरूप काल को अनुभूत करके कालजयी होता है। इस प्रकार से वह देश व काल अध्वा को सिद्ध कर लेता है।

[५]तदेव – १४८ तमः श्लोकः।

[६]यह बारह स्वरूप कोवल प्रमाता, प्रमाण व प्रमेय द्वारा ही नहीं अपितु परा, परापरा व अपरा शक्ति का सृष्टि, स्थिति व संहार आदि चार अवस्थाओं द्वारा भी जाने जा सकते हैं। इसके अलावा यह अमृत बीज के बिना बारह स्वर भी हैं।

Feature Image Credit: wikipedia.org

Conference on Shaivism

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